अंतरिम बजट के लिए जेटली के समक्ष उपलब्ध विकल्प | दिल्ली डायरी | | ए के भट्टाचार्य / January 16, 2019 | | | | |
वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा है कि वह वित्त वर्ष 2019-20 के लिए अंतरिम बजट को अंतिम रूप देते समय पुरानी रवायत के ही हिसाब से चलेंगे। जेटली ने एक साक्षात्कार में कहा, 'चुनावी वर्ष में बजट पेश करते कुछ चीजें शामिल की जा सकती हैं जबकि कुछ चीजों को आप शामिल नहीं कर सकते हैं।' क्या जेटली इस सरकार के अपने अंतिम बजट में कर प्रस्तावों की घोषणा कर सकते हैं? पिछले तीन अंतरिम बजट में कराधान प्रस्तावों की समीक्षा करने से हमें यह संकेत मिल सकता है कि जेटली के इस कथन का आशय क्या था?
ये अंतरिम बजट तीन अलग-अलग सरकार के समय पेश किए गए थे। वर्ष 2004 में वाजपेयी सरकार के समय जसवंत सिंह तथा मनमोहन सिंह के समय 2009 में प्रणव मुखर्जी और 2014 में पी चिदंबरम ने अंतरिम बजट पेश किया था। इन तीनों के समय हालात भी अलग थे। वर्ष 2004 में सीमा शुल्क कटौती होने, प्रतिस्पद्र्धा बढ़ाने के लिए अर्थव्यवस्था के दरवाजे खोले जाने और अधिक कर सुधारों से भारतीय अर्थव्यवस्था ने उछाल भरनी शुरू कर दी थी। वर्ष 2009 का अंतरिम बजट 2008 में उभरी वैश्विक आर्थिक मंदी के असर की पृष्ठभूमि में पेश किया गया था। जब चिदंबरम ने 2014 में अपना अंतरिम बजट पेश किया था तो अर्थव्यवस्था की हालत ठीक नहीं थी, कच्चे तेल के दाम बढ़ रहे थे और राजकोषीय घाटा एवं चालू खाता घाटा दोनों ही तनाव का सामना कर रहे थे। इनमें से केवल एक बार यानी 2009 के अंतरिम बजट में ही नए कर प्रस्तावों से पूरी तरह परहेज किया गया था। इसके बजाय मुखर्जी ने अंतरिम बजट में यह बताने की कोशिश की थी कि राजकोषीय सशक्तीकरण योजना लक्ष्य से कैसे भटक गई?
फरवरी 2008 में पेश किए गए 2008-09 के बजट में राजकोषीय घाटे के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 2.5 फीसदी रहने और 1 फीसदी राजस्व घाटा का अनुमान जताया गया था। उस बजट को चिदंबरम ने पेश किया था। लेकिन नवंबर 2008 में मुंबई आतंकी हमले के बाद चिदंबरम को गृह मंत्रालय का जिम्मा दे दिया गया था और प्रणव मुखर्जी वित्त मंत्री बने थे। मुखर्जी ने अपने अंतरिम बजट भाषण में यह कहकर समूची लोकसभा को अचंभित कर दिया था कि 2008-09 में सरकार का राजकोषीय घाटा जीडीपी का 6 फीसदी और राजस्व घाटा 4.4 फीसदी तक होने वाला है। एक साल बाद वर्ष 2008-09 के वास्तविक आंकड़े आने के बाद भी इन आंकड़ों में कोई बदलाव नहीं हुआ। कुछ अन्य अंतरिम बजटों में भी राजकोषीय लक्ष्य पर खरा उतरने में सरकार की नाकामी को साफ-साफ बताया जाता रहा है। इसके उलट बाकी दो अंतरिम बजट असल में सरकार की राजकोषीय सशक्तीकरण योजना के सफल रहने के दावे कर रहे थे। जसवंत सिंह ने कहा था कि 2003-04 में राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 4.8 फीसदी तक लाने में सरकार कामयाब रही है जबकि बजट में 5.6 फीसदी का लक्ष्य रखा गया था। इसी तरह चिदंबरम ने कहा था कि 2013-14 में राजकोषीय घाटा घटकर जीडीपी के 4.6 फीसदी पर आ गया है जबकि बजट में इसके 4.8 फीसदी रहने का अनुमान लगाया गया था। जब इन दो बजटों के वास्तविक आंकड़े एक साल बाद सामने आए तो राजकोषीय स्थिति और भी बेहतर नजर आई। मुखर्जी के उलट जसवंत सिंह और चिदंबरम ने अपने-अपने अंतरिम बजट में कराधान प्रस्ताव भी रखे थे।
जसवंत ने आयकर अधिनियम में किसी संशोधन का प्रस्ताव नहीं रखा था लेकिन अगले वित्त वर्ष के लिए अपनी कार्य योजना का खाका पेश किया। उन्होंने करदाताओं के लिए दी जाने वाली रियायतों के परीक्षण की प्रतिबद्धता जताई। ऊर्जा क्षेत्र की नई परियोजनाओं को मिलने वाले लाभ वर्ष 2012 तक बढ़ाने, सूचीबद्ध कंपनियों के लिए दीर्घावधि पूंजीगत लाभ कर से मिलने वाली छूट को तीन साल के लिए बढ़ाने और आयकर की गणना में इस्तेमाल होने वाली मानक कटौती के संशोधन की बात की गई।
अप्रत्यक्ष करों के मामले में जसवंत सिंह ने पूंजीगत सामान और ऊर्जा उपकरण समेत कई क्षेत्रों के लिए नई रियायतें एवं छूट देने की सरकारी मंशा का जिक्र किया था। उन्होंने विदेश से लौटने वाले भारतीयों के लिए शुल्क-मुक्त सामान का भत्ता तत्काल प्रभाव से बढ़ा दिया और आयात एवं सेवा कर अनुपालन के लिए उपभोक्ता-अनुकूल कर प्रशासन मानक लागू करने का ऐलान किया। चिदंबरम 2014-15 का अंतरिम बजट पेश करते समय इससे भी एक कदम आगे बढ़ गए। उन्होंने कहा था, 'मौजूदा आर्थिक स्थिति ऐसी हैं कि नियमित बजट के लिए इंतजार नहीं किया जा सकता है।' उन्होंने पूंजीगत उत्पादों एवं टिकाऊ उपभोक्ता उत्पादों में तेजी लाने के लिए कई उत्पादों पर उत्पाद शुल्क घटा दिया। उन्होंने कारों, दोपहिया वाहनों, एसयूवी और वाणिज्यिक वाहनों पर उत्पाद शुल्क घटा दिया और कई उत्पादों का घरेलू उत्पादन बढ़ाने के लिए उन पर उत्पाद शुल्क की नई दरें तय घोषित कर दीं। कई शुल्क दरें केवल जून 2014 तक के लिए ही रखी गई थीं।
जेटली के सामने अपने अंतरिम बजट में सीमित विकल्प ही रह जाते हैं। ऐसा होने का कारण यह है कि जेटली की अप्रत्यक्ष करों के बारे में राय सिर्फ सीमा शुल्क तक ही सीमित है क्योंकि जीएसटी परिषद ने कई उत्पादों की दरों में बदलाव पहले ही कर दिया है। लिहाजा उनके सामने चिदंबरम की तरह विकल्प नहीं हैं। लेकिन अगर वह जसवंत सिंह की राह पर चलते हैं तो अंतरिम बजट में समूचे वित्त वर्ष के लिए समग्र कर बदलावों की सरकार की मंशा जता सकते हैं। अगर जेटली प्रणव मुखर्जी का अनुसरण करना चाहते हैं तो फिर कर दरों में किसी भी बदलाव की गुंजाइश ही नहीं बचती है। क्या जेटली इनमें से किसी एक नजीर पर चलेंगे या अपने पूर्ववर्तियों के अपनाए विकल्पों में से चुनना चाहेंगे? इसका जवाब 1 फरवरी को बजट पेश करते समय मिल ही जाएगा।
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