चीन और अमेरिका का द्वंद्व कारोबारी या तकनीकी? | नीति नियम | | मिहिर शर्मा / December 09, 2018 | | | | |
हुआवेई टेक्नॉलाजीज की मुख्य वित्तीय अधिकारी (सीएफओ) मेंग वानझोउ को कनाडा के अधिकारियों ने वैंकूवर में अमेरिका के कहने पर गिरफ्तार कर लिया। यह गिरफ्तारी चीन और अमेरिका के बीच बढ़ते तनाव के बीच हुई है। हालांकि महज चंद रोज पहले अर्जेंटीना की राजधानी ब्यूनस आयर्स में जी 20 देशों की बैठक में ऐसा प्रतीत हुआ था कि अमेरिका और चीन के बीच शांति स्थापना हो गई है। मेंग की गिरफ्तारी इसलिए हुई क्योंकि अमेरिका ने हुआवेई पर आरोप लगाया था कि वह ईरान पर लगाए गए समझौतों का पालन नहीं कर रही है। मामले के बारे में अभी तक ज्यादा ब्योरा उपलब्ध नहीं है क्योंकि अमेरिका काफी जानकारी गोपनीय रख रहा है। परंतु यह बात ध्यान देने वाली बात है कि मेंग कोई साधारण कर्मचारी नहीं हैं। वह हुआवेई के संस्थापक रेन झेनफेई की बेटी हैं। उनके पिता पूर्व सैन्य इंजीनियर हैं और उनके चीन के सैन्य प्रतिष्ठान से करीबी रिश्ते हैं।
कई लोग मानते हैं कि एक दिन वह हुआवेई को संभालेंगी। उनकी गिरफ्तारी के ब्योरे भी सामान्य नहीं हैं। मेंग वैंकूवर हवाई अड्डे पर उड़ान बदल रही थीं। आमतौर पर प्रतिबंध उल्लंघन के लिए किसी व्यक्ति को किसी तीसरे देश में गिरफ्तार करने की घटना नहीं होती है। आश्चर्य नहीं कि चीन में इसे लेकर गुस्से का माहौल है। ऐसा लग रहा है कि अमेरिका ने इस मामले में कुछ ज्यादा ही सीमा लांघ दी है। अमेरिका की ओर से इस मामले को लेकर परस्पर विरोधाभासी संकेत मिल रहे हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप जोर देकर कह रहे हैं कि उन्हें नहीं पता कि उनके राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जॉन बोल्टन यह क्यों कह रहे हैं कि उन्हें इस गिरफ्तारी की जानकारी थी। जबकि यह गिरफ्तारी उस समय हुई जब बोल्टन ब्यूनस आयर्स में ट्रंप और शी चिनफिंग के साथ मौजूद थे जहां गतिरोध कम करने पर वार्ता चल रही थी। इससे एक बात तो साफ हो गई कि अमेरिका और चीन की असहमति को लेकर दो आम मान्यताएं मिथक या ज्यादा से ज्यादा भ्रम हैं। पहला मिथक तो यह है कि यह कदम ट्रंप की अधीरता की वजह से उठाया गया या इसका संबंध उनकी पश्चगामी कारोबारी शंकालु प्रवृत्ति से है। दूसरा मिथक यह है कि यह कारोबारी जंग शुल्क दरों से संबंधित है जहां अमेरिकी शुल्क दरें बहुत कम और चीन की दरें बहुत अधिक हैं।
सच तो यह है कि इन तनावों को डोनाल्ड ट्रंप से कोई लेनादेना नहीं है। पूरे अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान में इस बात को लेकर सहमति है कि चीन के साथ सहयोग और संबद्घता का उतना फायदा नहीं मिला है जितना मिलना चाहिए था। ऐसे में अब उसे नियंत्रण में रखने का वक्त आ गया है। ऐसा मानने वालों में रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक दोनों दलों के सांसद शामिल हैं। यह चिंता चीन के उदय से घरेलू अर्थव्यवस्था पर पडऩे वाले प्रभाव से कहीं परे है। शी चिनफिंग के नेतृत्व में बढ़ते अधिनायकवाद और केंद्रीकरण का संबंध भी इस बदले हुए रुख से है। बीते कुछ वर्षों के दौरान चीन द्वारा अपनाई गई आक्रामक विदेश नीति भी एक पहलू है। अगर 2020 में ट्रंप सत्ता से बाहर हो जाते हैं तो भी अमेरिका के इस कड़े रुख में बदलाव आने की संभावना न के बराबर है।
ऐसा भी नहीं है कि ये तनाव केवल दरों को लेकर है। कुछ लोग ऐसे होंगे जो यह चाहते होंगे कि चीन और अमेरिका के आर्थिक रिश्ते वापस उस बिंदु पर पहुंच जाएं जहां व्यापार कम असंतुलित था। परंतु असली लड़ाई भविष्य की विश्व अर्थव्यवस्था को लेकर है न कि अतीत को लेकर। यह पूरी लड़ाई उच्चस्तरीय प्रौद्योगिकी को लेकर है। कौन इसे बनाएगा, किसके पास इसका स्वामित्व होगा और इसका इस्तेमाल कौन करेगा। चीन की हुआवेई जैसी दिग्गज कंपनियों ने हाल के वर्षों में मूल्य शृंखला में काफी ऊंचाई हासिल की है।
बहुत संभव है कि उन्होंने गुणवत्ता या नवाचार के मामले में पश्चिमी देशों की औद्योगिक जटिलता न हासिल की हो लेकिन इसमें दो राय नहीं कि अब वे प्रतिस्पर्धी बन चुके हैं। उदाहरण के लिए इस मामले में सवाल यह है कि ईरान पर अमेरिकी तकनीकी प्रतिबंध के क्या मायने हैं? अतीत में जब सारी तकनीकों पर पश्चिम का नियंत्रण था, उस वक्त इन प्रतिबंधों का असर पड़ता था। भविष्य में जहां चीन की कंपनियां भी कई तरह की तकनीक पर नियंत्रण रखेंगी और अमेरिकी आदेश की अनदेखी करेंगी, ऐसे में वहां अमेरिकी आदेश बहुत मायने नहीं रखते।
खुद ट्रंप ने बार-बार चीनी कंपनियों द्वारा अमेरिकी बौद्धिक संपदा की चोरी की बात कही है। पश्चिमी कंपनियों की यह आम शिकायत है कि चीन में या चीन के साथ कारोबार करने की कीमत बौद्धिक संपदा के रूप में चुकानी पड़ती है। अगर इन दावों को अतिरंजित मान लें और यह भी मान लिया जाए कि चीन ने अपनी बौद्धिक संपदा व्यवस्था में कुछ सुधार किया है तो भी सच तो यही है कि चीन की कुछ कंपनियों द्वारा मूल्य शृंखला और तकनीकी प्रगति के मामले में इतनी तेजी से आगे बढऩा काफी हद तक इसी की बदौलत है। भविष्य की तकनीक पर जिसका नियंत्रण होगा, वही भविष्य के नेटवर्क और मुनाफे का भी मालिक होगा। यह ऐसी लड़ाई नहीं है जहां कोई भी पीछे हट जाए। आप व्यापार और शुल्क दरों के मुद्दे पर समझौता कर सकते हैं लेकिन तकनीकी होड़ में किसी तरह का समझौता नहीं हो सकता। यहां दोनों पक्षों के पास अपनी वजह हैं। पश्चिम को लगता है कि उसकी तकनीक ले ली जाती है जबकि चीन को लगता है कि उसकी कंपनियों को बेवजह निशाना बनाया जा रहा है।
भारत भी हाशिए पर नहीं बैठा रह सकता है। अपनी नाकामियों के चलते वह उच्च तकनीकी जंग में शामिल नहीं है लेकिन वह ग्राहक अवश्य है। हाल में देश में संभावित 5जी सेवा प्रदाताओं की एक सूची जारी की गई जिसमें हुआवेई का नाम शामिल नहीं था। शायद लॉबीइंग के बाद उसका नाम शामिल किया गया। क्या हम भविष्य की उच्च तकनीक में चीन के दबदबे में सहयोग करना चाहते हैं? क्या यह हमारे हित में है? इन सवालों के जवाब अवश्य तलाशे जाने चाहिए।
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