तेल विपणन कंपनियों से कुछ क्यों नहीं सीखती सरकार | दिल्ली डायरी | | ए के भट्टाचार्य / December 06, 2018 | | | | |
ब्रेंट क्रूड तेल की कीमत 9 अक्टूबर 2018 को 85 डॉलर प्रति बैरल पहुंच गई थी। उसके बाद से इनमें गिरावट का सिलसिला चला और कच्चे तेल की कीमतें गिरते हुए 60 डॉलर से भी नीचे चली गईं। इसकी कीमतों में दो महीने में 29 फीसदी की गिरावट देखने को मिली है। परंतु पेट्रोल और डीजल की खुदरा कीमतों में इतनी गिरावट देखने को नहीं मिली। इस अवधि में पेट्रोल की कीमतें 12 फीसदी जबकि डीजल की कीमतें 9 फीसदी कम हुईं। क्या तेल विपणन कंपनियां अपने मार्जिन पर हुए नुकसान की भरपाई कर रही हैं? कंपनियों का मार्जिन तब दबाव में आ गया था जब गत 4 अक्टूबर को सरकार ने उनसे अपने मार्जिन में प्रति लीटर एक रुपये की कमी करने को कहा था। यह संभव है क्योंकि 4 अक्टूबर के निर्णय के पहले भी तेल विपणन कंपनियों ने अनौपचारिक रूप से अपना मार्जिन कम करना शुरू कर दिया था ताकि आम ग्राहकों पर कच्चे तेल की बढ़ी हुई कीमतों का असर कम हो सके। सरकार के निर्णय ने तो केवल इसे औपचारिक जामा पहनाया था।
तेल विपणन कंपनियों के आंकड़ों के मुताबिक अप्रैल 2018 के पहले सप्ताह में पेट्रोल और डीजल का लागत और ढुलाई मूल्य क्रमश: 31.08 रुपये और 33.16 रुपये प्रति लीटर था। यह कीमत चल औसत के आधार पर तय की गई। अक्टूबर तक इन दोनों उत्पादों की यह कीमत 30 फीसदी से अधिक बढ़कर क्रमश: 40.69 रुपये और 43.9 रुपये हो गई। परंतु इस अवधि में रिफाइनरियों द्वारा डीलरों से ली जाने वाली कीमत में 22-23 फीसदी इजाफा ही देखने को मिला। अप्रैल में डीलरों की जो कीमत क्रमश: 35.05 रुपये और 37.31 रुपये थी वह 1 अक्टूबर तक क्रमश: 42.79 रुपये और 46.22 रुपये हो गई।
दूसरे शब्दों में कहें तो तेल विपणन कंपनियों का मार्जिन या लागत और ढुलाई मूल्य तथा डीलरों को बिक्री मूल्य के बीच का अंतर पेट्रोल के लिए अप्रैल 2018 के 4 रुपये प्रति लीटर से घटकर अक्टूबर 2018 तक 2 रुपये प्रति लीटर तथा डीजल के लिए 4 रुपये से घटकर 3 रुपये प्रति लीटर हो गया था। इसका अर्थ यह भी था कि विपणन कंपनियों ने अप्रैल से अक्टूबर तक के छह महीनों के बीच पेट्रोल पर 2 रुपये और डीजल पर 1 रुपये प्रति लीटर का झटका सहा। सरकार के 4 अक्टूबर के इस निर्णय ने मार्जिन पर दबाव और बढ़ा दिया।
अक्टूबर के दूसरे सप्ताह से तेल विपणन का परिदृश्य बदल गया। 9 अक्टूबर से कीमतों में गिरावट आने लगी। नवंबर के अंत तक पेट्रोल का लागत एवं भाड़ा मूल्य अक्टूबर के 40.69 रुपये प्रति लीटर से 20 फीसदी गिरकर 32.51 रुपये प्रति लीटर रह गया था। डीजल के लिए यह कीमत 9.47 प्रतिशत घटी और यह अक्टूबर के 43.9 रुपये प्रति लीटर से 39.74 रुपये प्रति लीटर रह गई। बहरहाल तेल विपणन कंपनियां उत्पाद कर और मूल्यवर्धित कर को छोड़ जिस मूल्य पर अपना उत्पाद डीलरों को बेचती हैं, उसमें काफी कम गिरावट नजर आई। पेट्रोल 10 फीसदी से भी कम गिरकर अक्टूबर के 42.79 रुपये से 38.63 रुपये हुआ जबकि डीजल में यह 4 फीसदी से भी कम रही और वह अक्टूबर के 46.22 रुपये गिरकर 44.52 रुपये हुआ।
ध्यान रहे कि लागत मूल्य और डीलर को बेचे जाने वाले मूल्य के अंतर में भारी इजाफा हुआ है। अक्टूबर में यह पेट्रोल के लिए 2 रुपये लीटर और डीजल के लिए 3 रुपये लीटर था। इसमें सरकार द्वारा लागू 1 रुपये प्रति लीटर की मार्जिन कटौती शामिल नहीं है। नवंबर के अंत तक पेट्रोल की इस कीमत में 6.12 रुपये प्रति लीटर और डीजल कीमत में 4.78 रुपये प्रति लीटर की बढ़ोतरी हुई। पेट्रोल का मार्जिन करीब तीन गुना हो गया जबकि डीजल के मार्जिन में 60 फीसदी बढ़ोतरी हुई। जाहिर है तेल विपणन कंपनियों ने कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट का अच्छा फायदा उठाया है।
यहां दो सवाल उठते हैं। सरकार कच्चे तेल में गिरावट का फायदा उठाकर अपनी वित्तीय स्थिति क्यों नहीं दुरुस्त करती? उसे तेल विपणन कंपनियों से सीख लेनी चाहिए। जब तेल कीमतें 85 डॉलर प्रति बैरल पर थीं तब उसने न केवल तेल विपणन कंपनियों से मार्जिन कम करने को कहा बल्कि उसने पेट्रोल और डीजल पर लगने वाले उत्पाद शुल्क में भी क्रमश: 1.5 रुपये प्रति लीटर की कटौती की। इसके चलते चालू वित्त वर्ष में उसे 105 अरब डॉलर का राजस्व नुकसान हुआ। क्या वक्त आ गया है कि उत्पाद शुल्क कटौती को दोबारा बहाल कर दिया जाए?
वस्तु एवं सेवा कर से हासिल राजस्व की स्थिति बहुत उत्साहजनक नहीं लग रही है और चालू वित्त वर्ष में 500 अरब रुपये की कमी की आशंका है। अगर सरकार राजस्व घाटे को जीडीपी के 3.3 फीसदी के स्तर पर रखने को लेकर प्रतिबद्ध है तो उसे पेट्रोल और डीजल पर उत्पाद शुल्क बढ़ाना चाहिए। प्रति लीटर 1.5 रुपये की बढ़ोतरी करने से भी वर्ष के बचे चार महीनों में 70 अरब डॉलर का उत्पाद शुल्क हासिल हो सकेगा। इससे वर्ष 2018-19 का कुल राजस्व नुकसान केवल 35 अरब रुपये रह जाएगा।
पेट्रोलियम उत्पादों के मूल्य निर्धारण की मौजूदा व्यवस्था भी उतनी ही अहम है। सरकार जाने क्यों तेल उत्पादों के लिए अपारदर्शी मूल्य व्यवस्था कायम रखे हुए है। तेल कंपनियों ने घोषणा की कि नवंबर के अंत में पेट्रोल और डीजल के उनके लागत-भाड़ा मूल्य में अक्टूबर के मुकाबले क्रमश: 20 फीसदी और 7 फीसदी की कमी आई। इस अवधि में ब्रेंट क्रूड की कीमतों में 30 फीसदी की अपेक्षाकृत तेज गिरावट क्यों आई? इसी अवधि में कच्चे तेल के इंडियन बास्केट के मूल्य में 18 फीसदी के कम मार्जिन की गिरावट पूरे मूल्य समीकरण को और अधिक दिलचस्प बना देती है। इस अंतर को आंशिक तौर पर लागत-भाड़ा मूल्य और कच्चे तेल के भारतीय बास्केट के मूल्य के अंतर से आंका जा सकता है जबकि ब्रेंट क्रूड की कीमतों का आकलन दैनिक आधार पर होता है। अब वक्त है कि सरकार और सरकारी तेल कंपनियां मिल बैठकर पेट्रोलियम उत्पादों के मूल्य निर्धारण में पारदर्शिता बढ़ाएं।
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