'बहुत बेरहम थी नोटबंदी' | |
ईशान बख्शी / नई दिल्ली 11 29, 2018 | | | | |
► सुब्रमण्यन ने लिखा है कि नोटबंदी व्यापक, विध्वंसकारी मौद्रिक झटका
► नोटबंदी के बाद वृद्धि दर पर बड़ा असर न पडऩे और 2017 के उत्तर प्रदेश चुनाव में भाजपा की जीत को बताया पहेली
► मुख्य आर्थिक सलाहकार ने कहा कि नोटबंदी का अनौपचारिक क्षेत्र के कारोबार पर पड़ा व्यापक असर
► अधिकार देने के बारे में रिजर्व बैंक का किया समर्थन, पीसीए को बताया सही फैसला
मुख्य आर्थिक सलाहकार के पद से इस्तीफे की घोषणा के कुछ महीने बाद अरविंद सुब्रमण्यन ने अब नोटबंदी जैसे विवादास्पद मसलों के बारे में खुलकर राय दी है। उन्होंने अपनी नई किताब में लिखा है, 'नोटबंदी व्यापक, विध्वंसकारी मौद्रिक झटका था। यह एक अप्रत्याशित कदम था और हाल फिलहाल के इतिहास में किसी भी देश ने सामान्य स्थिति में इस तरह के कदम नहीं उठाए हैं।'
सुब्रमण्यन ने लिखा है कि 500 और 1,000 रुपये के पुराने नोट प्रचलन से बाहर करने की वजह से आर्थिक गतिविधियां मंद पड़ गईं। नोटबंदी के बाद 7 तिमाहियों में औसत वृद्धि दर 6.8 प्रतिशत रह गई, जबकि इसके पहले की 6 तिमाहियों का औसत 8 प्रतिशत था। इस कदम का अनौपचारिक क्षेत्र पर बहुत बुरा असर पड़ा, जिसको लेकर दो पहेलियां हैं। पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार ने कहा कि पहला तो वृद्धि पर कोई बड़ा असर नहीं पड़ा और दूसरे इस कदम के बाद 2017 में उत्तर प्रदेश चुनाव में भाजपा की जीत हुई।
नोटबंदी के अलावा सुब्रमण्यन ने कई अन्य मसलों पर भी लिखा है, जिनमें वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) लागू किया जाना, दोहरे बैलेंस शीट की समस्या, कृषि क्षेत्र में संकट शामिल है। उनकी नई किताब 'आफ काउंसिल: द चैलेंजेज आफ द मोदी-जेटली इकनॉमी' पेंगुइन ने प्रकाशित की है। पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार ने केंद्र सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक में चल रही खींचतान पर भी प्रकाश डाला है। सुब्रमण्यन, जिन्हें केंद्र सरकार से रिजïर्व बैंक में स्थानांतरित करने का प्रस्ताव था, ने लिखा है कि केंद्रीय बैंक के पास 4.5 से 7 लाख करोड़ रुपये की अतिरिक्त पूंजी है। सुब्रमण्यन का तर्क है कि इसका इस्तेमला सार्वजनिक क्षेत्र के बैकों के पूंजीकरण में किया जा सकता है।
पिछले कुछ साल से बढ़ती हुई गैर निष्पादित परिसंपत्तियों के बारे में सुब्रमण्यन ने लिखा है कि 'रिजर्व बैंक को भी जानकारी थी कि 2010 की शुरुआत से यह समस्या बढऩी शुरू हुई।' उन्होंने कहा, 'विस्तार और बहाना, पुनर्भुगतान टालने आदि जैसे रिजर्व बैंक के कदमों से ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई।' उन्होंने नीरव मोदी की लंबे समय से चल रही धोखाधड़ी को न पकड़ पाने या कर्ज भुगतान समस्याओं पर गंभीरता न होने के लिए रिजर्व बैंक को घेरा है और कहा है कि 'बेहतर छवि होने का मतलब हमेशा सही नहीं होता।'
वहीं त्वरित सुधारात्मक कार्रवाई (पीसीए) और सरकारी बैंकों को लेकर रिजर्व बैंक के अधिकार के मामले में उन्होंने रिजर्व बैंक का पक्ष लिया है। उन्होंने कहा है कि त्वरित सुधारात्मक कार्रवाई (पीसीए) प्रक्रिया के को लेकर 'सत्यनिष्ठा बरकरार रखने के लिए रिजर्व बैंक को श्रेय दिया जाना चाहिए', जबकि सरकार की ओर से इसे कमजोर करने का दबाव था। उन्होंने कहा है कि जब भटके हुए सरकारी बैंकों के साथ निपटना हो तो रिजर्व बैंक को अतिरिक्त शक्तियों की जरूरत होती है, जिससे वह बैंकों को अर्थपूर्ण स्वीकृति दे सके। उदाहरण के लिए रिजर्व बैंक बोर्ड के सदस्यों को हटाने, बोर्ड की बैठक बुलाने या सरकारी बैंकों के बोर्ड को नजरंदाज करने का अधिकार होना चाहिए, जैसा कि वह निजी क्षेत्र के बैंकों के मामले में कर सकता है।
सुब्रमण्यन का मानना है कि एनपीए को लेकर शुरुआती वर्षों में सरकार का सतर्क दृष्टिकोण कई वजहों से था। जब आर्थिक वृद्धि तेज थी, तो यह माना गया कि समस्या खुद हल हो जाएगी। यह सवाल भी आया कि अगर वृद्धि बहुत अच्छी रहती है तो यह समस्या कितनी गंभीर हो सकती है? कमोबेश वित्तीय समेकन में सरकार ने माना कि उसे अंतर पाटने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं हैं। इसके साथ 'सूट बूट की सरकार' के आरोप से समस्या और जटिल हो गई।
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