तेल की कीमतों में गिरावट से पैदा होंगी नई चिंताएं | देवांग्शु दत्ता / November 28, 2018 | | | | |
पिछले तीन सप्ताह में तेल की कीमतें गिरी हैं। ये वर्ष 2018 के सबसे निचले स्तर पर आ गई हैं। इनमें आगे और गिरावट आने के आसार हैं। इसका मतलब है कि रुपया मजबूत होगा लेकिन वैश्विक वृद्धि दरों में संभावित गिरावट से विभिन्न चिंताएं भी जुड़ी हैं।
भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) और सरकार के संबंध बेहतर हुए हैं, मगर ऐसा कुछ समय के लिए ही होने के आसार हैं। कम जीएसटी संग्रह का मतलब है कि सरकार को या तो खर्च में बड़ी कटौती करनी होगी या राजकोषीय घाटे की लगाम ढीली छोडऩी होगी। कृषि क्षेत्र पर दबाव है, इसलिए ग्रामीण मांग घटने की चिंता है।
राजस्थान, मध्य प्रदेश और राजस्थान में विधानसभा चुनाव हैं, जिन्हें लोक सभा चुनावों की हवा का रुख माना जाएगा। भाजपा ने वर्ष 2014 के लोक सभा चुनावों में इन राज्यों में 65 में से 61 सीटें जीती थीं। उसने 2013 में इन राज्यों के विधानसभा चुनावों में जीत हासिल की थी। इन चुनावों में भाजपा के कमजोर प्रदर्शन से बिकवाली तेज होगी।
कच्चे तेल की कीमतों में नवंबर में बड़ा बदलाव आया है। अक्टूबर में कच्चे तेल (ब्रेंट) के दाम 86 डॉलर प्रति बैरल थे, जो अब घटकर 60 डॉलर प्रति बैरल के स्तर पर आ गए हैं। भारतीय तेल बास्केट अक्टूबर में 80 डॉलर पर रहा। यह अप्रैल से अक्टूबर के दौरान औसतन 74.5 डॉलर प्रति बैरल पर रहा। यह नवंबर में घटकर 63 डॉलर पर आ गया है। इसका औसत स्तर 2017-18 में 56-57 डॉलर प्रति बैरल था। उस समय चालू खाते का घाटा जीडीपी का 1.9 फीसदी था। विश्लेषकों में चालू खाते का घाटा 2.6 फीसदी रहने को लेकर एकराय है।
तेल की भूराजनीति बहुत जटिल है। पेट्रोलियम निर्यातक देशों का समूह ओपेक दिसंबर में होने वाली अपनी बैठक में उत्पादन में लाखों बैरल की कटौती का फैसला ले सकता है। इससे कीमतों में तेजी आ सकती है। अमेरिका का करीब 30 फीसदी शेल तेल उत्पादन तब शुरू हुआ, जब तेल की कीमतें 65 डॉलर का स्तर पार कर गईं। अमेरिका में उत्पादन की औसत लागत 46 डॉलर प्रति बैरल है। शेल तेल का उत्पादन शुरू या बंद 4 से 6 महीनों में किया जा सकता है।
इस बात की पूरी संभावना है कि अगर कच्चे तेल की कीमतों में सुधार नहीं आया तो अमेरिका में उत्पादन घटेगा। इससे कीमतें संतुलित स्तर पर आ सकती हैं। रूस और यूक्रेन के बीच तनाव से तेल के दामों पर असर पड़ सकता है। अगर वैश्विक वृद्धि घटती है तो अति आपूर्ति की चिंताओं के कारण ऊर्जा की कीमतें गिर सकती हैं। यह निर्यातकों के लिए कमजोर माहौल होगा।
दिसंबर में कई केंद्रीय बैंक अपनी मौद्रिक नीति की समीक्षा करेंगे। अमेरिकी अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही है और वहां महंगाई भी तेज है और सरकारी बॉन्डों पर प्रतिफल 3 फीसदी का स्तर पार कर चुका है। फेडरल रिजर्व के फेड फंड दरों में बढ़ोतरी करने और 'परिमाणात्मक सख्ती' जारी रखने के आसार हैं ताकि वह अपनी बैलेंस शीट को घटा सके।
यूरोपीय संघ के अपनी बॉन्ड खरीद में कमी शुरू करने के आसार हैं, लेकिन वह धीमी वृद्धि और ब्रेक्जिट के चलते इसे कुछ समय टाल सकता है। बैंक ऑफ जापान की बैलेंस शीट पहले ही जापान के जीडीपी से आगे निकल चुकी है। यह अपनी परिमाणात्मक नरमी को जारी रख सकता है। इसका मतलब है कि वैश्विक तरलता में कमी आएगी।
आरबीआई की मौद्रिक नीति समिति के सामने भी एक समस्या है। इसके लिए वर्तमान उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के आधार पर दर में बढ़ोतरी को तर्कसंगत ठहराना मुश्किल होगा। इस समय (अक्टूबर में) उपभोक्ता मूल्य सूचकांक 3.7 फीसदी पर है। लेकिन खाद्य एवं तेल को छोड़कर मुख्य महंगाई 6 फीसदी से ऊपर है और थोक मूल्य सूचकांक 5.3 फीसदी पर है। अगर मजबूत वैश्विक मुद्राओं का प्रवाह कमजोर पड़ता है और इन मुद्राओं पर प्रतिफल बढ़ता है तो आरबीआई को रुपये की गिरावट रोकने के लिए अपने आरक्षित कोष में से एक बड़ा हिस्सा खर्च करना पड़ सकता है।
आरबीआई के बोर्ड की बैठक अगले महीने होगी। यह विवादास्पद रहने के आसार हैं। आरबीआई पर त्वरित उपचारात्मक कार्रवाई के नियमों में ढील देने को लेकर भी दबाव बना रहने की संभावना है। एक अच्छी चीज यह है कि ऊंची रेटिंग वाली एनबीएफसी नवंबर में बकाया ऋणों को आगे बढ़ाने में सफल रही हैं। हालांकि इसके लिए उन्हें ऊंचा प्रतिफल चुकाना होगा। आईएलऐंडएफएस संकट कम से कम अभी तो शांत हो गया है।
खाद्य की कीमतों में गिरावट के रुझान के कारण मुख्य मंहगाई घट रही है। यह ग्रामीण क्षेत्रों पर दबाव होने का संकेत है और बड़े किसान आंदोलन इसकी पुष्टि करते हैं। त्योहारी सीजन के दौरान मांग सुस्त पड़ी है। इसका पता इस बात से चलता है कि वाहनों के बड़े स्टॉक की बिक्री नहीं हो सकी। इसके साथ ही जीएसटी का संग्रह भी कम बना हुआ है।
जीएसटी का संग्रह बजट अनुमानों से नीचे बना हुआ है। सरकार को 2018-19 के बजट अनुमान से 500 अरब रुपये कम प्राप्त हो सकते हैं। इस समय विनिवेश लक्ष्य से करीब 650 अरब रुपये कम है। ऐसी स्थिति में राजकोषीय घाटा जीडीपी के 3.3 फीसदी के लक्ष्य से काफी आगे जाएगा या खर्च में भारी कटौती करनी होगी, लेकिन चुनावी वर्ष में ऐसा करना मुमकिन नजर नहीं आ रहा है।
दूसरी तिमाही के नतीजे संकेत देते हैं कि धातु एवं खनन क्षेत्र ने अच्छा प्रदर्शन किया है। लेकिन शानदार प्रदर्शन करने वाले बहुत ज्यादा क्षेत्र नहीं हैं। ऊर्जा की कीमतों में कमी से तीसरी तिमाही में समीकरण बदल सकते हैं। तकनीकी लिहाज से बाजार देखने को इंतजार करने की स्थिति में है। घरेलू संस्थान नवंबर में बिकवाल रहे हैं, लेकिन एफपीआई की वापसी हुई है। हालांकि कारोबारी मात्रा काफी कम बनी हुई है।
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