मध्य प्रदेश में दलित वोट तय करेंगे हार जीत का गणित | |
संजीब मुखर्जी और रामवीर सिंह गुर्जर / 11 26, 2018 | | | | |
ग्वालियर-चंबल और विंध्य क्षेत्र में बसपा का है ज्यादा प्रभाव। पिछले विधानसभा चुनाव में बसपा को करीब छह फीसदी वोटों के साथ मिली थीं चार सीटें
जमीनी हकीकत
► 28 से 30 सीटों पर बसपा निभाएगी निर्णायक की भूमिका
► भाजपा से इस बार आरक्षण आंदोलन की वजह से ज्यादा नाराज हैं दलित। ऐसे में बसपा के बाद कुछ जगहों पर दूसरी पसंद होगी कांग्रेस
► इस बार ग्वालियर-चंबल अंचल में बसपा भिंड, मुरैना, ग्वालियर ग्रामीण, सेवढ़ा, अंबाह सीट पर मजबूती से लड़ाई में है
► भाजपा सरकार की योजनाओं से तो खुश हैं किसान, लेकिन इनके सही क्रियान्यवयन नहीं होने से हैं असंतुष्ट
► समय पर सरकारी खरीद न होने से किसानों को नहीं मिलता लाभ
 अनुसूचित जाति से ताल्लुक रखने वाले ग्वालियर के 25 वर्षीय अंकित सोलंकी ने इस बार भाजपा को वोट नहीं देने का फैसला किया। क्योंकि भाजपा ने उनके समुदाय को काफी नुकसान पहुंचाया है और आरक्षण के मसले पर हुए प्रदर्शन के दौरान इस क्षेत्र में 6 से अधिक दलितों को पुलिस फायरिंग में अपनी जान गंवानी पड़ी थी।
सोलंकी के पास इस हिंसा के अलावा भाजपा को वोट न देने की एक अहम वजह भी है। वह कहते हैं कि उन्होंने अपनी पुश्तैनी जमीन बेचकर यहां प्लॉट खरीदकर मकान बनवाया था। अब नगर निगम ने इसे सरकारी जमीन पर बना हुआ और अवैध बताकर तोड़ दिया।
हालांकि सोलंकी कहते हैं कि उनके इलाके और समुदाय के लोग भाजपा को बहुत ज्यादा कभी पसंद नहीं करते रहे हैं। लेकिन इस साल भाजपा के प्रति गुस्सा ज्यादा है। सोलंकी के पास ही खड़े तीन-चार और अन्य लोग कहते हैं कि हमारे समुदाय के लोग भाजपा को हराने के लिए इस बार बसपा के बजाय कांग्रेस को वोट देंगे। क्योंकि बसपा उम्मीदवार जीतने की स्थिति में नहीं है। सोलंकी कहते हैं, 'उनके कुछ वोट ग्वालियर ग्रामीण विधानसभा में भी है और इस क्षेत्र का बसपा उम्मीदवार मजबूत है। इसलिए हमारे लोग इस उम्मीदवार को भी वोट देंगे।'
सामाजिक और राजनीतिक विश्लेषक और स्थानीय कॉलेज में पत्रकारिता विभाग के प्रमुख जयंत तोमर कहते हैं, 'ग्वालियर-चंबल संभाग में आने वाले भिंड, मुरैना, ग्वालियर, श्योपुर के दलित मतदाता परंपरागत तौर पर कांग्रेस के समर्थक रहे हैं। उत्तर प्रदेश में बसपा के उभार के बाद ये मतदाता कांग्रेस और बसपा में बट गए और ज्यादातर बसपा के खेमे में ही रहे। लेकिन इस साल 2 अप्रैल को एससी-एसटी आरक्षण मसले पर हुए प्रदर्शन के दौरान पुलिस फायरिंग के बाद अब वह चुनाव को लेकर स्पष्टï हो गए हैं कि किसको चुनना है।'
ग्वालियर शहर के बीच एससी बहुल बस्ती में बसपा उम्मीदवार के यहां जमा लोगों में से कुछ लोग नाम न जाहिर करने की शर्त पर कहते हैं कि बसपा उम्मीदवार के जीत की संभावना कम है। ऐसे में भाजपा को हराने के लिए दलितों की दूसरी पसंद कांग्रेस है। यहीं मौजूद दीपक जाटव तो स्पष्टï तौर पर कहते हैं कि आधे से ज्यादा दलित कांग्रेस को वोट देंगे। बीते 15 साल में ऐसा पहली बार लग रहा है कि विधानसभा चुनाव में भाजपा और कांग्रेस के बीच कांटे की टक्कर है।
ऐसे में एक-एक सीट पर कड़ी लड़ाई मायने रखती है। विधानसभा की 230 सीटों में 28-30 सीटों पर दलित वोट महत्वपूर्ण व निर्णायक भूमिका निभाएंगे। सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटी (सीएसडीएस) के मुताबिक इन सभी विधानसभाओं में 12 से 16 फीसदी दलित वोट हैं। ग्वालियर के एक राजनीतिक विश्लेषक के अनुसार ग्वालियर जिले की ग्वालियर विधानसभा सीट का उदाहरण लें तो इस सीट पर पिछले चुनाव में बसपा उम्मीदवार को 15 से 16 हजार वोट मिले थे और इनमें ज्यादातर दलित वोट थे। लेकिन इस साल बसपा का कोई उम्मीदवार नहीं है।
ऐसे में दलित वोट जिस तरफ जाएंगे, उसकी जीत होगी। पूरे मध्य प्रदेश में बसपा परंपरागत तौर पर बड़ी ताकत नहीं है। लेकिन राज्य के ग्वालियर-चंबल और विंध्य क्षेत्रों के भिंड, मुरैना, रीवा, सतना, ग्वालियर, दतिया, श्योपुर जैसे जिलों में प्रभाव रखती है। वर्ष 2013 में बसपा को करीब 6 फीसदी वोट के साथ 4 सीटें मिली थी। जिसमें दो सीटे मुरैना जिले से थी और दो विंध्य क्षेत्र से थी। इससे पहले वर्ष 2008 में करीब 9 फीसदी वोट के साथ 7 सीटें थी। इस बार ग्वालियर-चंबल अंचल में बसपा भिंड, मुरैना, ग्वालियर ग्रामीण, सेवढ़ा, अंबाह सीट पर मजबूती से लड़ाई में है।
सीएसडीएस के मुताबिक वर्ष 2003 में चंबल क्षेत्र में बसपा को 13.7 फीसदी वोट मिले थे, जो वर्ष 2008 में बढ़कर 20.4 फीसदी हो गए। इसके बाद वर्ष 2013 में वोट शेयर गिरकर 15.6 फीसदी पर आ गया। विंध्य क्षेत्र में बीते तीन चुनाव में बसपा का वोट शेयर लगभग स्थिर रहा है। वर्ष 2003 में यह 14.3 फीसदी, 2008 में 14.7 फीसदी और 2013 में यह 12 फीसदी रहा। मध्य प्रदेश में बसपा का कुल वोट शेयर कभी भी 10 फीसदी से ऊपर नहीं गया।
सीएसडीएस के निदेशक संजय कुमार कहते हैं, 'मैं नहीं मानता है कि किसी भी चुनाव में 100 फीसदी वोट ट्रांसफर हो सकते हैं। लेकिन बसपा के मामले में 80 फीसदी वोट ट्रांसफर हो सकता है।' उन्होंने कहा कि कांग्रेस कड़े चुनावी मुकाबले में बसपा से गठबंधन न करके रास्ते से भटक गई। जो इस कड़ी लड़ाई में निर्णाय साबित हो सकता है। ग्वालियर के माधव डिग्री महाविद्यालय में राजनीति शास्त्र के प्राध्यापक हेमंत गर्ग कहते हैं कि बसपा कुछ क्षेत्रों में हार-जीत तय करने में अहम भूमिका अदा कर सकती है। हालांकि भाजपा ने बीते 15 सालों में काफी काम किए हैं। फिर भी मुकाबला कड़ा है।
दिल्ली-मुंबई को जोडऩे वाले राष्ट्रीय राजमार्ग-3 पर चाय का स्थित देवरी गांव में 11 बीघा जमीन में खेती करने वाले घनश्याम दंडोतिया कहते हैं, 'कहने को तो सरकार किसानों के लिए कई योजनाएं चला रही हैं। सरकार सोयायटी के माध्यम से खाद-बीज खरीदने पर सब्सिडी देती हैं और 2015-16 में उन्हें सब्सिडी मिली थी। लेकिन पिछले साल और इस साल सब्सिडी का पैसा खाते में नहीं आया।' ऐसे में सरकार से नाराज घनश्याम इस बार बदलाव के लिए मतदान करने का मन बना चुके हैं। किसानों की नाराजगी और बदलाव की मंशा भाजपा को भारी पड़ सकती है।
एनएच-3 पर चाय बेचने वाले मनोज दंडोतिया कहते हैं कि मुख्यमंत्री शिवराज सिह चौहान ने लाड़ली लक्ष्मी योजना, वृद्धावस्था पेंशन और सड़क जैसी कई अच्छी योजनाएं बनाई हैं। लेकिन इस बार बदलाव होना चाहिए। क्योंकि भाजपा जनप्रतिनिधि, कार्यकर्ता अहंकारी हो गए हैं और अधिकारी सुनते नहीं है।
मुरैना जिले में सरसों और बाजरे की खेती बड़े पैमाने पर होती है। राष्टीय राजमार्ग से 10 से 12 किलोमीटर दूर गडौरा गांव के किसान मेहताब सिंह से जब भावांतर से होने वाले फायदे के बारे में पूछा गया तो उन्होंने बताया, 'सरसों की सरकारी खरीद शुरू करने के बारे में काफी भ्रम था। ऐसी स्थिति में किसानों ने 3300-3500 रुपये क्विंटल के भाव में ही सरसों बेच दी। जबकि इसका न्यूनतम समर्थन मूल्य 4000 रुपये क्विंटल है।
बाजरा की सरकारी खरीद शुरू ही नहीं हुई है। ऐसे में गेहूं व सरसों की बुआई के खर्चे के लिए ज्यादातर किसान बाजरा 1500 से 1700 रुपये प्रति क्विंटल के भाव पर बेच चुके हैं, जबकि एमएसपी 1950 रुपये है। सरकारी खरीद केंद्र पर उपज बेचना भी आसान नहीं होता है। जिस किसान की सोसायटी अध्यक्ष या अन्य पदाधिकारियों से जान-पहचान होती है, उनकी उपज तो आसानी से बिक जाती है। अन्य लोगों को बेचने में कठिनाई होती है और पैसा भी कम से कम महीने भर बाद मिलता है। ऐसे में तत्काल जरूरतों को पूरा करने के लिए मंडियों में ही उपज बेच देते हैं।'
ग्वालियर ग्रामीण विधानसभा के किसान लखनलाल कहते हैं कि वे हर साल खेती के लिए लिया गया कर्ज चुकाते हैं। इस साल भी खाद-बीज के लिए सोसायटी से लिया गया कर्ज भर दिया। आमतौर पर ये पैसा भरने के बाद कुछ ही दिन में मिल जाता है। लेकिन इस बार पैसा नहीं मिलने से रबी की खेती के लिए काफी परेशानी हुई। लखनलाल ने कहा, 'बताया जा रहा है कि पूरे ग्वालियर जिले में जिन लोगों ने सोसायटी का पैसा जमा किया है, उन्हें वापस नहीं मिला है।'
लखनलाल कहते हैं कि सोसायटी का कर्ज सबसे पहले माफ होता है ऐसे में कांग्रेस की सरकार बनने पर उन्हें ईमानदारी की कीमत चुकानी पड़ सकती है क्योंकि वह कर्ज का भुगतान कर चुके हैं। कांग्रेस के 2 लाख रुपये तक के कर्जमाफी के वादे पर लखनलाल कहते हैं कि मैंने करीब 3 लाख रुपये किसान क्रेडिट कार्ड के माध्यम से कर्ज लिया है। ऐसे में मुझे यह नहीं पता कि क्या 2 लाख रुपये तक कर्ज लेने वालों का ही कर्ज माफ होगा या फिर मेरे 3 लाख के कर्ज में 2 लाख माफ हो जाएंगे और 1 लाख रुपये भरने पडेंग़े।
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