मुंबई स्थित वैश्विक निवेश बैंक की इकाई सिटीग्रुप ग्लोबल मार्केट इंडिया ने ही आरपीएल को आरआईएल के साथ विलय करने की सलाह दी थी। इन कंपनियों में हुए इस विलय को निवेश बैंकर विलय और अधिग्रहण(एम ऐंड ए) केवल घरेलू बाजार में सिमटने के संकेत के तौर पर देख रहे है। निवेश बैंक में विलय और अधिग्रहण मामलों के प्रमुख और निदेशक समीर नाथ ने मंदी के बीच विलय जैसे समझौते के औचित्य और इस मंदी में निवेश बैंकिंग उद्योग में जान डालने की इसकी क्षमता के बारे में अभिनीत कुमार से बातचीत की: आरपीएल का आरआईएल के साथ विलय होने के क्या प्रमुख फायदे हैं? इस विलय से आरआईएल और आरपीएल के शेयरधारकों को रणनीतिक, वित्तीय और परिचालन से जुड़ा मुनाफा मिलने वाला है। रणनीतिक रूप से भी आरआईएल एक बड़ी ऊर्जा कंपनी के रूप में बेहतर होगी। आरआईएल के अन्वेषण और उत्पादन के काम को आरपीएल भी विस्तार देगी। उसके बाद वित्तीय स्तर पर भी फायदा होगा मसलन आरआईएल की प्रति शेयर कमाई में भी इजाफा होगा। यह उम्मीद की जा रही है इस विलय से आरपीएल के शेयरधारकों की कमाई की अनिश्चितता को कम किया जा सके । इसके साथ ही आरआईएल की ऊर्जा शाखाओं में भी हिस्सेदारी करने का मौका भी मिलेगा। आखिरकार परिचालन के स्तर पर बात करें तो लागत में कमी का फायदा तो जरूर होगा क्योंकि एक जगह पर सम्मिलित रूप से परिचालन होने से लागत में कमी होती है। वैश्विक स्तर पर यह सम्मिलित कंपनी दस प्रमुख निजी क्षेत्र की रिफाइनिंग कंपनी के तौर पर स्थापित तो होगी ही साथ ही विश्व के सबसे बड़े स्वच्छ ईंधन उत्पादर्नकत्ता और पांचवें सबसे बड़े पॉलीप्रॉपीलीन का उत्पादन करने वाली कंपनी के तौर पर नजर आएगी। बाजार में पहले से ही इन दो कंपनियों के विलय के बारे में कयास लगाए जा रहे थे। ऐसे में आरपीएल को लंबे समय तक अलग इकाई के रूप में रखने के पीछे क्या मकसद था? बड़े प्रोजेक्ट किसी भी खास जोखिम का सामना कर सकते हैं। आरपीएल को एक अलग सहायक कंपनी के तौर पर स्थापित किया गया था ताकि पहले से ज्यादा स्थायी आरआईएल को किसी भी जोखिम से सुरक्षा मिले। अब आरपीएल ने प्रोजेक्ट के काम को पूरी क्षमता के साथ अपने बजट में समय पर पूरा किया है। बाजार के माहौल ने वर्ष 2006 में आरपीएल के आईपीओ में भी काफी बदलाव किया था। लेकिन आज खासतौर पर आरपीएल ने प्रोजेक्ट के जोखिम को बहुत कम कर दिया है। इस वक्त पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था में काफी बदलाव दिख रहा है। इससे विदेश से फंड जुटाने में भारतीय उद्योग जगत की क्षमता पर कितना असर पड़ेगा ? मुश्किल दौर में बड़े कॉर्पोरेट को ज्यादा फंड मिलता है जबकि छोटी कंपनियों के लिए पूंजी की लड़ाई लड़ना थोड़ा मुश्किल होता है। कर्ज भी बड़ी कॉर्पोरेट कंपनियों के लिए मुहैया कराई जाती है। लेकिन तयशुदा दर पर मिलने वाले कर्ज के मुकाबले यह कर्ज भी परिवर्तनशील होते हैं। जब बाजार में स्थिरता आती है तब बड़ी कॉर्पोरेट कंपनियों के पास बॉन्ड जारी करके पैसे जुटाने का विकल्प होता है। इंटरेस्ट रेट फ्यूचर्स में कारोबार से कॉर्पोरेट क्षेत्र को ज्यादा बॉन्ड समझौते करने का रास्ता तैयार होता है। विदेशी संस्थागत निवेशक भी यहां आ रहे हैं साथ ही खुदरा और संस्थागत ग्राहक भी बॉन्ड पर ध्यान दे रहे हैं। ऐसे में हमें उम्मीद है कि अच्छे और ऊंचे दरों के उपकरणों के तौर पर बॉन्ड की मांग बढ़ेगी। ऐसे भारतीय उद्योगपतियों जिन्होंने पिछले दो-तीन सालों में अधिग्रहण किया है उन्हें कर्ज भुगतान के नियमों का दबाव झेलना पड़ रहा है। क्या इसका कोई रास्ता है? भारतीय कॉर्पोरेट भी वित्तीय पुर्नसंरचना पर ज्यादा गौर कर रहे हैं। उनकी कोशिश है कि वे नियमों और ब्याज दरों के बारे में फिर से बातचीत से करें। कुछ कंपनियां नकदी जुटाने के लिए गैर महत्वपूर्ण परिसंपत्तियों को बेचने के लिए भी विचार कर सकती हैं और वे इसके जरिए अपनी पूंजीगत संरचना को मजबूत कर सकते हैं। क्या यह निवेश बैंकों के लिए एक बेहतर मौका है? कुछ और नए सौदों के लिए क्या मौके की तलाश में हैं? हां, यह मौका भी बन सकता है। लेकिन निवेश बैंक को ग्राहकों को बड़े उपाय करने चाहिए जो लंबे समय के लिए उनके हित में हो।
