अंदरखाने ही करनी होगी शुरुआत न्यायपालिका में सुधार की | एम जे एंटनी / October 24, 2018 | | | | |
नौ महीनों तक चले थपेड़ों के बाद उच्चतम न्यायालय में आई सापेक्षिक शांति के बीच नए मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने न्यायिक व्यवस्था को परेशानी में डालने वाली बुराइयों को दूर करने के लिए मौलिक सुधारों का वादा किया है। आने वाले कुछ हफ्तों में पता चल जाएगा कि न्यायमूर्ति गोगोई अपने 13 महीनों के कार्यकाल में इस बड़े काम को कैसे पूरा करेंगे?
फिलहाल देश में इस समय तीन करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं, 24 उच्च न्यायालयों में 43 लाख मामले और खुद उच्चतम न्यायालय में भी 54,000 से अधिक मामले विचाराधीन हैं। निचली अदालतों में कुल स्वीकृत पदों की संख्या 22,444 है जिनमें से 5,223 स्थान रिक्त हैं। उच्च न्यायालयों में भी 427 पद खाली पड़ हुए हैं जो कुल स्वीकृत पदों 1,079 का 40 फीसदी हैं। भारत में इस समय हरेक 10 लाख आबादी पर न्यायाधीशों की संख्या महज 19 है जबकि विधि आयोग ने वर्ष 1987 में ही इस अनुपात के 50 रहने को स्वस्थप्रद स्थिति बताया था।
हालांकि लंबित मुकदमों के प्रबंधन और कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) के इस्तेमाल की सलाह जैसे पेचीदा मामलों को विशेषज्ञों पर ही छोड़ देना चाहिए लेकिन लंबे समय तक अदालतों के चक्कर लगाते रहे शख्स भी कुछ सुझाव दे सकते हैं। खुद न्यायाधीश भी कामकाज संबंधित निर्देश देकर इन सुधारों का आगाज कर सकते हैं।
पहला, उच्चतम न्यायालय की संकल्पना एक संवैधानिक न्यायालय के तौर पर की गई थी जो कानूनों की व्याख्या से संबंधित मामले देखेगा। लेकिन पिछले दशकों में यह एक अपीलीय अदालत बनकर रह गया है जो सेवा में प्रोन्नति, किरायेदारी और जमीन विवाद जैसे साधारण मामले देखता है।
ये मामले संविधान के अनुच्छेद 136 के तहत आते हैं जिसमें विशेष अनुमति याचिका की शक्ल में अपील की इजाजत दी गई है। विशेष अनुमति याचिकाओं की संख्या ने रिट याचिकाओं को भी पीछे छोड़ दिया है। लिहाजा इस न्यायाधिकार के इस्तेमाल पर सख्त नियंत्रण होना चाहिए।
दूसरा, न्यायालय को महीनों तक खिंच जाने वाली सुनवाई को सीमित करना चाहिए। आधार मामले में ही वकीलों को अपना पक्ष रखने के लिए तीन महीनों के दौरान 38 दिवस दिए गए थे। संभवत: उसी समय तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा को यह अहसास हुआ कि सेवानिवृत्ति के पहले उनके पास कुछ हफ्ते ही रह गए हैं और आरक्षण, व्यभिचार, समलैंगिक अधिकार एवं मंदिर प्रवेश जैसे ऐतिहासिक महत्त्व के तमाम मामले उनकी अदालत में लंबित पड़े हैं।
ऐसे में उन्होंने सभी मामलों में तेजी दिखाई और हरेक पर बहस के लिए तीन-चार दिन ही दिए। यह घटना दिखाती है कि मुख्य न्यायाधीश केवल न्यायाधीशों को मामले आवंटित करने वाला रोस्टर ही नहीं बल्कि तारीख एवं घड़ी का मास्टर भी होता है।
इसके पहले बहस करने वाले वकीलों को लंबा वक्त देने के पीछे यह तर्क दिया जाता था कि भारतीय अदालतें अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के बजाय ब्रिटिश प्रणाली का अनुसरण करती हैं। अमेरिकी अदालत हरेक पक्ष को अपनी दलील रखने के लिए महज आधे घंटे का वक्त देती है। अमेरिका में न्यायाधीशों की मदद के लिए कानूनी क्लर्क होते हैं जो काफी खोजबीन करते हैं।
लेकिन इस दलील का अब कोई आधार नहीं रह गया है। भारत में भी अदालत के भीतर एक शोध प्रकोष्ठ बना हुआ है। इसके अलावा न्यायाधीशों को इंटर्न से भी मदद मिलती है। इसलिए बहस के समय में कटौती की जा सकती है। अगर वकील अपने मुवक्किलों को प्रभावित करने या अधिक फीस वसूलने के लिए बहस को लंबा खींचते हैं तो उन पर अतिरिक्त समय के अनुपात में दंडात्मक शुल्क लगाया जा सकता है।
सुनवाई में खलल डालने की बुराई सुविदित है और अब यह फिल्मों का पसंदीदा दृश्य भी बन गया है। इसे नियंत्रित करना न्यायाधीशों के अधिकार क्षेत्र में है लेकिन वकीलों की चतुराई और न्यायाधीशों की सुस्ती ने अदालती कार्यवाही को काफी प्रभावित किया है।
आम धारणा है कि जनहित याचिकाएं अब बेलगाम घोड़े के रूप में तब्दील हो चुकी हैं। कुछ समय पहले एक कृषि विशेषज्ञ ने प्राइमरी क्लास में पढऩे वाले बच्चों को संविधान का समूचा पाठ सिखाने की मांग की थी। इसी तरह एक वकील नकदी मुद्रा को खत्म करने की मांग कर रहे थे। एक नागरिक ने तो उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर कर स्वतंत्रता से पहले के सभी कानूनों को खत्म करने की मांग रखी थी। इन सभी याचिकाओं को खारिज कर दिया गया था लेकिन इसी तरह की याचिकाएं अब भी सूची में दर्ज हैं।
भले ही अदालत हरेक नागरिक के लिए खुली है लेकिन न्यायाधीशों के कमरों में खड़ी बेतरतीब भीड़ इसकी प्रतिष्ठा में कोई इजाफा नहीं करती है। अक्सर बुजुर्गों को कार्यवाही देखने के लिए आने वाले लोगों के बीच से होकर अदालत के कक्ष तक पहुंचने में जद्दोजहद करनी पड़ती है। कुछ जिला अदालतों में केवल उन्हीं लोगों को प्रवेश की अनुमति होती है जिनके मामले सुनवाई के लिए सूचीबद्ध होते हैं।
नए मुख्य न्यायाधीश के सामने एक बड़ी चुनौती न्यायाधीशों की नियुक्ति से संबंधित प्रक्रिया का खाका तय करने की है। यह प्रस्ताव दो साल से लटके होने से शीर्ष अदालत और सरकार के बीच खींचतान की नौबत भी आ गई। लेकिन मौजूदा सरकार का कार्यकाल करीब आने से कॉलेजियम के सुझावों को खारिज किए जाने की संभावना नहीं रह गई है। इस मोर्चे पर मुख्य न्यायाधीश को थोड़ी राहत मिली है। जब देश नई सरकार के लिए इंतजार कर रहा हो तो न्यायपालिका में सुधारों की शुरुआत उसके भीतर से ही शुरू हो सकती है।
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