तकरीबन 20 फीसदी जैसा कम शुल्क भी काफी हद तक संरक्षण प्रदान कर सकता है और इससे बाजार में भारी विसंगति आ सकती है। विस्तार से जानकारी दे रहे हैं शंकर आचार्य कुछ माह पहले प्रकाशित अपने एक आलेख में मैंने बीते वर्ष उच्च संरक्षणवादी सीमा शुल्क की आलोचना करते हुए कहा था कि सरकार का यह कदम टैरिफ को सन 1991 के पहले के पूर्वी एशियाई स्तर पर ले जाने की सरकार की प्रतिबद्धताओं के विपरीत है, इसलिए नुकसानदेह भी है। मैंने कहा था कि ऐसी टैरिफ वृद्धि घरेलू लागत और कीमत बढ़ाती है, निर्यात को नुकसान पहुंचाती है, कारोबार को गैर किफायती बनाती है और भविष्य में और इजाफे पर बल देती है। इससे सक्षम और प्रतिस्पर्धी विनिर्माण क्षेत्र को नुकसान पहुंचता है। व्यापार को भी चोट पहुंचती है। जाहिर है, इससे भारी व्यापार घाटे और चालू खाते के घाटे को कम करने में मदद नहीं मिलती। कई लोग मानते हैं कि शुल्क वृद्धि के अधिकांश मामलों में बहुत कम बढ़ोतरी हुई है यानी तकरीबन 20 फीसदी की वृद्धि। उनके मुताबिक इससे बहुत अधिक आर्थिक नुकसान नहीं होगा। लेकिन ऐसा सोचना सही नहीं है। इतना कम टैरिफ भी अत्यधिक संरक्षणवादी और विसंगति लाने वाला साबित हो सकता है। इसे समझने के लिए हमें संरक्षण की प्रभावी दर (ईआरपी) पर नजर डालनी होगी। उत्पादन गतिविधियों में जहां भी अद्र्घनिर्मित वस्तुएं इस्तेमाल आती हैं वहां यह एक कारक बन जाता है। इस अवधारणा को सन 1960 के दशक में कई अर्थशास्त्रियों ने विकसित किया और समझाया। इनमें मैक्स कॉर्डन, बेला बलास्सा और जी बसेवी जैसे नाम शामिल हैं। ईआरपी का ध्यान किसी जिंस के उत्पादन में लगने वाले संरक्षण पर रहता है। यह सांकेतिक संरक्षण का विरोधाभासी है जो उत्पाद पर लागू टैरिफ दर से संबंधित है। ज्यादा ईआरपी का अर्थ यह है कि उत्पादन (पूंजी, श्रम और भूमि) की लागत सभी जिंसों या उप क्षेत्रों के उत्पादन पर लागू होगी। आइए, किसी उत्पाद या गतिविधि की ईआरपी को घरेलू कीमतों के उदाहरण से देखते हैं। उदाहरण के लिए एक उत्पाद, मान लीजिए कॉटन के परिधान की कीमत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 100 रुपये प्रति इकाई है। उसका कच्चा माल यानी कॉटन फैब्रिक 50 रुपये का पड़ता है और उस पर टैरिफ शून्य है। ऐसे में अंतरराष्ट्रीय कीमतों पर मूल्यवर्धन होगा 50 रुपये और घरेलू स्तर पर भी। परिभाषा के लिहाज से देखें तो सांकेतिक संरक्षण और ईआरपी दोनों शून्य होंगे। अगर मान लिया जाए कि कच्चे माल और उत्पादित माल दोनों पर 20 फीसदी की दर से कर लगता है तो उत्पाद की घरेलू कीमत बढ़कर 120 रुपये हो जाएगी। कच्चे माल की घरेलू लागत भी बढ़कर 60 रुपये हो जाएगी और घरेलू मूल्यवर्धन कीमत भी बढ़कर 60 रुपये हो जाएगी। ऐसे में ईआरपी, जो टैरिफ के पहले शून्य था वह भी बढ़कर 20 फीसदी हो जाएगा। यह सांकेतिक संरक्षण की नई दर के बराबर होगा। एक अहम बात यह है कि जब समान दर से टैरिफ लगाया जाता है तो उत्पाद के सांकेतिक संरक्षण और ईआरपी की दरों में कोई अंतर नहीं रहता। अब जरा कुछ वैकल्पिक परिदृश्यों पर नजर डालते हैं। अगर कच्चे माल पर शुल्क दर कम हो (माना 10 फीसदी) और उत्पाद पर यह 20 फीसदी हो तो ईआरपी की दर 30 फीसदी होगी जो कि 20 फीसदी की सांकेतिक संरक्षण दर से काफी अधिक होगी। तीसरी परिस्थिति वह है जहां पिछले परिदृश्य के 50 फीसदी के स्थान पर 20 फीसदी का मूल्यवर्धन माना जा सकता है। औद्योगिक गतिविधियों में ऐसा होना बहुत आम है। दूसरे परिदृश्य में लागू होने वाली टैरिफ दर को अपरिवर्तित मान लेते हैं। इस मामले में ईआरपी बढ़कर 60 फीसदी तक हो सकता है जो कि सांकेतिक संरक्षण दर से तीन गुना अधिक है। चौथी परिस्थिति यह बताती है कि मूल्यवर्धन में आया बदलाव शुरुआती परिणाम को नहीं बदलता। जब टैरिफ दरें तमाम कच्चे माल और उत्पादों पर समान होती हैं तब ईआरपी और सांकेतिक संरक्षण में कोई फर्क नहीं आता। अगर टैरिफ दर अधिक हो तो भी यही परिणाम रहता है। अगले दो परिदृश्य सर्वाधिक चिंतित करने वाले लेकिन काफी हद तक समान हैं। अगर कच्चे माल के 10 फीसदी टैरिफ की तुलना में उत्पादन टैरिफ की दर 40 फीसदी मान ली जाए तो ईआरपी 160 फीसदी हो जाएगा। यह 40 फीसदी सांकेतिक संरक्षण का चार गुना है। वहीं अगर उत्पादन टैरिफ 20 फीसदी होगा तो ईआरपी 100 प्रतिशत होगा यानी सांकेतिक संरक्षण का पांच गुना। ऐसा तब जबकि कच्चे माल पर टैरिफ शून्य हो। ये तमाम उदाहरण बताते हैं कि सांकेतिक संरक्षण कम होने पर भी ईआरपी कितना अधिक हो सकता है। कई बार उत्पादन टैरिफ कच्चे माल पर लगने वाले टैरिफ से कम होता है। जिस परिदृश्य में उत्पादन टैरिफ शून्य है, वहां कच्चे माल पर लगने वाला टैरिफ 20 फीसदी है और अंतरराष्ट्रीय कीमतों पर मूल्यवर्धन भी 20 फीसदी है। ऐसे में ईआरपी 80 फीसदी ऋणात्मक हो जाता है। इससे पता चलता है कि निर्यात के लिए टैरिफ कितना नुकसानदेह है। क्योंकि निर्यात को अक्सर संरक्षण या सब्सिडी नहीं मिलती। ये तमाम परिदृश्य सीमा शुल्क टैरिफ लागू करने को लेकर को लेकर कुछ अहम अवधारणाएं पेश करते हैं। (क) टैरिफ जब भी लागू किया जाए, उसकी दर कम होनी चाहिए और कच्चे माल तथा उत्पाद सभी पर यह समान होना चाहिए। (ख) चूंकि मूल्यवर्धन तमाम उद्योगों में अलग-अलग है इसलिए टैरिफ दरों में मामूली बदलाव भी सभी उद्योगों के ईआरपी में बड़ा अंतर पैदा कर सकता है। (3)कम उत्पाद टैरिफ भी प्रभावी संरक्षण की बड़ी दर की वजह बन सकता है। यह इस बात पर निर्भर करता है मूल्यवर्धन कितना है और कच्चे माल की टैरिफ दर क्या है। (4) कच्चे माल पर टैरिफ अक्सर निर्यात को लेकर नकारात्मक प्रभावी संरक्षण की परिस्थिति बनाता है, बशर्ते कि ऐसे टैरिफ में छूट न दी जाए। (5) कम सांकेतिक टैरिफ के साथ भी प्रभावी संरक्षण दर की जटिलता और इसका अंतर अलग-अलग उद्योगों के लिए जानबूझकर या अनचाहे लाभ की परिस्थितियां तैयार करता है। इसका बचाव जरूरी है। स्पष्ट है कि अगर उपरोक्त समस्याओं को कम करना है या उनसे बचना है तो शुल्क का ढांचा बनाना एक कठिन तकनीकी काम है। खेद की बात है कि वित्त मंत्राालय में 15 वर्ष का मेरा अनुभव बताता है कि ईआरपी जैसी अहम अवधारणाओं को सरकार की टैरिफ निर्मित करने वाली संस्थाओं ने ठीक से समझा ही नहीं है। (लेखक इक्रियर में मानद प्रोफेसर और देश के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार हैं। लेख में प्रस्तुत विचार निजी हैं। )
