बढ़ाना होगा रूस के साथ सुरक्षा सहयोग | प्रेमवीर दास / October 12, 2018 | | | | |
रक्षा खरीद प्रक्रिया हमेशा व्यापक सामरिक हितों का हिस्सा होनी चाहिए। इस दृष्टि से देखें तो रूस के साथ हमारे रिश्ते विस्तार से बता रहे हैं प्रेमवीर दास
रूस के राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन भारत आकर वापस जा चुके हैं। अमेरिका के साथ हमारी रक्षा और विदेश मंत्री स्तर की बातचीत के उलट रूस के साथ हमारी वार्ता एकदम उच्चतम स्तर पर होती है। इस बैठक में दोनों देशों के बीच कई समझौता ज्ञापनों का आदान प्रदान हुआ और जानकारी के मुताबिक एस-400 नामक हवाई रक्षा प्रणाली की खरीद को लेकर भी एक समझौता हुआ। हालांकि अमेरिका इसका विरोध कर रहा है। माना जा रहा है कि यह खरीद दोनों देशों के रिश्तों और हमारी तैयारी में बहुत बड़ा बदलाव लाने वाली साबित होगी। नौसेना के लिए चार युद्घपोतों या 200 कामोव हेलीकॉप्टर की खरीद को लेकर कोई चर्चा नहीं हुई। ये दोनों चीजें खरीदने और भारत में बनाने की योजना के अधीन हैं। इस यात्रा को हमें इस दृष्टि से भी देखना होगा।
सन 1960 के दशक में हमने पूर्व पूर्व सोवियत संघ (यूएसएसआर) के साथ रक्षा सहयोग की शुरुआत की थी जबकि अमेरिका के साथ हमारे रक्षा सहयोग का अतीत केवल दो दशक या उससे भी कम पुराना है। यूएसएसआर के साथ हमारे रिश्तों का परिणाम व्यापक आधुनिक सैन्य हार्डवेयर के हस्तांतरण के रूप में सामने आया। इसमें मिग 21 और सुखोई 30 जैसे विमानों का भारत में निर्माण भी शामिल था। अमेरिका के साथ सौदों की बात करें तो यहां मेक इन इंडिया की कोई गुंजाइश नहीं है।
अमेरिका से किसी तरह का तकनीकी हस्तांतरण नहीं हुआ है जबकि रूस की बात करें तो हमारे पास ब्रह्मोस मिसाइल और एटीवी (स्वदेशी परमाणु पनडुब्बी) का उदाहरण है जिसने हमें सामरिक महत्त्व की जानकारी और क्षमताएं प्रदान की हैं। रूस ने हमें एक नहीं बल्कि दो दफा परमाणु पनडुब्बी लीज पर दी। एक और हस्तांतरण प्रक्रिया के अधीन है। हमारा इकलौता विमानवाहक पोत आईएनएस विक्रमादित्य भी रूस से आया है। निश्चित तौर पर हमारे 70 फीसदी सैन्य उपकरण रूस से आए हैं। इस रक्षा रिश्ते को छोड़ भी दें तो सन 1971 की जंग में अगर हमें रूस का राजनीतिक समर्थन नहीं मिला होता तो बांग्लादेश का जन्म नहीं हुआ होता। गौरतलब है कि बांग्लादेश के अस्तित्व में आने के कारण ही हम पूर्वी मोर्चे पर एक गंभीर खतरे से निश्चिंत हो सके। इस इतिहास के बावजूद कोई भी सामरिक पर्यवेक्षक कहेगा कि अमेरिका के साथ हमारे रिश्ते विकसित होने के साथ ही भारत और रूस के बीच का सहयोग कमजोर पड़ा है।
हम अमेरिका के साथ हर वर्ष मालाबार सैन्य कवायद करते हैं और 2019 में होने वाले अगले युद्घाभ्यास में दोनों देशों की सेनाओं के तीनों अंग हिस्सा लेंगे। बीते कुछ वर्षों से जापान भी इस अभ्यास में शामिल हो रहा है। अभी हाल ही में भारत ने अमेरिका के साथ कॉमकासा (एक नया और संभवत: दो दशक पुराने सिस्मोआ की तुलना में लाभदायक समझौता) पर हस्ताक्षर। हमारे बीच एक लॉजिस्टिक्स सपोर्ट समझौता है जिसमें दोनों देश सुविधाओं का लाभ उठा सकते हैं। करीब 1,500 करोड़ डॉलर की राशि के अमेरिकी सैन्य हार्डवेयर की खरीद समेत कई अन्य गतिविधियां हुई हैं। भविष्य में ऐसी और खरीद हो सकती है। देखा जा सकता है कि 20 वर्ष की इस अवधि में शून्य से शुरू होकर डॉलर के संदर्भ में अमेरिका सैन्य हार्डवेयर का हमारा सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता बन चुका है। इस अवधि में रूस से इस मूल्य की कोई खरीद शायद ही हुई है। हां, विक्रमादित्य, कुछ युद्घपोत और परमाणु पनडुब्बी आईएनएस चक्र की खरीद की प्रक्रिया अंतिम चरण में पहुंची। हमें बार-बार प्रक्रियाधीन परियोजनाओं के बारे में सुनने को मिलता है। संभव है कि रूस 100 मल्टी-रोल लड़ाकू विमान के लिए भी अपने एसयू-35 विमान के साथ बोली लगाएगा। वह अगली पीढ़ी की पी-751 पनडुब्बियों को लेकर भी बोली लगा सकता है लेकिन वहां वह करीब छह संभावित बोलीकर्ताओं में से एक होगा और वहां नतीजा किसके पक्ष में जाएगा कहा नहीं जा सकता। विभिन्न प्लेटफॉर्म और उपकरणों की खरीद को तो छोड़ दीजिए, संयुक्तअभ्यास के मामले में ही रूस के साथ की गई साझा कवायद की मालाबार जैसे जटिल कार्यक्रम से कोई तुलना नहीं हो सकती। इस बीच रूस और चीन के बीच सुरक्षा सहयोग तेजी से बढ़ा है। रूस ने चीन को एस-400 सिस्टम भी दिए हैं। संक्षेप में कहें तो भारत और रूस के रिश्ते पहले जैसे नहीं रह गए हैं। यह चिंतित करने वाली बात है।
ऐसा नहीं है कि रक्षा सहयोग में अमेरिका के साथ मजबूत होते रिश्ते अवांछित हैं या सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। भारत के संभावित शत्रुओं को ध्यान में रखें तो अमेरिका बहुत महत्त्वपूर्ण हैसियत रखता है। अगर अमेरिका की ओर से एस-400 सौदे को भविष्य के एमएमआरसीए सौदे के बदले स्वीकृति मिलती है तो इससे भारत को कोई नुकसान नहीं होगा। वैश्विक सुरक्षा माहौल को देखें तो रक्षा सहयोग में मजबूत रिश्ते बहुत अहम भूमिका निभाएंगे। भारत के सुरक्षा हितों की दृष्टि से अमेरिका और रूस दोनों बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। जिस तरह एस-400 खरीद को लेकर देश आगे बढ़ा है इसी तरह युद्धपोतों और हेलीकॉप्टर तथा एके राइफल की खरीद की दिशा में भी आगे बढऩा होगा। हमें नई पीढ़ी की हल्की पनडुब्बियों पर भी ध्यान देना होगा। रक्षा खरीद को हमेशा व्यापक सामरिक हितों को ध्यान में रखना चाहिए। अतीत में हम ऐसा न करके अलहदा स्तर पर सौदे करते रहे। 70 फीसदी सैन्य उपकरण किसी एक देश से खरीदना भी उतना ही नकारात्मक है जितना कि दूसरे देश से 1,500 करोड़ डॉलर मूल्य के प्लेटफॉर्म खरीदना और अपनी स्वदेशी क्षमताओं पर जोर न देना। दोनों देशों के साथ हमारे रक्षा सहयोग को इस परिदृश्य में देखना होगा।
हमारी असैन्य नाभिकीय ऊर्जा परियोजनाओं में रूस का हमेशा बहुत सक्रिय योगदान रहा है। ऐसे में कुछ और रिएक्टरों की दिशा में आगे बढऩा श्रेयस्कर है। इसी प्रकार पारंपरिक ऊर्जा सहयोग की दिशा में और उच्च स्तर पर आगे बढऩा भी उचित होगा। लब्बोलुआब यह कि हमें रूस के साथ अपने सहयोग को और आगे ले जाना चाहिए। यही हमारे राष्ट्रीय हित में है।
(लेखक राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड के सदस्य रहे हैं। लेख में प्रस्तुत विचार पूरी तरह निजी हैं।)
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