गरीबों की मानी जाने वाली बीमारी क्षय रोग(टीबी) की दवा ईजाद करने के लिए पर्याप्त अनुसंधान नहीं हो पा रहा है क्योंकि कोई भी इसमें बड़ा निवेश करने को तैयार नहीं। लिहाजा इंटरनेट पर आधारित एक वैश्विक परियोजना शुरू की गई है ताकि इस रोग की नई दवा ईजाद की जा सके। आप इसे साइंस 2.0 या फिर वैसे साइंस का नाम दे सकते हैं जो किसी सीमा में नहीं बंधा हुआ है। पर्याप्त अनुसंधान के अभाव में भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी) ने क्षय रोग के इलाज के लिए नई दवा खोजने के लिए यही रास्ता अपनाया है। अगर अनुसंधान के लिए फंड आकर्षित करने की बात होती है तो दवा और बीमारी सम्पन्नों और निर्धनों में बंट जाती है। इसलिए कैंसर के इलाज के लिए 399 दवाएं विकास के स्तर पर हैं और दिल की बीमारी के इलाज के लिए 136 दवाएं विकसित की जा चुकी हैं, लेकिन वैश्विक आबादी के तिहाई हिस्से को प्रभावित करने वाले क्षय रोग की बात आती है तो मामला बिल्कुल अलग दिखता है। इस बाबत अभी तक सिर्फ छह दवाएं ही विकसित की गई हैं। और तो और ये छह दवाएं 1950 और 1960 के दशक में विकसित की गई थीं। कारण साफ है - गरीब आदमी की इस बीमारी की दवा के अनुसंधान के लिए कम से कम रकम लगाई जाती है। क्षय रोग की दवा का बाजार 30 करोड़ डॉलर का है, जो दवा कंपनियों को नहीं लुभा पाती। वैज्ञानिकों के मुताबिक, दवा कंपनियां उन बीमारियों की दवा खोजने में फूटी कौड़ी भी निवेश नहीं करना चाहती, जिसका मूल्य एक अरब डॉलर से कम हो। इसी वजह से डीएसटी के वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) ने क्षय रोग के इलाज की दवा खोजने की बाबत अनुसंधान के लिए ओपन सोर्स ड्रग डिस्कवरी प्रोजेक्ट शुरू किया है। सीएसआईआर के महा निदेशक डॉ. समीर ब्रह्मचारी और इंस्टीट्य्ूट ऑफ जीनोमिक्स ऐंड इंटीग्रेटिव बायोलॉजी के पूर्व निदेशक के मुताबिक, हमने वेब आधारित प्लैटफॉर्म तैयार किया है, जहां दुनिया भर के वैज्ञानिक, छात्र और अनुसंधान करने वाले इकट्ठा होते हैं। यह ऐसी वैश्विक प्रयोगशाला है जैसा कि बिना बाड़ वाला धान का खेत होता है। 150 करोड़ रुपये की ओएसडीडी परियोजना के तहत अब तक 130 शहरों के 700 सहभागी पंजीकृत हो चुके हैं। फिलहाल इसकी वेबसाइट पर 56 लाइव प्रोजेक्ट देखे जा सकते हैं। इस पोर्टल का मुख्य अवयव सिस्टम बायोलॉजी ऑफ ऑर्गनिज्म है। यह विकि आधारित सहयोगपूर्ण अनुसंधान का वातावरण उपलब्ध कराता है जहां विचार पढ़े जा सकते हैं और परियोजना का परिणाम खुली नोटबुक में रिकॉर्ड होता है। आज के समय में सिस्टम बायोलॉजी ऑफ ऑर्गनिज्म टीबी बैक्टीरिया से संबंधित सबसे बड़ा आंकड़ा उपलब्ध करा रहा है और इसका श्रेय ओएसडीडी की सामुदायिक प्रयोगशाला को जाता है। इंस्टीट्यूट ऑफ जीनोमिक्स ऐंड इंटीग्रेटिव बायोलॉजी कीवैज्ञानिक डॉ. अंशु भारद्वाज ने देश भर के छात्र और अनुसंधान करने वाले शोधार्थियों के सहयोग से तैयार विभिन्न परियोजनाओं में से एक का परिणाम हाल ही में प्रकाशित किया है। इस परियोजना में टीबी के बैक्टीरिया के कुल 4 हजार जीन में से 400 डी-कोड किया गया है। अनुसंधान करने वाले किसी अकेले व्यक्ति को ऐसा करने में सालों लग सकते हैं, लेकिन उन्होंने वेल्लूर, चेन्नई, नई दिल्ली और फरीदाबाद के 12 छात्रों के साथ मिलकर इसे कर दिखाया है और इसका नतीजा साइट पर डाल दिया है। गौरतलब है कि यह वेबसाइट पिछले साल नवंबर में लॉन्च की गई थी। अब कोई इसे वैधता प्रदान करेगा। एक और अनुसंधानकर्ता ने जीन में से कुछेक की बाबत लक्ष्य को प्रकाशित किया है। ये उनसे संबंधित हैं जिसके जरिए वैसे बैक्टीरिया को समाप्त करना लक्षित है जो मानव का आतिथेय करने वालों को नुकसान पहुंचाए बिना मुमकिन हो सके। एक अन्य परियोजना के तहत कुछ अन्य यौगिक को अलग किया गया है और जैव वैज्ञानिक लक्ष्य के खिलाफ उनकी जांच होनी है। भारद्वाज के मुताबिक, सामान्यत: यह सीधी रेखा में होता है, लेकिन यहां सब कुछ एक साथ हो रहा है। लिहाजा सफलता या नाकामी के बारे में जल्दी से जल्दी पता लग जाता है। ऐसी परियोजनाओं में विभिन्न संस्थानों मसलन अमेरिका के नैशनल इंस्टीटयूट ऑफ हेल्थ, हैदराबाद के इंस्टीटयूट ऑफ लाइफ साइंसेज और चेन्नई की अन्नामलाई यूनिवर्सिटी आदि के लोग शामिल हैं। यहां कुल मिलाकर 56 लाइव प्रोजेक्ट ऑनलाइन हैं जो छात्रों और अनुसंधानकर्ताओं को आकर्षित कर रहे हैं। सीएसआईआर ने अब 30 कॉलेजों को गोद लेने की योजना बनाई है, जिसके तहत उन कॉलेजों की आधारभूत संरचना में सुधार किया जाएगा और वहां के छात्र प्रोजेक्ट की आवश्यकता के अनुसार किए जाने वाले नए प्रयोग की बाबत काम करेंगे। यह उन प्रयोगों से काफी अलग होगा, जो दशकों से उन कॉलेजों में किए जाते रहे हैं। सीएसआईआर नई पीढ़ी के प्रशिक्षित अनुसंधानकर्ता तैयार करने को लेकर काफी रोमांचित है। जब तक ये अनुसंधानकर्ता अपना ग्रैजुएशन पाठयक्रम पूरा करेंगे, तब तक उनका काफी नाम हो चुका होगा क्योंकि उनके अपने नाम से काफी अनुसंधान परियोजना का परिणाम प्रकाशित हो चुका होगा। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि विज्ञान इससे ज्यादा और जवां नहीं हो सकता।
