बढ़ते कूड़े के अंबार की चुनौती | |
साई मनीष / 10 07, 2018 | | | | |
भारत राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 150वीं जयंती और स्वच्छ भारत की चौथी वर्षगांठ मना रहा है लेकिन ऐसा लगता है कि देश ने सफाई और जन स्वास्थ्य के कुछ क्षेत्रों से अपने कदम पीछे खींच लिए हैं। 21वीं शताब्दी की शुरुआत में दस में से केवल दो भारतीयों को ही बेहतर स्वच्छता सुविधाएं और 80 फीसदी आबादी को बेहतर पेयजल सुविधाएं उपलब्ध थीं।
संयुक्त राष्ट्र की ताजा मानव विकास रिपोर्ट के मुताबिक देश में 44 फीसदी लोगों को बेहतर स्वच्छता सुविधाएं उपलब्ध हैं और करीब 90 फीसदी आबादी की बेहतर पेयजल सुविधाओं तक पहुंच है। निम्र मध्यम आय वाले देश के लिए ये आंकड़े आकर्षक लग सकते हैं।
लेकिन साफ-सफाई के मामले में पड़ोसी देशों और अन्य देशों ने लगातार भारत से अच्छा प्रदर्शन किया है जो स्वस्थ रोगमुक्त आबादी के मुख्य आधारों में से एक है। भारत में साफ-सफाई की बेहतर व्यवस्थाओं का उपयोग करने वाले लोगों का अनुपात पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका, चीन, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, इंडोनेशिया और वियतनाम से कम है। इन देशों में नेपाल सबसे गरीब है और सफाई में सुधार के मामले में उसका प्रदर्शन भारत से बेहतर है। नेपाल में वर्ष में 2000 में 20 फीसदी से कम लोगों को ये सुविधाएं उपलब्ध थीं लेकिन आज यह आंकड़ा 46 फीसदी पहुंच चुका है।
इन परिस्थितियों में नरेंद्र मोदी सरकार ने 2 अक्टूबर, 2014 को दो लाख करोड़ रुपये का स्वच्छ भारत अभियान शुरू किया। प्रधानमंत्री ने मध्य दिल्ली की एक आवासीय कॉलोनी में झाड़ू लगाकर इस अभियान की शुरुआत की। चार साल बाद शौचालय निर्माण की गति इस अभियान की सबसे बड़ी उपलब्धि है। लेकिन उचित नियोजन के अभाव में आने वाले दिनों में यह उपलब्धि उलट सकती है।
मोदी की शौचालय क्रांति
अपनी उपलब्धियों का बखान करते हुए मोदी सरकार शौचालय निर्माण पर खास जोर देती है। सरकार ने संसद में बताया कि 2014 में जब वह सत्ता में आई थी तो देश में केवल 39 फीसदी लोगों को ही शौचालय की सुविधा उपलब्ध थी जो अब बढ़कर 89 फीसदी हो गई है। 2011 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक भारत के 24.7 परिवारों में से करीब 53 फीसदी के पास शौचालय की सुविधा नहीं थी। देश के चुनिंदा 21 राज्यों की स्थिति पर नजर डालें तो कई दिचलस्प आंकड़े सामने आते हैं। 2011 में इन राज्यों में 12.9 करोड़ परिवारों के पास शौचालय नहीं था।
2014-15 में मोदी सरकार ने इन राज्यों में केवल 8.9 करोड़ ऐसे परिवारों की पहचान की जिनके पास शौचालय नहीं था। यानी 2011 से 2014 के बीच जब मनमोहन सिंह सरकार सत्ता में थी तो चार करोड़ परिवारों को शौचालय की सुविधा मिली। 2015 से 2018 के बीच इन राज्यों में करीब 7.5 करोड़ शौचालय बनाए गए जो पिछली सरकार की तुलना में दोगुना संख्या है। दो सरकारों के कार्यकाल में शौचालय निर्माण की गति अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग थी।
मोदी सरकार के दौरान कम से कम 16 राज्यों में शौचालय बनाने की रफ्तार पिछली सरकार से ज्यादा तेज थी। खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे पिछड़े राज्यों में 2011-14 की तुलना में 2015-18 में तीन गुना ज्यादा लोगों को शौचालय की सुविधा मिली। इस दौरान उत्तर प्रदेश में 1.3 करोड़ शौचालय बनाए गए जबकि बिहार में यह संख्या 60 लाख से अधिक रही। पश्चिम बंगाल में 57 लाख शौचालय बनाए गए। यह संख्या पिछली सरकार के समय से तीन गुना ज्यादा है। असम, नगालैंड, त्रिपुरा और अरुणाचल प्रदेश जैसे कुछ पूर्वोत्तर राज्यों में 2011 से 2014 के बीच ऐसे परिवारों की संख्या में भारी कमी आई जिनके पास शौचालय नहीं था।
सरकार का दावा है कि स्वच्छ भारत अभियान के तहत इन राज्यों में लगभग सभी परिवारों को शौचालय की सुविधा मिल गई है। इस अभियान को लेकर पिछले दो सालों में राज्यों में गजब का उत्साह देखने को मिला है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने आवंटित राशि से ज्यादा पैसे खर्च किए हैं। 2016-17 में अधिकांश राज्यों ने उन्हें आवंटित राशि का इस्तेमाल किया। विश्व स्वास्थ्य संगठन का भी कहना है कि स्वच्छ भारत अभियान से करीब संभावित 300,000 मौतों को रोकने में मदद मिली है।
खुले में शौच से मुक्ति-नहीं
स्वच्छ भारत अभियान की सबसे बड़ी खामी यह है कि सरकार ने बस्तियों को खुले में शौच की समस्या से मुक्त करने की जल्दबाजी में 8.6 करोड़ से अधिक शौचालय तो बना लिए हैं लेकिन उनके इस्तेमाल और मरम्मत के लिए बुनियादी ढांचा मौजूद नहीं है। अब तक सरकार ने 13 लाख बस्तियों में से आधे गांवों को खुले में शौच की समस्या से मुक्त घोषित किया है। लेकिन समस्या यह है कि इनमें से आधी बस्तियों में नल से जलापूर्ति की व्यवस्था नहीं है।
उत्तर प्रदेश और बिहार में क्रमश: 93 और 94 फीसदी बस्तियों को खुले में शौच से मुक्त घोषित किया है लेकिन उनमें नल से जलापूर्ति की व्यवस्था नहीं है। भाजपा शासित मध्य प्रदेश, झारखंड और छत्तीसगढ़ में भी खुले में शौच से मुक्त घोषित की गई 80 फीसदी से अधिक बस्तियों में नल से जलापूर्ति की सुविधा नहीं है। तमिलनाडु, सिक्किम और हरियाणा में ऐसी अधिकांश बस्तियों में नल से जलापूर्ति की सुविधा है।
भारत 2025
विश्व बैंक के अनुमान के मुताबिक 2025 तक भारत में हर साल 376,639 टन कचरा निकलेगा। इसमें से अधिकांश शहरी क्षेत्रों से निकलेगा जहां करीब 53.5 करोड़ लोग रह रहे होंगे। अभी देश में इससे आधा कूड़ा निकलता है। ज्यादा कूड़ा निकलना समृद्घ जीवनशैली का प्रतीक है।
भारत की आबादी को देखते हुए 2025 तक भी भारत निम्र मध्यम आय वाला देश रहेगा लेकिन यहां इतना ही कूड़ा निकलेगा जितना जापान, जर्मनी और फ्रांस जैसे धनी देश मिलकर निकालते हैं। विश्व बैंक ने 1999 में कहा था कि शहरों में रहने वाले भारतीय ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोगों से दोगुना संसाधनों का इस्तेमाल करते हैं। दो दशक पहले कही गई यह बात हर बड़े भारतीय शहर में चरितार्थ हो रही है और उच्चतम न्यायालय का तो यहां तक कहना है कि राजधानी दिल्ली कूड़े के ढ़ेर में डूब रही है।
दिल्ली तो आने वाले संकट की एक बानगी है। 2004-05 में दिल्ली में रोजाना 5,922 टन कूड़ा निकलता था जो 2015-16 में बढ़कर 8,700 टन हो गया। चेन्नई को छोड़कर अधिकांश बड़े शहरों में 1999-2000 से लेकर 2015-16 के बीच कूड़ा निकलने की मात्रा बेतहाशा बढ़ी है।
मुंबई में रोजाना 11,000 टन कूड़ा निकलता है जिसका अधिकांश हिस्सा अरब सागर में डाला जाता है। ज्वार भाटा और मॉनसून के दौरान यह वापस शहर की सड़कों पर आ जाता है। बेंगलूरु में निकलने वाले कूड़े की मात्रा पिछले दो दशक में 15 गुना से अधिक बढ़ी है। मोदी सरकार ने स्वच्छता के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए अभियान चला रखा है लेकिन इसमें सबसे बड़ी चुनौती कूड़े के ढेर को लोगों की नजरों से हटाने की है। इसे केवल लोगों की मानसिकता से हटाने से काम नहीं चलेगा।
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