अधिग्रहण प्रक्रिया में सुधारों के पथ पर बढ़ा बाजार नियामक | बाअदब | | सोमशेखर सुंदरेशन / September 30, 2018 | | | | |
बाजार नियामक भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) ने एक नया नियम लाने का फैसला किया है। इसके मुताबिक, जब कोई कंपनी किसी दूसरी कंपनी को गैर-सूचीबद्ध कराने के लिए उसके शेयरों का अधिग्रहण करना चाहती है तो वह रिवर्स बुक बिल्डिंग प्रक्रिया के जरिये उजागर हुई कीमत से सहमत नहीं होने की स्थिति में आम शेयरधारकों के लिए जवाबी पेशकश कर सकती है। सेबी के निदेशक मंडल की बैठक में इस आशय का प्रस्ताव पारित होना अच्छा कदम है। रिवर्स बुक बिल्डिंग प्रक्रिया में आम शेयरधारकों को खरीद का पसंदीदा भाव बताना होता है और उस भाव पर खरीदे जाने की इच्छा भी जतानी होती है। सबसे ऊंची कीमत देने पर अधिग्रहणकर्ता 90 फीसदी की शेयरधारिता सीमा पार करने का हकदार हो जाता है। सामने आए निकासी मूल्य का भुगतान सभी शेयरधारकों को करना होगा ताकि उनके पास मौजूद शेयरों को अधिग्रहणकर्ता खरीदे और 90 फीसदी की शेयरधारिता सीमारेखा को पार कर सके। एक सूचीबद्ध कंपनी को गैर-सूचीबद्ध कराने के लिए इन दोनों पड़ावों को पार करना जरूरी है।
सामान्यत: शेयर खरीद की यह कीमत मोटी राशि में होती है क्योंकि कानून अल्पांश शेयरधारकों के बीच अच्छा-खासा हिस्सा रखने वाले शेयरधारकों के लिए एक किराया तय करता है। कई बार छोटे शेयरधारक अपना हिस्सा बेचना चाहते हैं लेकिन 90 फीसदी की सीमारेखा पार करने के लिए जरूरी शेयरधारिता रखने वाला कोई एक शेयरधारक भी निकासी मूल्य तय करने में अहम हो जाता है। कई बार अधिग्रहणकर्ता और ऐसे शेयरधारकों के बीच सांठगांठ होने की आशंका भी जताई जाती है। छोटे शेयरधारकों को अपनी मामूली हिस्सेदारी के एवज में थोड़ी कीमत मिलने की संभावना होती है लेकिन कई बार ऐसा नहीं हो पाता है। दरअसल 90 फीसदी की शेयरधारिता सीमा पार करने के लिए 1-2 फीसदी हिस्सा रखने वाला एक शेयरधारक भी अहम हो जाता है और इसके एवज में वह अधिग्रहणकर्ता से बड़ी कीमत की मांग कर सकता है। ऐसा होने पर कंपनी को गैर-सूचीबद्ध करना मुश्किल हो जाता है।
इस दिशा में सुधार के कदम प्रस्तावित होने के बाद अगर सामने आया निकासी मूल्य अतार्किक लगता है तो अधिग्रहणकर्ता के पास यह कहने का भी मौका होगा कि वह वास्तव में एक कीमत देने को तैयार है लेकिन वह कीमत सामने आए निकासी मूल्य से कम है। उस स्थिति में शेयरधारकों को तय करना होगा कि वे जवाबी पेशकश स्वीकार करते हैं या नकारते हैं। अगर वे नई पेशकश को नहीं स्वीकार करते हैं तो भी वह कंपनी गैर-सूचीबद्ध नहीं हो पाएगी। अगर वे जवाबी पेशकश पर मान जाते हैं तो गैर-सूचीबद्धता की प्रक्रिया जारी रहेगी। एक-दूसरे को दांव में उलझाने की इस कवायद में यह नया नियम इस खरीद को खत्म करने के बजाय उसे सफल होने का कम-से-कम एक और मौका देता है।
सेबी के बोर्ड ने प्रस्तावित नियम पर मुहर लगा दी है और जल्द ही वास्तविक प्रावधान भी सामने आ जाएंगे। ऐसे में इस नियम से संबंधित विवरण में कुछ शरारत हो सकती है। कोई यह कह सकता है कि यह सुधारात्मक प्रावधान होना कोई बड़ी बात नहीं है। उसकी यह दलील हो सकती है कि छोटे शेयरधारक जवाबी पेशकश से संतुष्ट नहीं होने पर अब भी उसे नकार सकते हैं। लेकिन नए प्रावधान से दोनों पक्षों के बीच बातचीत का एक और दौर जरूर संभव हो पाएगा। अब खरीद मूल्य की पेशकश खरीदार की तरफ से आएगी जबकि अभी तक संभावित विक्रेता शेयरधारक ही निकासी मूल्य को लेकर अपने हिसाब से शर्तें तय करते हैं।
हमें यह भी देखना होगा कि ये प्रावधान किस तरह सामने आते हैं? वे जवाबी पेशकश का खाका तय करेंगे, आम शेयरधारकों के बीच पेशकश रखने, उसे स्वीकार किए जाने, ऐसी स्वीकृति की सीमारेखा और जवाबी पेशकश पर किसी तरह की पेशकश रखे जाने की किसी भी तरह की संभावना जैसे बिंदुओं पर स्थिति स्पष्ट हो सकेगी। गैर-सूचीबद्ध होने से वंचित रह गई कंपनियों के बारे में कभी भी कोई आंकड़ा सामने नहीं आ पाएगा। इसकी वजह यह है कि केवल संपन्न सौदों की ही गिनती की जा सकती है जबकि गैर-सूचीबद्ध होने से रह गए खरीद प्रस्तावों की कोई गिनती नहीं होगी।
वही पूंजी बाजार व्यवस्था चमकदार मानी जाती है जो अच्छी कंपनियों की निकासी को लेकर असुरक्षित नहीं होती है। बढिय़ा कंपनियों के गैर-सूचीबद्ध होकर निजी स्वामित्व में जाने को लेकर अगर बाजार में असुरक्षा भाव होता है तो इसकी वजह से बढिय़ा कंपनियां निजी दायरे से सार्वजनिक होने में भी असुरक्षित महसूस करेंगी। गैर-सूचीबद्धता संबंधी नियम बाजार में सूचीबद्ध कंपनियों के बड़े पैमाने पर अधिग्रहण की राह में बड़ी बाधा रहे हैं। खासकर अधिग्रहण नियम के साथ इसके पारस्परिक संबंधों का इसमें बड़ा हाथ होता है। अभी तक सेबी ने इन दोनों नियमों के बीच उलझन को दूर करने के लिए कोई कारगर कदम नहीं उठाया है। अगर कोई फर्म अधिग्रहण नियमों के तहत किसी कंपनी का अधिग्रहण करती है और 90 फीसदी की सीमारेखा और गैर-सूचीबद्धता संबंधी नियमों पर भी खरा उतर रही है तो उससे विलय एवं अधिग्रहण परिदृश्य काफी सक्रिय हो जाएगा।
वर्तमान में अधिग्रहण नियमों का मकसद इन दोनों कानूनों की उलझनें दूर करने का है लेकिन जरूरत इस बात की है कि अधिग्रहण कानून के तहत गैर-सूचीबद्धता की पहल के दौरान खुली पेशकश न लाई जाए। अगर गैर-सूचीबद्धता की कवायद सिरे नहीं चढ़ पाती है तो फिर अधिग्रहण नियमों के तहत खुली पेशकश का विकल्प आजमाया जाए। जवाबी पेशकश की अवधारणा कम-से-कम अलग मूल्य वाली एक पेशकश संभव बनाती है लेकिन दो अलग पेशकश रखे जाने की जरूरत खत्म करने के लिए प्रक्रियागत सामंजस्य सुनिश्चित करने का अभी इंतजार है।
(लेखक वरिष्ठ अधिवक्ता और स्वतंत्र परामर्शदाता हैं)
|