पेचीदा विलय | संपादकीय / September 18, 2018 | | | | |
केंद्र सरकार ने सोमवार को घोषणा की कि वह सार्वजनिक क्षेत्र के तीन बैंकों, बैंक ऑफ बड़ौदा, विजया बैंक और देना बैंक का विलय करना चाहती है। तीनों को मिलाकर बनने वाला नया बैंक देश का तीसरा सबसे बड़ा बैंक होगा। माना जा रहा है कि इन तीनों बैंकों के बोर्ड अगले पखवाड़े प्रक्रिया को अंतिम रूप देंगे। परंतु अब वह केवल औपचारिकता भर है। सरकार का यह कदम उसकी इस सोच का ताजा नमूना है जिसके तहत उसे लगता है कि सरकारी बैंकों को सुदृढ़ बनाने की आवश्यकता है। गत वर्ष उसने स्टेट बैंक में उसके पांच संबद्घ बैंकों का विलय किया था। उसके बाद भारतीय जीवन बीमा निगम द्वारा आईडीबीआई बैंक के अधिग्रहण प्रस्ताव की बात सामने आई थी। इस समावेशन प्रक्रिया के पीछे असली प्रेरणा थी बैंकिंग व्यवस्था में फंसे हुए कर्ज की समस्या से निपटना। ऐसे विलयों की उपादेयता का आकलन करने के क्षेत्र में यह एक अहम कारक है। निश्चित तौर पर इस समाचार पत्र ने अतीत में कई बार यह दलील दी है कि ऐसा सुदृढ़ीकरण पेचीदा हो सकता है। अतीत में विलयों का पुराना रिकॉर्ड भी बहुत अच्छा नहीं है।
न्यू बैंक ऑफ इंडिया और पंजाब नैशनल बैंक का विलय तथा ग्लोबल ट्रस्ट बैंक और ओरियंटल बैंक ऑफ कॉमर्स का विलय दिखाता है कि इससे अधिग्रहीत और अधिग्रहणकर्ता में से किसी का भला नहीं हुआ। स्टेट बैंक का विलय एक और उदाहरण सामने रखता है। सरकारी बैंकों के सुदृढ़ीकरण की मांग नई नहीं है। आरबीआई के पूर्व गवर्नर एम नरसिम्हन के नेतृत्व वाले एक पैनल ने सन 1998 में ही भारतीय बैंकों के तीन स्तरीय ढांचे की बात कही थी। बाजार आधारित अर्थव्यवस्था में बैंकिंग ढांचों के साथ मनमाना व्यवहार नहीं किया जा सकता। इसके बजाय नीति निर्माताओं को बाजार को बैंकों का आकार और स्वरूप निर्धारित करने देना चाहिए। रिजर्व बैंक ने बैंक लाइसेंसिंग को लेकर कहीं अधिक उदार व्यवस्था अपनाई है। ऐसे परिदृश्य में सरकार द्वारा निर्देश देना कतई समझदारी नहीं लगता।
सरकार का दावा है कि विलय से तीनों बैंकों के परिचालन में सुधार होगा और यह देश में छोटे-छोटे बैंकों के स्थान पर बड़े बैंक स्थापित करने की योजना का हिस्सा है। इसके अलावा सरकार का यह भी कहना है कि विलय के बाद बने बैंक के ग्राहक आधार में तेजी से इजाफा होगा। इसके अलावा उसकी बाजार पहुंच, परिचालन किफायत और उपभोक्ताओं के लिए उसके उत्पाद और सेवाओं में भी सुधार होने की बात कही जा रही है। परंतु जरूरी नहीं कि हकीकत भी ऐसी ही हो। देना बैंक का सकल एनपीए 22 फीसदी के साथ उच्चतम दायरे में है। विजया बैंक का सकल एनपीए 6.9 फीसदी है और बैंक ऑफ बड़ौदा का 12.4 फीसदी। विलय के बाद बनने वाले बैंक का एनपीए करीब 13 फीसदी होगा। यह बैंक ऑफ बड़ौदा के मौजूदा 12.4 फीसदी के स्तर से भी कमजोर होगा। आखिर सरकार बैंक ऑफ बड़ौदा के अंशधारकों को क्या संदेश देना चाहती है? ऐसा विलय देश के मौजूदा वित्तीय संकट की वास्तविक वजह का भी निराकरण नहीं करता। तथ्य की बात करें तो 2014 की पी जे नायक समिति भी इस बात को स्पष्टï करती है कि सरकारी बैंकों के बोर्ड संचालन मानकों पर बहुत बुरी स्थिति से गुजर रहे हैं। केवल कमजोर बैंकों का अपेक्षाकृत मजबूत बैंकों के साथ विलय कर देना सरकार के लिए बेहतर कदम हो सकता है लेकिन इससे जमीनी स्तर पर कुछ नहीं बदलता। ऐसा विलय उस सरकार के बारे खराब संदेश देता है जिसने सत्ता में आते समय कहा था कि बैंकों के प्रबंधन में राजनीतिक हस्तक्षेप बंद किया जाएगा।
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