डेटा स्थानीयकरण अतीतगामी कदम | शुभ राय / September 11, 2018 | | | | |
सरकार डेटा को लेकर जो नीति अपना रही है, वह सन 1970 के दशक के कोका कोला वाले प्रकरण की याद दिला रही है। इस संबंध में विस्तार से अपनी राय रख रहे हैं शुभ राय
अप्रैल 2018 में भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने एक पृष्ठï का संक्षिप्त निर्देश जारी करके देश में संचालित सभी भुगतान संस्थाओं से कहा कि वे अपने लेनदेन के डेटा भारत में रखें और मांगे जाने पर उसे तत्काल मुहैया कराएं। इसके बाद वाणिज्य विभाग ने एक थिंकटैंक का गठन किया ताकि वह ई-कॉमर्स कानूनों की समीक्षा कर सके और डब्ल्यूटीओ में भारत का रुख स्पष्ट कर सके। इसका अनकहा लक्ष्य था डेटा स्थानीयकरण के साथ एक गैर शुल्कीय अवरोध खड़ा कर अमेरिकी डेटा कंपनियों को रोकना। ऐसा नहीं है कि केवल भारत में वर्षों से काम कर रही अमेरिकी डेटा कंपनियों को ही रोकना इसका लक्ष्य था बल्कि डेटा कारोबार में शामिल कई भारतीय स्टार्टअप भी इससे बाहर रखे गए। थिंकटैंक की अंतिम रिपोर्ट और अनुशंसाओं की प्रतीक्षा है (लेखक इस समूह के आमंत्रित सदस्य थे इसलिए इन बैठकों के बारे में कोई जानकारी नहीं दे सकते)।
अगस्त में न्यायमूर्ति बी एन श्रीकृष्ण की निगरानी में एक विशेषज्ञ समूह ने मसौदा निजता विधेयक प्रस्तुत किया। इस विशेषज्ञ समूह में भी देश के डेटा उद्योग का बहुत सीमित प्रतिनिधित्व था। उन नवाचारियों का भी जो डेटा नियमन व्यवस्था से सबसे अधिक प्रभावित हुए। जहां तक डेटा के स्थानीयकरण की बात है तो यह मसौदा विधेयक बहुत कम गुंजाइश वाला है। मसौदा विधेयक के मुताबिक व्यक्तिगत डेटा को देश में रखा जाएगा लेकिन इसकी एक प्रति को देश से बाहर ले जाया जा सकता है।
बहरहाल, महत्त्वपूर्ण व्यक्तिगत डेटा जिसमें वित्तीय लेनदेन शामिल हो सकता है, उनसे मामला दर मामला ही निपटा जाएगा। विधेयक में डेटा भंडारण और उसके देश से बाहर स्थानांतरण की प्रक्रिया जटिल है और हमें सन 1970 के दशक के लाइसेंस परमिट राज की ओर ले जाती है। अगस्त के अंत तक एक अन्य विशेषज्ञ समिति ने डेटा स्थानीयकरण का प्रस्ताव रखा। यह समूह क्लाउड नीति से संबंधित था। डेटा स्थानीयकरण की पूरी दलील डेटा संप्रभुता पर आधारित है। नीति निर्माण में राष्ट्रवाद की यह मिलावट मुझे सन 1977 की एक घटना की याद दिलाती है जो मुझे कुछ हद तक याद है। उस वर्ष क्या हुआ था? पूर्व कांग्रेस नेता मोरारजी देसाई के नेतृत्व में एक नई सरकार आई थी और उसने एक अंतर्मुखी आर्थिक नीति अपनाई थी जो पूरी तरह पश्चिम विरोध पर केंद्रित थी। परिणामस्वरूप 1978 में 50 बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भारत छोडऩे का निर्णय ले लिया। इनमें अधिकांश अमेरिकी और ब्रिटिश कंपनियां थीं क्योंकि उस वक्त एशियाई कंपनियां इतनी मजबूत नहीं थीं कि भारत में निवेश कर सकें। उस समय गैर शुल्कीयअवरोध के रूप में फेरा (विदेशी मुद्रा नियमन अधिनियम) का प्रयोग किया गया।
उस दौर में भारत छोडऩे वाली कंपनियों में से एक की कहानी बहुत शिक्षाप्रद है। मैं कोका कोला की बात कर रहा हूं। कोका कोला के भारत छोडऩे के बाद थम्स अप जैसे भारतीय ब्रांड का उदय हुआ। 14 वर्ष बाद सन 1993 में कोका कोला भारत आई और उसने थम्स अप को खरीद लिया। इस तरह एक वैश्विक एकाधिकार वाली कंपनी ने स्थानीय एकाधिकार वाली कंपनी को खरीद लिया। भारत को इससे क्या हासिल हुआ? या कहें तो भारतीयों को इससे क्या प्राप्त हुआ? इस अवधि में यह पेय पदार्थ देश के दूरदराज इलाकों तक पहुंच गया और थम्स अप कोका कोला के लिए खरीद का आदर्श ब्रांड बन गया। भारत को जितने भूजल का नुकसान हुआ, उतना ही उसे रोजगार मिला। वर्ष 2018 में अमेरिकी डेटा कंपनियों के खिलाफ एक और गैर शुल्कीय अवरोध पैदा किया गया ताकि भारतीय कंपनियों को लाभ पहुंचाया जा सके। (इस बार कोई ब्रिटिश कंपनी नहीं है और जापानी और चीनी कंपनियां निवेशकों के रूप में आ रही हैं, न कि कंपनी मालिक बनकर)।
सतही तौर पर देखें तो दोनों प्रकरणों में कुछ अंतर नजर आते हैं। भारत अब सन 1977 की तुलना में आर्थिक रूप से अधिक स्थिर और सशक्त है। कोका कोला तो केवल शीतल पेय बेच रही थी, डेटा कंपनियां भारतीयों का वास्तविक डेटा ले जा रही हैं। भारत अब अपनी संप्रभुता को लेकर जागरूक है और वह भविष्य की नीतियां तैयार करने को लेकर भी उत्सुक है। परंतु जैसा कि मैंने कहा ये सतही अंतर हैं। नीति निर्माण का क्षेत्र वही पुराना है। यानी गैर शुल्कीय अवरोध खड़े करके देसी कंपनियों को क्षेत्रीय एकाधिकार दिलाना। जबकि उन्हें प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देना चाहिए। इस दौरान देश या उपभोक्ताओं की चिंता नहीं की जा रही। नीति निर्माण करते समय तथ्यों का उचित ध्यान नहीं रखा जा रहा। ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि ऐसी नीति का नतीजा क्या निकलेगा।
यानी इस नीति के सफल क्रियान्वयन के बाद हम स्थानीय स्तर पर एकाधिकार विकसित करेंगे जो काफी हद तक विदेशी एकाधिकार की तरह ही काम करेगा तथा भारत और भारतीय उपभोक्ताओं की चिंता अछूती ही रहेगी। रोचक बात यह है कि ऐसी देश केंद्रित नीतियों को ऐसे वक्त में बढ़ावा दिया जा रहा है जबकि नीति निर्माताओं की प्राथमिकता में निवेश, रोजगार निर्माण, डेटा अर्थव्यवस्था का निर्माण, साझा अर्थव्यवस्था और उद्यमिता को बढ़ावा देना आदि हैं। सरकार के खुद के आकलन में निवेश की मांग सबसे ऊपर है। खासतौर पर डिजिटल, दूरसंचार और बुनियादी विकास के क्षेत्रों में निवेश की मांग सबसे अधिक है।
सन 1977 के मामले से लिए गए सबक बताते हैं कि न तो भारत और न ही भारतीयों को इससे कुछ खास हासिल होने वाला है। किसे पता है कि अगले तीन-चार वर्षों में यही विदेशी कंपनियां शायद वापस आएं और भारतीय कंपनियों को ठीक उसी तरह खरीद लें जिस तरह कोका कोला ने सन 1993 में खरीदा था। भारत और भारतीय जो बड़ी छलांग की बात कर रहे हैं कहीं वह छलांग अतीत की दिशा में लगाई गई उलट छलांग न साबित हो।
(लेखक भारतीय इंटरनेट और मोबाइल महासंघ के अध्यक्ष हैं। लेख में प्रस्तुत विचार निजी हैं।)
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