अंतरिम आदेशों पर उच्चतम न्यायालय की चेतावनी | अदालत से | | एम जे एंटनी / September 09, 2018 | | | | |
उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि अदालतों को कोई ऐसी अंतरिम राहत नहीं देनी चाहिए तो अंतिम आदेश की तरह हो। न्यायालय ने संपत्ति के एक मामले में बंबई उच्च न्यायालय के फैसले को खारिज करते हुए यह व्यवस्था दी। उच्च न्यायालय ने एक पक्ष को राहत देकर बुनियादी गलती की जिसका अंतिम सुनवाई के समय सबसे अच्छा इस्तेमाल किया जा सकता था, न कि सुनवाई के बीच के दौर में। समीर नारायण बनाम अरोड़ा प्रॉपर्टीज वाद में वाणिज्यिक अपील पर उच्च न्यायालय ने याचिकाकर्ता को आठ फ्लैट के साथ 16 पार्किंग स्थल दूसरे पक्ष को देने का आदेश दिया। दूसरे पक्ष में एक कोऑपरेटिव हाउसिंग सोसाइटी शामिल थी। शीर्ष न्यायालय ने पाया कि याचिकाकर्ता के खिलाफ उच्च न्यायालय के आदेश की प्रकृति निर्विवाद रूप से सुनवाई के बीच के दौर में एक अनिवार्य आदेश थी। विरोधी पक्षों के बीच मामले का जो निपटारा किया गया था, उसमें याचिकाकर्ता शामिल नहीं था। उच्च न्यायालय ने उसे फ्लैट और पार्किंग स्थल सौंपने का आदेश देकर अपने अधिकार क्षेत्र को पार कर लिया था क्योंकि इसके अनुपालन से दूसरे पक्षों को अनुचित फायदा होता। शीर्ष न्यायालय ने अंतरिम आदेश पारित करते हुए तय किए गए अपने दिशानिर्देशों का भी हवाला दिया जो मुख्य रूप से सुविधा के संतुलन पर आधारित हैं। न्यायालय ने कहा, 'अंतरिम अनिवार्य रोक ऐसा उपाय नहीं है जो आसानी से दिया जा सके। यह केवल ऐसी परिस्थितियों में ही दिया जाना चाहिए जो स्पष्टï हों और प्रथम दृष्टïया सामग्री इस निष्कर्ष को साबित करती हो कि किसी एक पक्ष ने यथास्थिति को बदला है और यथास्थिति को बहाल करना न्याय के हित में हो।'
दुर्घटना के पीडि़त को ज्यादा मुआवजा
उच्चतम न्यायालय ने सड़क दुर्घटना के कारण स्थायी रूप से विकलांग हो चुके एक व्यक्ति के लिए मुआवजे की राशि बढ़ा दी है। पंचाट ने पीडि़त को 3.43 लाख रुपये का मुआवजा दिया था और उच्च न्यायालय ने उसकी अपील खारिज कर दी थी। इस पर पीडि़त ने उच्चतम न्यायालय में अपील की जिसने उसे 5 लाख रुपये अतिरिक्त मुआवजा दिया। शीर्ष न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय ने इस मामले में सभी तथ्यों पर गौर नहीं किया। अनिल कुमार बनाम नैशनल इंश्यारेंस कंपनी वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि पीडि़त 25 साल का अविवाहित व्यक्ति है, दुर्घटना के कारण वह चलने फिरने से लाचार है, उसकी नौकरी जा चुकी है और उसने चार बड़े ऑपरेशनों तथा उसके बाद इलाज पर अच्छी खासी राशि खर्च की है। अदालत ने बीमा कंपनी को तीन महीने के भीतर मुआवजे का भुगतान करने को कहा।
ऋण चूक मामले से निपटेगा डीआरटी
गुजरात उच्च न्यायालय ने पिछले सप्ताह एक याचिका को खारिज कर दिया जिसमें ऋण का भुगतान करने में कथित रूप से नाकाम रही एक कंपनी की परिसंपत्तियों का एक बैंक द्वारा अधिग्रहण किए जाने को चुनौती दी गई थी। बेंगनी उद्योग लिमिटेड बनाम स्मॉल इंडस्ट्रीज डेवलेपमेंट बैंक वाद में न्यायालय ने कहा कि जब कंपनी ऋण वसूली पंचाट (डीआरटी) में अपना पक्ष रख सकती हैं तो उच्च न्यायालय के लिए कोई अंतरिम आदेश पारित करना उचित नहीं होगा। कंपनी को उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाने से पहले सरफेसी कानून के तहत उपलब्ध दूसरे विकल्पों को आजमाना चाहिए। यह कानून अपने आप में पूरी संहिता है और इसमें अपील की व्यवस्था है। अदालत ने कहा कि यह वित्तीय मामला है और इसमें कोई भी अंतरिम आदेश देना दूसरे पक्ष के लिए नुकसानदायक होगा क्योंकि इसमें करदाताओं का पैसा शामिल है। इसलिए वह खासकर सरफेसी कानून के तहत आने वाले मुद्दे पर रोक लगाने के अपने विवेकाधिकार का इस्तेमाल करने में जल्दबाजी नहीं करेगा।
फिर से शुरू नहीं किया जा सकता मध्यस्थता का मामला
दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा है कि मध्यस्थता एवं सुलह कानून में 2015 में हुए संशोधन से पहले शुरू हुई मध्यस्थता की कार्यवाही रोकने की जरूरत नहीं है और नए कानून के मुताबिक फिर से मध्यस्थता पंचाट गठित करने की जरूरत नहीं है। यूनिटी-त्रिवेणी बीसीपीएल (जेवी) बनाम रेल विकास निगम वाद में सरकारी क्षेत्र के निगम में ठेकेदार कंपनी को झारखंड में तीन लाइन पटरी बिछाने का ठेका दिया। इसमें विवाद पैदा हो गया और मध्यस्थता पंचाट का गठन किया गया। कानून में संशोधन होने के बाद ठेकेदार कंपनी ने नई प्रक्रिया लागू करने की मांग की। निगम इस पर सहमत नहीं हुआ और कंपनी ने उच्च न्यायालय की शरण ली। न्यायालय ने कहा कि संशोधित कानून में साफ किया गया है कि मौजूदा मध्यस्थता कार्यवाही नए सिरे से शुरू नहीं की जाएगी और मध्यस्थता पंचाटों का फिर से गठन नहीं होगा। न्यायालय ने कहा कि कानून में उल्लेखित कुछ विरले मामलों के अलावा वह मध्यस्थता के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगा। वेदांत लिमिटेड बनाम शेनजेन शांदोंग न्यूक्लियर पावर के बीच मध्यस्थता से जुड़े एक अन्य मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने वेदांत की याचिका खारिज कर दी और मध्यस्थ के फैसले को बरकरार रखा।
कर्नाटक सरकार की अपीलें खारिज
कर्नाटक उच्च न्यायालय ने कारोबारियों के खिलाफ दायर राज्य सरकार की अपीलों को खारिज कर दिया। इन कारोबारियों ने कर समाधान योजना, 2017 के प्रावधानों का इस्तेमाल किया था जिसे व्यापार और उद्योग को अपनी देनदारियों का भुगतान करने और जीएसटी में नई शुरुआत के लिए जारी किया गया था। योजना के तहत संबंधित कर कानूनों के तहत देय जुर्माने और ब्याज में 90 फीसदी छूट का प्रावधान था। अलबत्ता इसके लिए योजना में दी गई कुछ शर्तों का अनुपालन जरूरी था। इन कानूनों में वैट, पेशेवर कर, विलासिता कर, कृषि आय कर और मनोरंजन कर शामिल थे। सरकार की दलील थी कि अपीलों की लंबित अवधि के दौरान जमा की गई राशि ब्याज के रूप में समायोजित की जाएगी न कि कर के रूप में। करदाता इसे कर में शामिल करने की मांग कर रहे थे। करदाताओं ने सरकार की बात मानने से इनकार किया और उच्च न्यायालय चले गए।
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