विद्युत क्षेत्र का एनपीए: सरकार और आरबीआई आमने-सामने | ज्योति मुकुल / August 12, 2018 | | | | |
भले ही ऋण शोधन अक्षमता की चिंताओं के कारण बहुत सी बुनियादी ढांचा कंपनियों पर दबाव और बढ़ गया है, लेकिन सरकार विद्युत क्षेत्र को लेकर अलग रुख अपना रही है। दरअसल इस क्षेत्र में वित्तीय दबाव के चलते उद्योग के लिए एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण मसले पर नियामक और सरकार का अलग-अलग रुख सामने आया है।
केंद्र सरकार ने इस्पात क्षेत्र के लिए भारतीय रिजर्व बैंक की 13 जून, 2017 की अधिसूचना के खिलाफ कोई सार्वजनिक रुख नहीं अपनाया। हालांकि केंद्र ने कुछ संरक्षणवादी कदम जरूर उठाए, जिनसे आरबीआई के परिपत्र से प्रभावित होने वाली पांच इस्पात कंपनियों की बाजार स्थिति में सुधार आया। साफ तौर पर सरकार बिजली कंपनियों के लिए विशेष छूट पाने की कोशिश कर रही है। इसमें 12 ऋणग्रस्त बिजली कंपनियों के लिए 27 अगस्त के बाद 180 दिन की रियायत अवधि शामिल है। इस अवधि में कंपनियों का समाधान न होने पर वे सीधे ऋण शोधन अक्षमता में आ जाएंगी।
लक्ष्मीकुमारन ऐंड श्रीधरन अटार्नीज में कार्यकारी साझेदार पुनीत दत्त त्यागी ने कहा, ‘सरकार बिजली क्षेत्र को आरबीआई के परिपत्र के असर से बचाने की कोशिश कर रही है, जबकि नियामक ने अपने कदम वापस खींचने से इनकार कर दिया है। इसकी मुख्य वजह यह नजर आती है कि सरकार के पास किसी नीति या परिपत्र से परे भी देखने की गुंजाइश होती है, लेकिन आरबीआई को एक नियामक होने के नाते खुद को नीतिगत मसलों तक ही सीमित रखना होगा।’
उनका मानना है कि इसकी वजह यह है कि सरकार को व्यापक तस्वीर देखनी होती है और इस तरह उसका मानना है कि बिजली क्षेत्र को परिपत्र के दायरे से बाहर रखना एक बेहतर फैसला है। उनके मुताबिक दूसरी वजह यह हो सकती है कि ‘आरबीआई ऐसी कोई परंपरा स्थापित नहीं करना चाहता है, जिसका भविष्य में ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता (आईबीसी) को कमजोर करने के लिए दुरुपयोग किया जा सके।’
बिजली देश मे सबसे ज्यादा ऋणग्रस्त क्षेत्रों में से एक है, जिसकी 2.6 लाख करोड़ रुपये की आस्तियां गैर निष्पादित आस्तियां (एनपीए) बन सकती हैं। इस क्षेत्र में ऋण शोधन अक्षमता से यह खरीदारों का बाजार बन सकता है, जिसमें बैंकों को इस्पात से भी ज्यादा हेयरकट (उधारी से कम राशि लेने) के लिए मजबूर होना पड़ सकता है।
निजी बिजली उत्पादकों ने 12 फरवरी, 2018 के आरबीआई के परिपत्र के खिलाफ इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक मामला दर्ज कराया था। सरकार ने भी बिजली उत्पादकों के पक्ष को स्वीकार किया और अदालत में कहा कि आरबीआई को उन मामलों के समाधान के लिए छह महीने (180 दिन) और समय देना चाहिए, जहां फिलहाल ऋण पुनर्गठन हो रहा है। सरकार ने कहा कि जब तक कैबिनेट सचिव की अगुआई में गठित उच्च-स्तरीय समिति बिजली की कम मांग, कोयले की सुनिश्चित आपूर्ति के अभाव और बकाये के भुगतान न होने जैसे मुद्दों को हल करने में सफल नहीं रहती हैै तो भविष्य के खरीदारों को भी इन मुद्दों से जूझना होगा।
आरबीआई के प्रतिनिधियों ने वित्तीय सेवा विभाग और विद्युत मंत्रालय के साथ अपनी बैठकों में बार-बार प्रस्ताव को खारिज करने के बावजूद सरकार का अदालत में यह रुख सामने आया है। सरकार को डर है कि कुछ और परियोजनाएं भी ऋणग्रस्त की श्रेणी में आ जाएंगी। देश में 34 कोयला आधारित बिजली संयंत्रों के अलावा करीब 10 गैस आधारित संयंत्र भी दबाव में हैं, जिसकी मुख्य वजह प्राकृतिक गैस न मिल पाना है। इन गैस आधारित संयंत्रों की कुल क्षमता 6,000 मेगावॉट से अधिक है।
उच्च न्यायालय ने 31 मई को फरवरी में जारी आरबीआई के परिपत्र के तहत बिजली क्षेत्र पर कार्रवाई स्थगित कर दी थी। अदालत ने वित्त मंत्रालय को यह निर्देश भी दिया था कि वह भागीदारों के साथ बैठकें करे और आरबीआई की समाधान प्रक्रिया से बाहर समाधान खोजे। इन बैठकों के बाद वित्तीय सेवाएं विभाग ने एक रिपोर्ट तैयार की, जिसमें 12 विद्युत संयंत्रों को अतिरिक्त समय दिए जाने के लिए कहा गया है।
आरबीआई ने 9 अगस्त को अदालत में अपनी पेशी के दौरान कहा कि इस तरीके (12 फरवरी के परिपत्र) से ऋणग्रस्त आस्तियों का समाधान एक व्यावसायिक फैसला था, जो उसने और उसके द्वारा नियंत्रित ऋणदाताओं ने लिया था। इसलिए न्यायपालिका को अपना कोई फैसला नहीं सुनाना चाहिए। आरबीआई ने यह कहते हुए अन्य पक्षों का तर्क खारिज कर दिया कि कानून में ‘ईमानदार डिफॉल्टर’ जैसी कोई श्रेणी नहीं है।
नीति और नियामकीय भ्रम?
यह एक ऐसा मामला बन गया है, जहां आईबीसी बनाने वाले के रूप में सरकार छूट की मांग कर रही है। जबकि यह कानून वित्तीय संस्थानों के बहीखातों से ऋणग्रस्त आस्तियों को हटाकर एक व्यापक वित्तीय बाजार बनाना था। हालांकि भारतीय रिजर्व बैंक आईबीसी का नियामक नहीं है, लेकिन वह देश में वित्तीय बजार की सेहत के लिए जिम्मेदार है। आईबीसी का नियामक भारतीय ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया बोर्ड है।
हालांकि त्यागी का मानना है कि आईबीसी पर सरकार और आरबीआई के विरोधाभासी रुख का तत्काल कोई असर नहीं पड़ेगा, लेकिन उनका कहना है कि इससे निश्चित रूप से अनिश्चितता पैदा होती है। उन्होंने कहा, ‘जब प्रमुख नीतिगत मसलों पर क्षेत्र का नियामक का सरकार से अलग रुख है तो कंपनियां और अन्य भागीदारों में अनिश्चितता पैदा होती है।’
वह कहते हैं कि आरबीआई को एक मजबूत नियामक के रूप में अपनी स्वतंत्रता के लिए जाना जाता है, जो सरकार के मुताबिक चलने से इनकार कर देता है। उन्होंने कहा, ‘यह एक नियामकीय भ्रम का संकेत नहीं है। दरअसल इन मतभेदों से एक मौका पैदा होता है, जहां आरबीआई और सरकार के अलग-अलग नजरिये संतुलित होते हैं और एक बेहतर समाधान निकलता है।’ इलाहाबाद उच्च न्यायालय में भले ही कुछ भी फैसला आए, लेकिन ऐसा लगता है कि इसमें हारने वाला पक्ष इसके खिलाफ अपील जरूर करेगा। बिजली क्षेत्र में वित्तीय ऋणग्रस्तता का आगामी कुछ महीनों में समाधान होने की संभावना नजर नहीं आ रही है।
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