आम भारतीय मुस्लिम की चिंता उकेरती मुल्क | शेखर गुप्ता / August 12, 2018 | | | | |
हर सातवां भारतीय मुस्लिम है। सन 2021 की जनगणना में उनकी तादाद 20 करोड़ का आंकड़ा पार कर जाएगी। निश्चित तौर पर हमारे सर्वश्रेष्ठ अभिनेताओं, संगीतकारों, गीतकारों, निर्देशकों और तकनीकी कलाकारों में से कई मुस्लिम रहे हैं। इसके बावजूद हिंदी सिनेमा में मुस्लिम बहुत कम नजर आते हैं। जब वे नजर आते भी हैं तो वे या तो बहुत अच्छे किरदार में होते हैं या फिर निहायत खराब। यह कुछ-कुछ वैसा ही है जैसे बॉलीवुड ने यह मान लिया हो कि एकदम आम और सामान्य मुस्लिम या तो होते ही नहीं हैं और अगर होते भी हैं तो बॉक्स ऑफिस के लिए अनुकूल नहीं होते। इस लिहाज से अनुभव सिन्हा की फिल्म मुल्क अहम है।
सिनेमा में मुस्लिमों के चित्रण को व्यापक तौर पर तीन चरणों में बांटा जा सकता है। स्वतंत्रता से 60 के दिवस के अंत तक का समय इतिहास के अत्यंत रूमानी और ताकवर चरित्रों के इर्दगिर्द रहा। ताजमहल, मुगल-ए-आजम, रजिया सुल्ताना आदि फिल्में बनीं। इसके अलावा उस वक्त मुस्लिम समाज को लेकर भी एक समांतर धारा थी जिसमें रोमांस, शायरी और सामंती प्रताप नजर आता था। इसमें मेरे महबूब से लेकर पाकीजा तक फिल्में शामिल थीं। सन 1970 के दशक में जब एंग्री यंग मैन का दौर था तब मुस्लिम बड़े दिल वाले, माननीय लोग थे जो अक्सर अपने हिंदू साथी के लिए अपनी जान कुर्बान कर देते थे। सन 1973 में आई प्रकाश मेहरा की फिल्म जंजीर याद कीजिए जिसमें प्राण ने अमिताभ बच्चन के दोस्त शेर खान की भूमिका निभाई। सन 1980 के दशक के आखिर तक मुस्लिम हमेशा अच्छे चरित्र के रूप में दर्शाए गए।
इसके बाद एक ऐसा दौर आया जिसे हम सनी देओल का युग कह सकते हैं। इस वक्त तक सांप्रदायिकता फैशनेबल हो चुकी थी और मुस्लिमों को अक्सर आतंकियों के रूप में चित्रित किया जाता था। जाल-द ट्रैप नामक ऐसी ही एक फिल्म में अच्छे व्यक्ति बने देओल बुरे लोगों (सभी मुस्लिम) को तौर तरीके सिखा रहे हैं और पाश्र्व में ओम नम: शिवाय बज रहा है। खल पात्रों के परदे पर आगमन पर पाश्र्व में अरबी संगीत बजता है और बीच-बीच में अल्लाह सुनाई देता है। तबू ने देशभक्त हीरो की मुस्लिम पत्नी की भूमिका निभाई जो उसे धोखा देती है।
इनमें सबसे बुरी फिल्म थी गदर-एक प्रेम कथा। मैंने इस फिल्म को कई वर्ष पहले देखा था जब संपादक एम जे अकबर ने एक बातचीत में मुझसे कहा था कि यह अब तक बनी सबसे अधिक कट्टर सांप्रदायिक फिल्म है। उनका कहना सही था। कई और फिल्में भी बनीं, जैसे कि रोजा, मिशन कश्मीर, फना, फिजा, कुर्बान और विश्वरूपम। हालांकि यहां नायक एक अच्छा मुस्लिम है जो बुरे मुस्लिम आतंकियों से मोर्चा लेता है। कश्मीर में आतंकवाद के उभार, अल कायदा और इंडियन मुजाहिदीन जैसे संगठनों के सामने आने ने मुस्लिमों को लेकर भय का माहौल बनाया। वर्ष 2011 में मोहम्मद अशरफ खान और सईदा जुरिया बुखारी ने 50 ऐसी फिल्मों पर अध्ययन किया जिनमें मुस्लिम किरदार थे। अध्ययन में पाया गया कि 65.2 फीसदी फिल्मों में मुस्लिमों को खल पात्र के रूप में दिखाया गया है। करीब 30 फीसदी किरदार निष्पक्ष थे और केवल 4.4 प्रतिशत मुस्लिम किरदार ही सकारात्मक भूमिका में थे। अब हाल के दिनों में इसे चुनौती मिलनी शुरू हुई है।
जॉन अब्राहम की न्यूयॉर्क और शाहरुख खान की माई नेम इज खान, मलयालम फिल्म अनवर आदि में मुस्लिम नायक दिखाए हैं। शाहरुख खान ने तो कई फिल्मों में मुस्लिम नायक की भूमिका निभाई। इसकी शुरुआत चक दे इंडिया से हुई। अनुभव सिन्हा की मुल्क उस दृष्टि से उल्लेखनीय फिल्म है। यह फिल्म एक साधारण मुस्लिम परिवार का चित्रण करती है। इसमें लगभग परित्यक्त हिंदू बहू की भूमिका में तापसी पन्नू भी हैं। इस फिल्म के मुस्लिम अच्छे और देशभक्त भी हैं और बुरे और आतंकी भी। यह मुस्लिमों के अच्छे पक्ष की जटिलता को भी पेश करती है। वाराणसी के आतंक विरोधी दस्ते के प्रमुख के रूप में रजत कपूर ने शानदार अभिनय किया है जो अपने ही समुदाय के लिए बुरा है। वह अपनी आंखों से ही काफी कुछ बयां कर देते हैं। एक आतंकी बेटा है जिसके द्वारा बस में लगाए गए बम के फटने से 16 लोगों की मौत हो जाती है (जिनमें तीन मुस्लिम हैं) और वह पुलिस मुठभेड़ में मारा जाता है।
फिल्म शुरू होने के आधे घंटे के भीतर आपके मन में मिलेजुले भाव आ सकते हैं। भय, असुरक्षा, कई तरह की दुविधा और हताशा आपको नजर आती हैं जो आज भारतीय मुस्लिमों के मन में चल रही हैं। अगर मैं वकील मुराद अली मोहम्मद (ऋषि कपूर)के भतीजे शाहिद (प्रतीक बब्बर) की तरह एक युवा मुस्लिम होता तो यकीनन कुछ परस्पर विरोधी दबाव दिमाग में होते। बेरोजगारी, मुस्लिमों को पीडि़त दिखाने का प्रोपगंडा हो रहा है और वे इससे लड़ते क्यों नहीं? इसके अलावा परिवार, देश और अपनी आस्था के प्रति प्रेम की बात। आधी फिल्म समाप्त होने तक आप भय में जकड़ जाते हैं।
आपको लग सकता है कि क्या 20 करोड़ मुस्लिमों यानी हर सातवें भारतीय के मन में ऐसा चल रहा है? अगर ऐसा है तो हम सब अब तक बचे कैसे हैं? ऐसा इसलिए नहीं हुआ क्योंकि फिल्म के आतंकी के परिवार की तरह कई अतिशय देशभक्त मुस्लिम हमारे इर्दगिर्द हैं, वे अपने बेटे का शव तक लेने से इनकार कर देते हैं। यह फिल्म अच्छे मुस्लिमों के अपवाद के सिद्धांत पर ही सवाल उठाती है। हमें हवलदार अब्दुल हमीद, डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम और बनारस के उस्ताद बिस्मिल्लाह खान तथा उन जैसे अन्य मुस्लिम पसंद हैं। अनुभव कहते हैं कि ये सब अपवाद नहीं है। अधिकांश मुस्लिम ऐसे ही हैं। केवल आतंकवादी ही अपवाद हैं।
दो दशक से अधिक वक्त में एक हिंदी फिल्म सिर्फ तीन बार मेरे इस स्तंभ को प्रेरित कर सकी। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि फिल्म ने ऐसे रुझान को पकड़ा जिसे जानकार या राजनेता नहीं पकड़ सके। या फिर वह फिल्म एक ऐसे क्षेत्र में जाती है जिसे अन्यथा असहज होने के चलते हम बच निकलते।
इनमें पहली थी फरहान अख्तर की 2001 में आई फिल्म दिल चाहता है। फरहान खान ने इंडिया शाइनिंग को एकदम शुरुआती दौर में पकड़ा था। याद रहे यही वह दौर था जब अनिल अंबानी को सचिन तेंडुलकर से ऊपर रखकर देश का शीर्ष यूथ आइकन घोषित किया जा रहा था। दूसरी फिल्म थी 2015 में आई नीरज घेवन की मसान। इस फिल्म ने उस बेतहाशा प्रगति से आए बदलाव के व्यक्तिगत और सामाजिक प्रभाव का आकलन किया।
यह फिल्म जाति व्यवस्था से भी टकराई। दिलचस्प है यह फिल्म मुल्क की तरह वाराणसी पर आधारित है। अनुभव सिन्हा की फिल्म मुल्क इस सूची में इसलिए आई क्योंकि यह आधुनिक भारत में एक साधारण मुस्लिम परिवार की समस्या को दिखाती है। उनको जिस तरह ट्रोल किया जा रहा है उससे पता चलता है कि वह सफल हैं। मुझे समझ नहीं आता है कि एक देशभक्त भारतीय को इस फिल्म से शर्मिंदगी क्यों होगी?
हमें गर्व होना चाहिए कि भारत में मेघना गुलजार की राजी जैसी फिल्म बनती है और सफल होती है। इस फिल्म में एक पाकिस्तानी सैन्य परिवार को अच्छे लोगों से भरा हुआ दिखाया गया है। अब मुल्क का नंबर आता है। क्या ऐसा इसलिए क्योंकि मौजूदा सनी देओलमय माहौल में मुस्लिमों को लेकर हमारी सहज सोच यह है कि वे जब तक खुद को देशभक्त साबित न करें तब तक वे देशद्रोही हैं। इसलिए हमें यह फिल्म देखनी चाहिए।
सन 2005 में उसी वाराणसी में मुझे वहां के सबसे प्रसिद्ध मुस्लिम व्यक्तियों में से एक ने अहम सबक दिया था। उस्ताद बिस्मिल्लाह खान ने ‘वॉक द टाक’ इंटरव्यू में मुझे बताया था कि वह सन 1947 में पाकिस्तान क्यों नहीं गए जबकि जिन्ना ने व्यक्तिगत रूप से उनसे पाकिस्तान आने का आग्रह किया था। उन्होंने मुझसे कहा, ‘कैसे जाते हम? वहां हमारा बनारस है क्या?’ उन्होंने आगे मुझसे कहा कि वह बिना भगवान शिव के आशीर्वाद के राग भैरवी नहीं बजा सकते और उन्हें मंदिर में नहीं जाने दिया गया तो उन्होंने पीछे से मंदिर की दीवार छू ली।
संसद में आजादी के पहले दिन की क्लिप्स देखिए। वही बिस्मिल्लाह खान शहनाई बजा रहे हैं, जिन्होंने पाकिस्तान जाने से इनकार किया था। देश का 72वां स्वतंत्रता दिवस करीब है। आप मुल्क देखिए जिसमें मुराद अली बने ऋषि कपूर अदालत से कहते हैं, ‘अगर आप मेरी दाढ़ी और ओसामा बिन लादेन की दाढ़ी में फर्क नहीं कर पा रहे हैं तो भी मुझे हक है मेरी सुन्नत (धार्मिक कृत्य) निभाने का।’
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