आप उस व्यक्ति के बारे में क्या कह सकते हैं जो अपनी पूरी जिंदगी में एक भी चुनाव न हारा हो और दो बार देश का प्रधानमंत्री बनने के भी बेहद करीब पहुंचा हो? उस व्यक्ति को राजनीतिक चातुर्य के मामले में विलक्षण, भावना के स्तर पर निष्ठुर और विचारधारा संबंधी आग्रहों को लेकर लचीला ही कहा जाएगा। अगर ऐसा है तो फिर आप महाराष्ट्र के सबसे पसंदीदा पुत्रों में से एक और देश के सर्वाधिक सम्मानित नेताओं में शामिल शरदराव पवार का आकलन काफी हद तक सटीक ही कर रहे हैं। बेहद परिश्रमी पवार दोबारा उस भूमिका में लौट आए हैं जिसे वह बखूबी अंजाम देते रहे हैं। समान सोच रखने वाले नेताओं को एक-दूसरे के संपर्क में लाने, नए अवसर पैदा करने, संपर्क की कडिय़ां जोडऩे और इस पूरी प्रक्रिया में ऐसे दरवाजे खोल देना जिसके बारे में कल्पना भी न की जा रही हो।इस बार पवार ने मराठा समुदाय को आरक्षण देने को संभव बनाने के लिए रखे जाने वाले संविधान संशोधन प्रस्ताव पर राजनीतिक सहमति बनाने का जिम्मा उठाया है। दरअसल सर्वोच्च अदालत ने आरक्षण के लिए 50 फीसदी की सीमा निर्धारित की हुई है और इस बाधा को पार करने का रास्ता निकाले बगैर मराठा समुदाय को आरक्षण के दायरे में लाया नहीं जा सकता है। पवार ने आगाह करते हुए कहा है कि इस काम को अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के लिए निर्धारित आरक्षण में छेड़छाड़ के बगैर ही अंजाम देने की जरूरत है। इसके साथ ही वह विपक्ष के तमाम नेताओं के साथ संपर्क में हैं ताकि उन्हें एक साथ खड़ा किया जा सके। खुद को प्रधानमंत्री पद की दावेदारी से अलग करते हुए पवार ने राहुल गांधी का हाथ थामा है, बहुजन समाज पार्टी की मायावती को भरोसा दिलाया है और तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी से भी संवाद कायम करने में लगे हुए हैं। उन्होंने द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम (द्रमुक) के प्रमुख एम करुणानिधि के निधन पर श्रद्धांजलि देने के साथ ही उनके उत्तराधिकारी एम के स्टालिन से भी मुलाकात की है।इस पूरी कवायद में पवार ने कभी भी कोई ऐसी बात नहीं कही है जिसे नरेंद्र मोदी और अमित शाह की राजनीति को सही ठहराने की कोशिश के तौर पर देखा जा सके। (असल में उन्होंने ‘मुसलमानों को पाकिस्तान चले जाना चाहिए’ सिद्धांत के पैरोकारों को यह याद दिलाने की कोशिश की है कि पाकिस्तान भी एक समय भारत का ही हिस्सा था और उस देश की अपनी कई यात्राओं में उन्हें ऐसा लगा है कि वहां के लोग भारत के लोगों से काफी प्यार करते हैं।) इस तरह यह मानना काफी हद तक सुरक्षित होगा कि पवार विपक्ष की तरफ से ही बल्लेबाजी कर रहे हैं। आखिर इस बिंदु को इतने विस्तार से बताने की जरूरत क्यों है? कांग्रेस का एक धड़ा इस बात को बखूबी जानता है कि शरद पवार के मामले में आप कभी भी निश्चित तौर पर कुछ नहीं कह सकते हैं। जरा इतिहास पर नजर डालते हैं। सीताराम केसरी को कांग्रेस अध्यक्ष पद से हटाने में अहम भूमिका निभाने और सोनिया गांधी को कांग्रेस की अगुआई के लिए आमंत्रित करने के बाद पवार ने पार्टी छोड़ दी और पी ए संगमा एवं तारिक अनवर के साथ मिलकर अलग दल राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) का गठन कर लिया था। उन्होंने ऐसा क्यों किया? इसके लिए सोनिया के विदेशी मूल को जिम्मेदार बताया जाता है। लेकिन 1999 के लोकसभा एवं विधानसभा चुनावों के तत्काल बाद पवार ने कांग्रेस से हाथ मिलाने में कोई हिचक नहीं दिखाई। पवार ने सोनिया की अगुआई वाली कांग्रेस के साथ मिलकर महाराष्ट्र में सरकार ही नहीं बनाई बल्कि वह कांग्रेस की अगुआई में 2004 में बनी संप्रग सरकार में मंत्री भी बने। यह पवार के लंबे सियासी सफर का वह मोड़ था जिसने राष्ट्रीय स्तर पर उनकी विश्वसनीयता को सवालों के घेरे में ला खड़ा किया। इसके बावजूद जब राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों से निपटने का मामला आता है तो पवार हमेशा ही एक कांग्रेसी सोच वाले नेता ही रहे हैं जो उस पुरानी मान्यता में यकीन रखता है कि राजनीतिक विरोध को कभी भी निजी दुश्मनी में नहीं तब्दील करना चाहिए। उन्होंने चुनावी रैलियों में भी अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ बहुत कड़े शब्दों का इस्तेमाल कभी नहीं किया है। असल में, उन्होंने हमेशा राजनीतिक विरोधियों के साथ संवाद के सूत्र कायम करने की कोशिश की है। यही वजह है कि महाराष्ट्र की सियासत में नंबर वन के दावेदार होते हुए भी पवार के शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे के साथ बहुत ही अच्छे निजी रिश्ते रहे। इसी के साथ एक प्रशासक के तौर पर भी उनके रिकॉर्ड को नकारा नहीं जा सकता है। अपने निर्वाचन क्षेत्र में उन्होंने किसानों को एमू एवं शतुरमुर्ग के पालन के लिए प्रोत्साहित किया और गन्ने के खेतों के बीच अंगूर एवं स्ट्रॉबेरी उगाने को भी कहा। आज हम बिजली उत्पादन में एनरॉन को दिए गए मौके को नाकाम प्रयोग बताकर शर्मिंदगी के साथ याद करते हैं लेकिन एनरॉन ने ही भारत को ऊर्जा क्षेत्र में विदेशी कंपनियों को निवेश के लिए आमंत्रित करने में हमारी झिझक तोडऩे का काम किया था। सुधारों के समर्थक होने के नाते पवार को सभी बड़ी कंपनियों का भरोसा हासिल था। कंपनियां उनकी तरफ उम्मीद भरी नजरों से देखती रही हैं और उन्हें हमेशा यह लगा है कि यह शख्स कभी निराश नहीं करेगा। यहां तक कि बजाज परिवार के भीतर विवाद खड़ा होने पर दोनों धड़ों ने पवार को मध्यस्थ के तौर पर खुशी-खुशी स्वीकार किया था। पवार ने बहुत कुछ देखा है, बहुत कुछ किया है। यही वजह है कि विपक्ष को एकजुट करने में एक ईमानदार मध्यस्थ की भूमिका निभाने की पवार की कोशिशों को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। भले ही इस संभावना को लेकर भाजपा में कंपकंपी न मची हो लेकिन पवार की भूमिका पर वह नजर जरूर बनाए होगी।
