अर्थव्यवस्था के लिए अहम राज्यों का बजट खर्च | नीलकंठ मिश्र / August 06, 2018 | | | | |
भारतीय आर्थिक ढांचे में राज्यों के बजट की अहमियत को देखते हुए भारतीय रिजर्व बैंक ने राज्यों की वित्तीय स्थिति के बारे में अपना सारांश प्रकाशित करना पुरानी परंपरा से 10 महीने ही जारी करने का फैसला किया है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए। इससे न केवल बाजार सक्षमता सुधरेगी बल्कि यह अर्थव्यवस्था के बेहतर प्रबंधन में भी नीति-निर्माताओं की मदद कर सकता है। आखिरकार राज्यों का समेकित व्यय केंद्र सरकार के शुद्ध व्यय से 90 फीसदी अधिक है और राज्य एक साथ मिलकर केंद्र के बराबर ही घाटे में चल रहे हैं। एक दशक पहले राज्यों के बॉन्ड जारी करने की जो शुरुआत हुई थी, उसने अब कुछ मामलों में केंद्र के बॉन्ड को भी पीछे छोड़ दिया है।
रिजर्व बैंक का आकलन बताता है कि वित्त वर्ष 2018-19 में राज्यों का सम्मिलित राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 2.6 फीसदी रह सकता है जो 2013-14 के बाद का न्यूनतम स्तर है। इसके मुताबिक वित्त वर्ष 2017-18 में राज्यों का समग्र बजट घाटा 4.9 लाख करोड़ रुपये रहा है जो संशोधित अनुमानों से भी 30 हजार करोड़ रुपये कम है। राजकोषीय लक्ष्य हासिल कर पाने में राज्यों के खराब रिकॉर्ड को देखते हुए इस आकंड़े को अंतिम मान लेना भूल होगी क्योंकि आम तौर पर राज्यों का घाटा बजट अनुमान से अधिक ही रहता है। फिर भी उनका सम्मिलित घाटा जीडीपी के तीन फीसदी के दायरे के भीतर ही रहने की संभावना है। संवैधानिक बाध्यता के तहत राज्यों को एक भी रुपया उधार लेने के पहले केंद्र की अनुमति लेनी होती है। केंद्र इस प्रावधान के जरिये राज्यों के घाटे को नियंत्रण में रखता है। केंद्र दो साल पहले लाई गई उदय योजना जैसे विशेष मामलों में ही इसके उल्लंघन की इजाजत देता है।
इस तरह चुनाव-पूर्व वित्तीय जमा के बड़े हिस्से को किनारे रखकर सरकारों के राजकोषीय पथ से फिसलने की आशंका के उलट केंद्र एवं राज्य सरकारों की सामूहिक उधारी इस साल परिवारों की वित्तीय जमा का करीब आधा ही रहने की संभावना है। भले ही यह पूर्ण रूप में अब भी काफी अधिक है लेकिन यह इतिहास में सबसे कम है और इससे बॉन्ड प्रतिफल में गिरावट के भी आसार बने हैं। अर्थव्यवस्था में तेजी के साल 2005-06 से लेकर 2007-08 के दौरान कॉर्पोरेट टैक्स संग्रह के उफान पर होते समय यह अनुपात कम रहा था।
इस साल जीडीपी में केंद्र एवं राज्यों के करों का अनुपात रिकॉर्ड 18 फीसदी रहने का अनुमान है। एक दशक पहले की तुलना में व्यय का स्तर जहां बढ़ा है, वहीं इस साल राज्य सरकारों के व्यय में वृद्धि के 2006 के बाद सबसे कम रहने का अनुमान लगाया है। जीडीपी के अनुपात में केंद्र सरकार का व्यय भी इतिहास के निम्नतम स्तर पर पहुंचने की संभावना है। सामान्य सरकारी व्यय की वृद्धि में आई यह सुस्ती अर्थव्यवस्था के लिए एक सार्थक पहलू हो सकती है।
अगर घाटे के साथ ‘संख्या’ की समस्या नहीं है तो फिर क्या सरकारी व्यय की प्रकृति में ‘गुणवत्ता’ की समस्या है? इस पैमाने पर अघोषित व्यय न केवल अनावश्यक है बल्कि महंगाई बढ़ाने का कारक भी है। जहां कुछ राज्य चुनावों के पहले अपव्ययी होने का लोभ छोड़ नहीं पा रहे हैं, वहीं सम्मिलित रूप से देखें तो कोई खास विचलन नहीं होने वाला है। वर्ष 2018-19 के लिए राज्यों के बजट में वृद्धिमान व्यय को अलग करना कुल व्यय में हुए विभाजन की ही तरह है। हालांकि किसान कर्ज माफी और कर्मचारियों के वेतन पुनरीक्षण जैसे जोखिम खासे अहम हैं। किसान कर्ज माफी में 350 अरब रुपये व्यय होने का अनुमान है जो कुल व्यय का करीब एक फीसदी ही होगा। वहीं कर्मचारियों के वेतन पुनरीक्षण के मामले में ऐसा लगता है कि तीन वर्षों में राज्यों पर वेतन एवं पेंशन बिलों का बोझ तीन वर्षों की अनुपालना अवधि में केवल 58 फीसदी ही बढ़ेगा जबकि छठे वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करने से 93 फीसदी बोझ बढ़ा था। अभी तक केवल छह राज्यों ने ही सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू नहीं की हैं जिनमें से कुल वेतन बिल में 14 फीसदी अंशदान करने वाले केरल, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश वेतन वृद्धि के लिए 10 साल की अवधि का अनुसरण नहीं करते हैं।
हालांकि पेंशन मद में हुई अनवरत बढ़ोतरी परेशानी पैदा करने वाली है। यह पहले ही कुल व्यय का 10 फीसदी हो चुका है और इस साल इसके 12 फीसदी हो जाने की संभावना है। पेंशन व्यय पहले ही वेतन मद के 40 फीसदी से अधिक हो चुका है। उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में तो पेंशन बिल वेतन व्यय का 70-80 फीसदी हो चुका है। इस बिल में बढ़ोतरी की स्थायी प्रवृत्ति चिंता पैदा करती है और इसमें ठहराव नहीं आने से सरकारों के लिए भविष्य में पेंशन बोझ बढ़ सकता है।
वेतन आयोग की अनुशंसाओं का क्रियान्वयन होने के बाद दोपहिया एवं कार जैसे विवेकसंगत उत्पादों की खरीद और उपभोग में लाए जा रहे उत्पादों के उन्नयन की मांग में सशक्त वृद्धि की प्रवृत्ति ऐतिहासिक रूप से देखी गई है। गत वर्ष वेतन एवं पेंशन व्यय में 1.6 लाख करोड़ रुपये की वृद्धि के बाद इन वस्तुओं की मांग में आश्चर्यजनक तेजी देखी गई। वर्ष 2018-19 में इस व्यय में 1.2 लाख करोड़ रुपये की वृद्धि होने का अनुमान है। इस परिप्रेक्ष्य में यह देखना दिलचस्प होगा कि इन वस्तुओं की मांग में कितनी वृद्धि होती है।
राज्य सरकारों का पूंजीगत व्यय व्यापक रूप से खर्च का अधिक उत्पादक स्वरूप माना जाता है। हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि इसमें लीकेज की पर्याप्त गुंजाइश होती है और चुनावी साल के खर्च को संदेह की नजर से देखते हैं। राज्यों का पूंजीगत व्यय इस साल 13 फीसदी बढक़र 6 लाख करोड़ रुपये होने का अनुमान है जो केंद्र के पूंजीगत व्यय से 90 फीसदी अधिक है। अगर रक्षा क्षेत्र के पूंजीगत व्यय को केंद्रीय बजट से अलग करते हैं तो राज्यों का पूंजीगत खर्च केंद्र के व्यय से 2.7 गुना अधिक हो जाएगा। वर्तमान में सडक़ परियोजनाओं और सिंचाई पर राज्यों का सम्मिलित बजट खर्च एक लाख करोड़ रुपये से भी अधिक है। यह बजट से इतर सार्थक खर्च के अलावा है। मसलन, लगभग सभी मेट्रो रेल, एक्सप्रेसवे और पेयजल परियोजनाओं को फंड गैर-बजट स्रोत से ही मिल रहा है। इसके पहले, राज्यों की परियोजनाएं बड़ी निर्माण कंपनियों के लिए काफी छोटी हुआ करती थीं लेकिन आज उनके ऑर्डर बुक में राज्यों का हिस्सा आधे से भी अधिक है।
ये तमाम तथ्य रोचक होने के साथ ही राज्यों के बीच विभिन्नता को देखने का लुभावना निहितार्थ भी पेश करते हैं। पिछले कुछ वर्षों में राज्यों के बजट को अहमियत देने की प्रवृत्ति बढ़ी है लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था की सामूहिक समझ विकसित करने की जरूरत है।
(लेखक क्रेडिट सुइस के भारतीय रणनीतिकार एवं अर्थशास्त्री हैं)
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