‘ज्यादा नहीं चलेगा अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक गतिरोध’ | अद्वैत राव पालेपू / August 06, 2018 | | | | |
विश्व बैंक के पूर्व मुख्य अर्थशास्त्री कौशिक बसु का मानना है कि इस समय चल रहा आर्थिक गतिरोध जल्द दूर हो जाएगा। अगर इसे लेकर युद्ध की स्थिति आती है तो वैश्विक आर्थिक मंदी आ सकती है। अद्वैत राव पालेपू के साथ बातचीत के संपादित अंश:
वैश्विक व्यापार युद्घ और मुद्रा युद्घ को लेकर आप क्या सोचते हैं?
अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य चिंताजनक बनी हुई है, लेकिन मैं मानता हूं कि यह गतिरोध लंबा नहीं चलेगा। यदि पूर्ण रूप से आयात शुल्क को लेकर युद्घ की स्थिति बनती है तो वैश्विक आर्थिक मंदी की स्थिति आ जाएगी और अमेरिका की वृद्घि दर चीन से कम रह जाएगी। इस मंदी का कुछ असर भारत पर भी होगा। अमेरिका ने जिस तरह से कनाडा, यूरोप और मैक्सिको के साथ व्यापार को लेकर शत्रुता मोल ली है, इससे चीन इन देशों के करीब आएगा और यह दीर्घावधि में चीन को बोनस देने जैसा होगा।
क्या हम रुपये पर पडऩे वाले वैश्विक मुद्रा युद्घ के प्रभाव से निपटने के लिए तैयार हैं?
मुद्रा के मूल्य में थोड़ी गिरावट आने भारत बेहतर प्रदर्शन करेगा। आदर्श रूप में, आप उसे भारतीय नीति निर्माताओं के प्रबंधन के तहत पाना चाहेंगे न कि एक उप उत्पाद के तौर पर। लंबे समय से रुपया मजबूत बना हुआ था केवल पिछले कुछ महीनों के दौरान इसमें गिरावट देखी जा रही है। यदि भारतीय रुपये के मूल्य में मामूली गिरावट होती है तो यह देश के लिए अच्छा होगा। आदर्श तौर पर हम चाहेंगे कि भारतीय रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय इस मूल्य गिरावट का प्रबंधन करे।
अगले लोकसभा चुनाव को देखते हुए केंद्र और राज्य सरकारें लोकलुभावन घोषणाएं कर सकती हैं। क्या इससे वित्तीय घाटा और बढ़ेगा?
वित्तीय घाटा हर प्रकार से बजट में अनुमानित सीमा से अधिक होगा। चुनावी समय बहुत ही जोखिम भरा होता है। क्योंकि ऐसे समय में सरकार का ध्यान कुछ महीनों के लिए अच्छा दिखने पर होता है, लेकिन उसी दौरान आने वाले समय के लिए समस्याओं का अंबार लग रहा होता है। लेकिन मैं समझता हूं देश की जनता अब इस बात को समझने लगी है।
बढ़ते उपभोग और 2017-18 के लिए जीडीपी वृदि दर 6.7 प्रतिशत को देखते हुए अब नोटबंदी के प्रभाव को कैसे आंकते हैं?
किसी भी पैमाने पर देखें तो नोटबंदी एक खराब आर्थिक निर्णय था और देश को इसके लिए भारी कीमत चुकानी पड़ी है। मैं समझता हूं कि यदि वह फैसल नहीं लिया जाता तो आज भारत की जीडीपी वृद्घि दर और भी अधिक होती। नोटबंदी के दो वर्ष बाद आज सभी सूचक बता रहे हैं कि वृद्घि दर एक बार फिर से लडख़ड़ाने लगी है। सबसे बुरी स्थिति अनौचारिक क्षेत्र की है और किसान की परेशानी जारी है।
सरकारें बढ़ती आमदनी और आर्थिक गैर-बराबरी को गंभीरता से क्यों नहीं लेती है?
भारत में भी हम देखते हैं कि वृद्घि दर का लाभ 1 प्रतिशत में से शीर्ष 1 प्रतिशत लोगों के पास ही जा रहा है। 1990 से यह स्थिति लगातार बिगड़ती जा रही है जिसका अर्थ है देश की कुल आबादी में शीर्ष 1 प्रतिशत लोगों की संपत्ति में लगातार इजाफा हो रहा है। यदि यही स्थिति आगे जारी रही थी वह दिन दूर नहीं जब समाज अराजक हो जाएगा।
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