रक्षा उत्पादन के स्वदेशीकरण की कोशिश होती रही नाकाम
अजय शुक्ला / August 05, 2018
रक्षा मंत्रालय का ‘मेक इन इंडिया’ का पसंदीदा मंत्र रक्षा तैयारी के स्वदेशीकरण में हमारी नाकामी को छिपाने में असफल रहा है। स्टॉकहोम अंतरराष्ट्रीय शांति शोध संस्थान (सिपरी) ने कहा है कि 2007 से लेकर 2016 के बीच भारत के शस्त्र आयात में 43 फीसदी वृद्धि हुई है। भारत की सैन्य जरूरतों का 60-65 फीसदी हिस्सा आयात से ही पूरा होता है। सवाल है कि लगातार उन्नत हो रहे अंतरिक्ष कार्यक्रम, विश्वस्तरीय सूचना प्रौद्योगिकी उद्योग और अग्रणी वाहन कलपुर्जा उद्योग होते हुए भी एक देश स्वदेशी स्तर पर रक्षा उद्योग के निर्माण में क्यों नाकाम हुआ है?
वर्ष 2004 में संप्रग सरकार ने विजय केलकर को रक्षा क्षेत्र में स्वदेशीकरण के लिए रणनीति बनाने का दायित्व सौंपा था। केलकर समिति की रिपोर्ट में भारतीय हथियारों और उपकरणों के निर्माण का रोडमैप पेश किया गया था। इसमें राष्ट्रीय सैन्य-औद्योगिक परिसर को प्रोत्साहन देने की बात भी कही गई थी। रक्षा खरीद प्रक्रिया (डीपीपी) 2006 में पहली बार पेश ‘मेक’ प्रक्रिया में देश के भीतर विमान, टैंक और संचार ग्रिड जैसे जटिल रक्षा उत्पादों की संकल्पना, डिजाइन, विकास और उत्पादन का जिक्र था। इसमें विकास एजेंसी (डीए) के तौर पर किसी भारतीय कंपनी या कंसोर्टियम को चुनने की बात भी कही गई थी जिसमें सरकार को विकास में लगने वाली 80 फीसदी लागत की भरपाई करनी थी। विदेशी कंपनियों को भी तकनीकी साझेदार के तौर पर इस प्रक्रिया में जोड़ा जा सकता है लेकिन डीए ही मुख्य इंटीग्रेटर रहेगा और उसी को रक्षा विकास के लिए जिम्मेदार माना जाएगा। इनके जरिये भारत में ही अत्याधुनिक रक्षा उपकरण और हथियार विकसित करने की सोच थी।
रक्षा उद्योग रत्न या रक्षा उद्योग चैंपियन का चयन मेक प्रक्रिया के केंद्र में था। तकनीकी रूप से सक्षम और वित्तीय रूप से सुदृढ़ निजी कंपनियां इन परियोजनाओं के लिए बोली लगातीं। जहां तकनीकी फासले ने डीए कंपनियों को सहयोगी प्रणालियां आयात करने से रोका, वहीं स्वदेशी स्तर पर छोटी एवं मझोली इकाइयों के जरिये तकनीकी विकास को बढ़ावा देना था। छोटे स्तर पर रक्षा उत्पादन के विकास के लिए एक तकनीकी विकास कोष का गठन किया गया और वर्ष 2008 में उसे 100 करोड़ रुपये आवंटित भी किए गए। इससे एमएसएमई को पांच करोड़ रुपये तक का सहायता अनुदान देना संभव हो सका। मेक प्रक्रिया ने उन्नत रक्षा तकनीक के स्वदेशीकरण पर बल दिया। डीए का चयन न्यूनतम लागत के आधार पर नहीं बल्कि अधिक स्वदेशीकरण और अहम तकनीक पर नियंत्रण के आधार पर किया जाना था। इसके पीछे सोच यह थी कि रक्षा शोध एवं विकास के महंगा होने से ‘न्यूनतम लागत’ का मापदंड स्वदेशीकरण को नुकसान पहुंचाता। इन परियोजनाओं को थल सेना, नौसेना या वायु सेना के बजट से फंड भी नहीं किया जाना था। इसकी जगह डीपीपी 2011 ने एक अलग बजट मद का प्रावधान किया जिसकी बागडोर रक्षा मंत्रालय के अधिग्रहण प्रकोष्ठ को सौंपी गई।
मेक प्रक्रिया कई मायनों में अमेरिका के रक्षा उन्नत शोध परियोजना एजेंसी (डारपा) के मॉडल पर आधारित है जो राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए बेहद उन्नत तकनीक की विकास परियोजनाओं को फंड मुहैया कराता है। अमेरिका में यह व्यवस्था काफी सफल रही है। इसके उलट मेक प्रक्रिया नाकाम हो चुकी है। सार्वजनिक रक्षा उपक्रमों के मजदूर संगठनों के दबाव में आकर संप्रग सरकार ने रक्षा उद्योग रत्न का चयन ही नहीं किया। इसके चलते डीए का चयन भी मुश्किल हो गया। बाद की सरकारों ने भी मेक अभियान के लिए बहुत कम राशि आवंटित की। वर्ष 2010-11 के बाद तीन वर्षों में शून्य आवंटन किया गया और केवल दो बार ही 100 करोड़ रुपये से अधिक राशि दी गई। तकनीक विकास कोष भी दो साल बाद खत्म हो गया था। हालांकि 2015-16 में इसे दोबारा बनाया गया। बहरहाल मेक प्रक्रिया में मामूली कामयाबी के बाद सरकार ने डीपीपी 2011 में रक्षा खरीद एवं निर्माण की नई श्रेणी शुरू की। इसने लाइसेंस-आधारित रक्षा उत्पादन की स्थिति पैदा की जिसमें एक विदेशी विक्रेता भारतीय साझेदार के विनिर्माण के लिए प्लेटफॉर्म मुहैया कराता है। इससे स्वदेशी विकास और सिस्टम समावेशन होने से विदेशी भागीदार पर लगाम भी रहती है। इसमें 30 फीसदी कार्य स्वदेशी स्तर पर करना अनिवार्य है लेकिन भारत को सौंपी जाने वाली तकनीक के बारे में फैसला बाहरी विक्रेता ही करेगा। साफ है कि इससे सीमित एवं निम्न-स्तरीय स्वदेशीकरण ही हो पाएगा।
मौजूदा सरकार की रणनीतिक भागीदार पहल के बारे में भी यही कहा जा सकता है। इसमें भारतीय रक्षा कंपनियों को विदेशी हथियार विक्रेता के साथ साझेदारी कर भारत में रक्षा उपकरण बनाना है। रणनीतिक भागीदार का चयन ‘एक बार और एक उत्पाद’ के आधार पर होगा जिससे रणनीतिक भागीदारी की संकल्पना ही खत्म हो जाती है। यह प्रावधान इसे खरीद एवं निर्माण मॉडल की तरह बना देता है। रक्षा मंत्रालय भारत को सौंपी जाने वाली तकनीक के बारे में निर्देश दे सकता है लेकिन लागत को 80 फीसदी भारांक दिए जाने से तकनीक का पहलू गौण होने की आशंका है। फिलहाल खरीद की प्रक्रिया से गुजर रहे अधिकांश बड़े प्रोजेक्ट रणनीतिक भागीदार श्रेणी में रखे गए हैं। छह पनडुब्बियों के लिए प्रोजेक्ट 75-आई, 110 लड़ाकू विमानों की खरीद और नौसेना के हेलीकॉप्टरों की खरीद शामिल है। सरकार इस नीति के अंतिम प्रारूप पर अभी काम कर रही है। इस बीच, तीन ‘मेक’ प्रोजेक्ट- टैक्टिकल कम्युनिकेशंस सिस्टम, बैटलफील्ड मैनेजमेंट सिस्टम और फ्यूचर इन्फैंट्री कॉम्बैट व्हीकल अनिश्चितता के दौर से गुजर रहे हैं। रक्षा मंत्रालय ने संभावित डीए के बीच तगड़ी प्रतिस्पद्र्धा को देखते हुए पिछले महीने विकास एजेंसी के चयन से ही अपने हाथ पीछे खींच लिए।
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