नायकों की पहचान और पूजा के तरीके का भ्रम | टीसीए श्रीनिवास-राघवन / July 23, 2018 | | | | |
इस महीने की शुरुआत में मैं पुर्तगाल गया था। करीब 35 साल पहले ‘हेनरी द नेविगेटर’ का नाम सुनने के बाद से ही मैं वहां जाना चाहता था। हेनरी ही वह शख्स थे जिन्होंने वर्ष 1425 से लेकर 1450 के दौरान अटलांटिक महासागर की लहरों पर सवारी की थी। पुर्तगाल मुझे अपेक्षाओं से भी हजार गुना अधिक आकर्षक लगा। यह वास्तव में एक बेहतरीन देश है लेकिन उसकी तरफ भारतीय पर्यटकों का ध्यान उतना केंद्रित नहीं हुआ है। वैसे मेरा यह लेख पर्यटन के बारे में नहीं है। कोई देश अपने इतिहास और अपने नायकों के साथ किस तरह का बरताव करता है, यह लेख उसके बारे में है। भारतीयों के नजरिये से अगर पुर्तगाल और इंगलैंड की तुलना करें तो एकदम उलट स्थिति है।
पुर्तगालियों ने भले ही भारत के एक अपेक्षाकृत छोटे हिस्से पर शासन किया था लेकिन उनका कार्यकाल 450 वर्षों का रहा था जबकि इंगलैंड का भारत के बड़े हिस्से पर रहा शासन 190 साल का ही था। खूबसूरत गोवा पर पुर्तगाल का 1510 से लेकर 1962 तक शासन रहा था। भारत पहुंचने वाले पहले पुर्तगाली वास्को डि गामा को आज भुलाया जा चुका है। समंदर पर साहस की नई इबारत लिखने वाले बार्तोलोमियो डियाज और पेड्रो केब्राल को भी पुर्तगाल ने लगभग बिसरा दिया है। वास्को डि गामा के अवशेषों को कोच्चि से हटाकर लिस्बन लाया गया है। वास्को डि गामा ने जिस जगह से भारत के लिए अपना सफर शुरू किया था, वहां से महज आधे किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक चर्च में उन्हें दफनाया गया है। आज बेलेम नाम की यह जगह वास्को डि गामा से अधिक पेस्ट्री के लिए अधिक मशहूर है। वास्को डि गामा और फर्डिनैंड मैगलेन के बगैर पुर्तगाल कभी भी एक समृद्ध समुद्री एवं औपनिवेशिक ताकत नहीं बन पाता। वहीं इंगलैंड का परिदृश्य एकदम विपरीत है। मैं इस देश को यूनाइटेड किंगडम के बजाय इंगलैंड कहना ही पसंद करता हूं क्योंकि अंग्रेज जंगली रहे हैं। इन दोनों देशों में सबसे बड़ा अंतर अपने नायकों एवं गिरजाघरों के साथ किए जाने वाले बरताव का है।
पुर्तगाल में लोग अपने पूजास्थलों का इस्तेमाल अपने नायकों एवं युद्धों के महिमामंडन के लिए नहीं करते हैं। वहीं इंगलैंड में ठीक यही होता है और उन्हें इस बात से भी कोई फर्क नहीं पड़ता है कि उस जंग या नायक का योगदान कितना कम क्यों न हो? पुर्तगाली गिरजाघरों के भीतर युद्धों के विवरण देखने को नहीं मिलते हैं जबकि इंगलैंड के गिरजाघरों में सबसे पहले इसी पर नजर जाती है। पुर्तगाल युद्ध को महिमामंडित नहीं करता है लेकिन इंगलैंड ऐसा करता है।
ऐसे में इंगलैंड ने भले ही स्कूलों में अपने शर्मनाक औपनिवेशिक इतिहास को पढ़ाना बंद कर दिया है लेकिन वहां के गिरजाघर अब भी लोगों को यह अहसास दिलाते रहते हैं कि अपनी तमाम असाधारण कलात्मक, राजनीतिक, दार्शनिक और वैज्ञानिक प्रगति के बावजूद इंगलैंड एक गुंडा था और दिल से अब भी वही है। उनके फुटबॉल प्रशंसकों का उन्मादी एवं अशिष्ट बरताव इसकी मिसाल हैं। र्तगाल में आपको चारों तरफ युद्ध नायकों की प्रतिमाएं देखने को नहीं मिलती हैं। ऐसा तब है जब 1500 से लेकर 1650 के दौरान पुर्तगाल समंदर की लहरों पर राज करने वाला इकलौता देश था और उसके कब्जे में ब्राजील और अंगोला जैसे उपनिवेश भी रहे हैं। वहीं इंगलैंड में चारों तरफ युद्ध नायकों की प्रतिमाएं नजर आती हैं।
साफ नजर आने वाले इस फर्क की वजह शायद यह है कि पुर्तगाल ने उपनिवेशीकरण को ईश्वर के नाम पर अंजाम दिया था जबकि इंगलैंड ने ऐसा कारोबार के नाम पर किया। अंग्रेजों के लिए भगवान तो बाद में और अनमने ढंग से आए और हमें भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के तौर पर बेतुकी चीज दे गए। मैंने इन सबके बारे में नहीं लिखा होता लेकिन भारत में हमलोग फिलहाल न केवल अपने नायकों के साथ बरताव के तरीके को लेकर काफी उद्विग्न हैं बल्कि उनकी पहचान को लेकर भी क्रूर हैं। यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि इंसान के बनाए संविधान या सिंधु-गंगा के मैदानों के मिथकीय देवताओं में से किस भगवान को पूजा जा रहा है? हम बड़ी तेजी से कठोर एवं अशोभनीय तरीके से पक्ष लेने लगे हैं। पिछले चार वर्षों में चर्चाओं और विवाद का दायरा लगातार गालीगलौज से भरपूर एवं निराधार हुआ है।
कांग्रेस और उसकी तरह सोच रखने वाले तमाम दल संविधान की पूजा करने का दावा करते हैं। वहीं भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने शुरुआत में भले ही भगवान को तवज्जो नहीं दी थी लेकिन आज किसी और के लिए गुंजाइश ही नहीं है। वर्ष 2019 में भारत के लोग यह फैसला करेंगे कि किस नायक को वे पसंद करते हैं, भगवान के या संविधान के? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद को दोनों ही क्षेत्रों के नायक के तौर पर पेश कर रहे हैं लेकिन इसमें खतरा यह है कि कोई भी पक्ष संतुष्ट न हो।
मेरे हिसाब से इस समस्या का समाधान यह है कि 1947 के पहले जो कुछ भी हुआ उसे भूल जाइए क्योंकि अब उन बातों का कोई मतलब नहीं है। लिहाजा 1947 के बाद के घटनाक्रम पर गौर कीजिए। इस दौरान के छह पुरुषों एवं महिलाओं को राष्ट्रीय नायकों के तौर पर चुनिए। हालांकि महात्मा गांधी के पहले से ही स्थायी उम्मीदवार होने से हमें केवल पांच नायकों का ही चयन करना है। मेरी पसंद के नायक नेहरू, पटेल, होमी भाभा, एच आर खन्ना और आर के लक्ष्मण हैं। अब मैं आप लोगों पर छोड़ता हूं कि इस पसंद की वजह तलाशें। अगर आप इसमें कामयाब रहते हैं तो आखिरकार आप न केवल यह समझ पाएंगे कि नायकत्व क्या है और नायक किस तरह बने हैं बल्कि भारत के राजनीतिक, वैज्ञानिक, संवैधानिक एवं सामाजिक इतिहास को भी बखूबी जान सकेंगे।
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