आर्थिक संकट से निकलने में क्या कामयाब रही है दुनिया? | मिहिर शर्मा / July 17, 2018 | | | | |
कुछ हफ्ते बाद वैश्विक आर्थिक संकट के दस साल पूरे हो जाएंगे। दस साल पहले इन दिनों तक यह स्पष्ट हो चुका था कि विश्व अर्थव्यवस्था या कम-से-कम वॉल स्ट्रीट और लंदन की वित्तीय स्थिति खतरनाक स्थिति में है। समझदार लोगों ने चिंताजनक दांव लगाने शुरू कर दिए जबकि दु:साहसी लोग इस गिरावट में भी कमाई के बारे में सोच रहे थे।
उस सितंबर में लीमन ब्रदर्स धराशायी हो गया और एआईजी भी उसी राह पर था। मेरा अनुमान था कि अगर एआईजी का भी पतन होता है तो व्यवस्थागत आघात इतना तीव्र होगा कि वित्तीय प्रणाली में व्यापक बदलाव लाने लाजिमी हो जाएंगे।
लेकिन अमेरिकी सरकार के हरकत में आ जाने से एआईजी को बचा लिया गया। हालांकि उस संकट ने मुद्रा बाजार को सुन्न कर दिया, कर्ज संकट भी पैदा हो गया लेकिन बदतर हालत को बचा लिया गया। उसके बाद लोगों को यह लगता रहा कि उन्होंने एक गोली को चकमा दे दिया है। लेकिन क्या वाकई में हम ऐसा कर पाए हैं?
कई अर्थव्यवस्थाएं वृद्धि की राह पर लौट आई हैं लेकिन उन्हें इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी है। कई देशों में धीमी प्रगति का दौर लंबा चला है। भारत जैसे कुछ देशों में राजकोषीय प्रोत्साहन का दौर लंबे समय तक जारी रहा।
वर्ष 2008-09 के दौरान भारत सरकार की फिजूलखर्ची ने हालात को इस कदर मुश्किल बना दिया कि 2012-13 के अधिक गंभीर हालात में उसे जूझना पड़ा। वहीं ब्रिटेन जैसे देशों में मितव्ययिता के चक्कर में स्थानीय सरकार के खर्चों में कटौती भी हुई।
राजकोषीय नीति के जरिये समुचित संसाधन जुटा पाने में सरकारों की नाकामी ने केंद्रीय बैंकों को मुक्तिदाता की भूमिका में ला खड़ा किया। लेकिन आलोचकों का यह कहना सही है कि इसके गहरे निहितार्थों पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया। पूंजी के मालिकों को उत्पादन के अन्य कारकों की कीमत पर पुरस्कृत किया गया था।
नीतिगत प्रतिक्रियाओं के सभी तीन स्वरूपों- हद से ज्यादा प्रोत्साहन, मितव्ययिता और अत्यधिक शिथिल मौद्रिक नीति के राजनीतिक परिणाम देखे गए। भारत में अलाभकारी परियोजनाओं को बनाए रखने के लिए अधिक उधारी का रास्ता अपनाया गया।
अरविंद सुब्रमण्यन के मुताबिक इसकी वजह से न सिर्फ 'कलंकित पूंजी' का सृजन हुआ बल्कि मौजूदा बैंकिंग संकट भी इसकी उपज है। वैश्विक संकट के बाद कंपनियों ने हालात संभालने के लिए सरकार से कदम उठाने की अपेक्षा की।
अर्थव्यवस्था के कई क्षेत्र कम अप्रत्यक्ष करों के चलते बढ़ते रहे और अब वे वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) को लेकर शिकायत कर रहे हैं।
खर्चों में कटौती के चलते गहरी चोट खाने वाले देशों में आर्थिक संगठन की समस्यापरक धारणा का उभार देखने को मिल रहा है। वामपंथी एवं दक्षिणपंथी रुझान वाले लोकप्रियतावादी एक दशक पहले की तुलना में आज मतदाताओं को अधिक तर्कसंगत लग रहे हैं।
2008 की गॉर्डन ब्राउन की लेबर पार्टी आज जेरमी कॉर्बिन की लेबर पार्टी से अलग नजर आती है, राष्ट्रीयकरण और राज्यवाद एक बार फिर एजेंडा में आ गया है।
अमेरिका के मामले में बैंकों को संकट से उबारने के लिए दिया गया बेलआउट पैकेज और फेडरल रिजर्व की नीतियों के मेल ने वॉल स्ट्रीट की ताकत और असर को लेकर गहरे संदेह पैदा किए हैं।
डॉनल्ड ट्रंप के भूमंडलीकरण-विरोधी बयानों को इसी परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है। मुझे नहीं लगता है कि अमेरिका ने वित्तीय व्यवस्था को बचाने के लिए जो त्वरित कदम उठाए थे वे समय बीतने के बाद भी खरे उतरेंगे।
दुर्भाग्य से यह धारणा जोर पकडऩे लगी है कि कॉर्पोरेट एवं वित्तीय जगत के खराब फैसलों का बोझ सरकार उठा लेगी। अमेरिका जैसे बाजार-केंद्रित अर्थव्यवस्था के लिए तो यह काफी खतरनाक स्थिति है।
भूमंडलीकरण के खिलाफ आवाजों को मिल रही लोकप्रियता के खतरनाक प्रतिक्रियावादी सामाजिक घटक हैं। संकट को लेकर दोषपूर्ण प्रतिक्रिया ने 'हमारे बनाम उनके' की सोच पैदा की है जिसमें बैंकर, विशेषज्ञ, उद्यमी, प्रवासी और विदेशी, सभी खलनायक हैं। आर्थिक संकट उतनी बड़ी समस्या नहीं थी जितनी कि उससे निपटने के लिए उठाए गए कदम।
हम अब भी वित्तीय संकट की स्थिति में हद से अधिक प्रतिक्रिया के दौर में रह रहे हैं। मसलन, आर्थिक संकट के बाद लाए गए बेसल-3 मानकों और उसमें किए गए सुधारों से अंतरराष्ट्रीय बैंकिंग पर दबाव देखे गए।
पूंजी जरूरत में तीव्र वृद्धि और बैंकों के खुलासे पर लगी पाबंदियों ने कर्ज आवंटन को सीमित कर दिया है। बेसल मानकों से व्यवस्थागत मजबूती लाने में कुछ मदद मिल सकती है लेकिन इसकी लागत गैर-आनुपातिक है और ठीक से उसकी गणना भी नहीं होती है।
इस बीच खुद वित्त में भी अपेक्षित सुधार नहीं किए गए हैं। वित्तीय व्यवस्था असाधारण मौद्रिक नीतियों के बल पर बढ़ती गई है। बैंकों की तरफ से ढांचागत क्षेत्र को दिया जाने वाला अंतरराष्ट्रीय कर्ज बुरी तरह प्रभावित हुआ है जो भारत जैसे उभरते बाजारों को गहरी चोट पहुंचा रहा है।
हम अपने ही संसाधनों पर निर्भर रह गए हैं। इससे सरकार ढांचागत विकास और सामाजिक विकास के लक्ष्यों को एक साथ साधने के लिए पर्याप्त राजस्व नहीं जुटा सकती है। जब वे उधारी के लिए कर्ज बाजार का रुख करते हैं तो कॉर्पोरेट बॉन्ड स्पद्र्धा में टिक भी नहीं पाते हैं। ऐसा होने से बैंकिंग उधारी से वंचित कंपनियां बॉन्ड बाजार में भी जाने से संकोच करती हैं।
दक्षिणी गोलार्द्ध में ढांचागत विकास की कमी दीर्घावधि वृद्धि को भी प्रभावित करेगी। कम लागत और निम्न गुणवत्ता वाला आधारभूत ढांचा जलवायु परिवर्तन के खिलाफ संघर्ष को भी कमजोर करेगा।
आर्थिक संकट के बाद बहुत लोगों ने वित्त मुहैया कराने की मांग की थी और सरकारी ताकत के बूते इसे लागू भी कराया। लेकिन वित्त उपलब्ध होते हुए भी इसने जोखिम लेना मुनासिब नहीं समझा। नतीजतन 2008 की तुलना में आज दुनिया संभवत: अधिक बुरी स्थिति में है।
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