वैश्विक व्यापार वार्ताओं में उद्योग के साथ रोजगार पर भी हो चर्चा | सुनीता नारायण / July 16, 2018 | | | | |
एक वैश्विक व्यापार युद्ध शुरू हो गया है। अमेरिका ने पहला हमला बोला है, जिसका जवाब यूरोपीय संघ, कनाडा, चीन और यहां तक कि भारत भी दे रहे हैं। जैसे को तैसे प्रतिक्रिया में कुछ निश्चित आयातित वस्तुओं पर शुल्क बढ़ा दिए गए हैं। विश्लेषक यह मानते हुए इसे सीमित युद्ध बताते हैं कि डॉनल्ड ट्रंप 'मुक्त-व्यापार' के पैरोकार हैं। लेकिन यह नजरिया इस तथ्य को नकार देता है कि विश्व में एक अहम बदलाव हो रहा है। यह वैश्विक अगुआ बनने का युद्ध है, यह अमेरिका और चीन के बीच का मुकाबला है।
चीन विश्व में अपनी ताकत बढ़ा रहा है। राष्ट्रपति शी चिनफिंग की वन बेल्ट वन रोड (ओबीओआर) उसके बढ़ते वैश्विक प्रभाव का स्पष्ट संकेत है। चीन ने भविष्य की तकनीक - आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस में निवेश करने के लिए जुलाई, 2017 में महत्त्वाकांक्षी योजना शुरू की थी। इस बारे में बहुत से कयास लगाए जा रहे हैं कि कैसे चीन नई तकनीकों का अधिग्रहण कर रहा है और दुनियाभर में परिचालन कर रहीं पश्चिमी कंपनियों को मात दे रहा है।
पिछली शताब्दी में अमेरिका और साम्यवादी रूस समेत यूरोप का दबदबा रहा। मगर दुनियाभर में मुक्त व्यापार प्रणाली शुरू होने से चीन इतना ताकतवर बनकर उभरा है। महज 35 साल पहले यह पश्चिमी देशों से पीछे था। लेकिन इसके बाद जनवरी, 1995 में विश्व व्यापार संगठन वजूद में आया, जिससे चीन के व्यापार में भारी बढ़ोतरी हुई। उसने विश्व के विनिर्माण रोजगार हासिल कर लिए। भारत ने टेलीमार्केटिंग जैसी आउटसोर्सिंग सेवाएं देकर अपना मुकाम बनाया।
शब्दकोष में 'शांघाईड' और 'बैंगलोर्ड' जैसे शब्द आए क्योंकि नौकरियां (और प्रदूषण) दूसरे महाद्वीपों में चले गए। इस तरह वैश्वीकरण ने वैश्विक समृद्धि का एक नया युग करने का अपना उद्देश्य पूरा किया। लेकिन स्थितियां हमारी सोच के विपरीत रहीं।
इसके बजाय वैश्वीकरण ने विश्व को ज्यादा जटिल बना दिया है। 1990 के दशक में जब शुल्क एïवं व्यापार के सामान्य समझौते (गैट) को लेकर चर्चा अपने चरम पर थी, तब उत्तर और दक्षिण के बीच की खाई साफ दिखती थी। उस समय के विकसित विश्व ने व्यापार को खोलने की पुरजोर वकालत की। वे बाजार और 'पारदर्शी' व्यापार एवं बौद्धिक संपदा के नियमों के जरिये सुरक्षा चाहते थे।
उस समय का विकासशील विश्व इस बात से चिंतित था कि इस मुक्त व्यापार समझौते का उनकी नई एवं कमजोर औद्योगिक अर्थव्यवस्थाओं पर क्या असर पड़ेगा। विकासशील देश इस बात से भी चिंतित थे कि इन खुले व्यापार के नियमों का उनके किसानों पर क्या असर पड़ेगा, जिन्हें विकसित विश्व के मोटी सब्सिडी हासिल करने वाले किसानों से प्रतिस्पर्धा करनी होगी।
वर्ष 1999 में सिएटल में डब्ल्यूटीओ की मंत्रिस्तरीय बैठक में तनावपूर्व स्थिति रही। इस समय तक वैश्वीकरण की हकीकत सामने आ चुकी थी और इसलिए धनी देशों के नागरिकों ने श्रम अधिकारों के लिए विरोध-प्रदर्शन किया। उन्होंने अपने रोजगार की आउटसोर्सिंग और पर्यावरण को नुकसान की चिंताएं जताईं, लेकिन इन हिंसात्मक प्रदर्शनों को कुचल दिया गया। अगला एक दशक वित्तीय संकट में खराब हो गया। नए विजेताओं ने पुराने पराजितों को कहा कि 'सब कुछ ठीक है।'
आज ट्रंप सिएटल के उन वामपंथी प्रदर्शनकारियों की आवाज में आवाज मिला रहे हैं, जबकि भारत और चीन मुक्त व्यापार को बनाए रखने के दो पैरोकार बनकर उभरे हैं। असल में भारत और चीन इससे भी ज्यादा चाहते हैं। लेकिन फिर क्या चीजें इतनी आसान हैं। ये सब व्यवस्थाएं रोजगार के संकट को ध्यान में रखकर तैयार नहीं की गईं।
वैश्वीकरण के पहले चरण से श्रम का कुछ विस्थापन हुआ है और ट्रंप की यही शिकायत है। लेकिन हकीकत यह है कि वैश्वीकरण के इस पहले चरण का मतलब पुराने धनी (व्यापार और उपभोक्तावाद की दुनिया में मध्य वर्ग) और नए धनियों के बीच युद्ध है। यह इतना लंबा या खतरनाक नहीं रहा कि कृषि से जुड़ी बहुसंख्यक गरीब आबादी की जीविका के आधार को ही नष्ट कर दे, लेकिन ये स्थितियां धीरे-धीरे बनती जा रही हैं। इसी क्षेत्र पर वैश्वीकरण का असली असर महसूस किया जाएगा।
वैश्विक कृषि कारोबार विकृत और अत्यधिक विवादास्पद बना हुआ है। वर्ष 1994 का मुक्त व्यापार युद्ध कृषि को लेकर हुआ। उस समय आर्थर डंकेल प्रारूप समझौते को विकासशील देशों के किसान अपने कारोबार के लिए पक्षपाती और विनाशकारी मान रहे थे। आर्थर डंकेल प्रारूप समझौता गैट की अगुआई करने वाले ब्रिटिश नागरिक के नाम पर रखा गया।
वर्ष 2014 में बाली में डब्ल्यूटीओ की नौवीं मंत्रिस्तरीय बैठक में हुआ समझौता अकाल से निपटने के लिए सरकारों द्वारा खरीदे जाने वाले खाद्यान्न के स्टॉक और किसानों को मुहैया कराए जाने वाले कीमत समर्थन- न्यूनतम समर्थन मूल्य के विचार के खिलाफ है।
इस समय भारत सरकार पुरजोर यह कह रही है कि वह अपने किसानों के साथ खड़ी होगी।
अगर हम यह नहीं पहचानेंगे कि रोजगार असल संकट है तो हम अत्यधिक असंतुलित व्यापार प्रणाली को संतुलित नहीं कर पाएंगे। यह उचित समय है कि व्यापार युद्ध का वर्तमान चरण आजीविका के अवसरों की जरूरत पर हो। वैश्विक व्यापार की चर्चाओं में केवल उद्योग नहीं बल्कि रोजगार पर चर्चा होनी चाहिए। इसे वस्तुओं नहीं बल्कि श्रम को अहमियत देनी चाहिए। यह विश्व में असुरक्षा का अहम बिंदु है। ये व्यापार या वित्त नहीं है। यह सबसे ज्यादा नुकसान उठाने वालों- हम, लोग और पूरे ग्रह से जुड़ा है।
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