दुनिया की दो नामी-गिरामी रेटिंग एजेंसियों ने दवा कंपनी वॉकहार्ट की डेट रेटिंग को कम कर दिया है। इससे कंपनी की बुरी हालत सामने आ गई है। साथ ही, आने वाला वक्त में यह कंपनी के लिए मुसीबतों का नया पहाड़ खड़ा कर सकता है। कुछ दिनों से इस बात की चर्चा चल रही थी कि कंपनी अपने कर्जों को चुकाने के लिए अपनी संपत्तियों को बेच रही है। इसी वजह से रेटिंग एजेंसी क्रिसिल ने उसकी रेटिंग कम कर दी है। क्रिसिल का कहना है कि उसके कर्जे, उसकी इक्विटी से 3.75 गुना ज्यादा हो चुके हैं। उसके मुताबिक 31 दिसंबर, 2008 को उसका कर्ज 3,777 करोड़ रुपये के स्तर पर था। दूसरी तरफ, 31 दिसंबर, 2007 को कंपनी के ऊपर 2,190 करोड़ रुपये का कर्ज था। इतने कर्ज की वजह से कंपनी भारी बोझ के तले काम कर रही है। क्रिसिल का कहना है कि कंपनी के पास थ्रू सर्टिफिकेट्स (पीटीसी) की रेटिंग वॉकहार्ट के सिर पर मौजूद कर्ज के बोझ, कम कमाई और अगले दो सालों में मोटी रकम वापस करने की जिम्मेदारी की वजह से कम की गई है। इन पीटीसी को कंपनी के कर्ज के आधार पर बार्कले बैंक ने जारी किया था। वहीं एक दूसरी बड़ी रेटिंग एजेंसी, फिट्ज रेटिंग ने भी पिछले महीने कंपनी की रेटिंग को कम कर दिया। फिट्ज का कहना है कि छोटी अवधि के लिए कर्जों में इजाफे और विदेशी मुद्रा दरों में उतार-चढ़ाव की वजह से कंपनी का कर्ज करीब 900 करोड़ रुपये तक पहुंच चुका है। साथ ही, कंपनी के सामने मौजूद नकदी की समस्या ने भी इसमें अहम भूमिका निभाई है। कंपनी के सामने यह समस्या पैदा हुई है उसके अमेरिका के कारोबार में परिचालन पूंजी की बढ़ती जरूरतों और उसके 14 करोड़ डॉलर के फॉरेन करेंसी कंवर्टिबल बॉन्ड्स (एफसीसीबी) के भुगतान पर छाई अनिश्चितता की वजह से। कंपनी को इतनी बड़ी रकम का भुगतान सितंबर, 2009 तक करना है। कंपनी की कमाई का 64 फीसदी हिस्सा 2007 में अमेरिका और यूरोप से आया था। सूत्रों के मुताबिक वॉकहार्ट के प्रवर्तक खोराकीवाला परिवार ने 350 करोड़ रुपये जुटाने के वास्ते अपने 40 फीसदी शेयरों को वित्तीय संस्थानों के पास गिरवी रख दिया है। सूत्रों का कहना है कि इस पैसे का इस्तेमाल मुख्य रूप से कंपनी के अस्पताल चेन के विस्तार के लिए किया जाएगा। कंपनी के प्रवर्तक ने पिछले साल आईपीओ लाने की योजना बनाई थी, लेकिन शेयर बाजार के औंधे मुंह गिरने की वजह से उन्होंने इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया। पैसे जुटाने के लिए कंपनी ने यूरोप और अमेरिका में मौजूद अपनी कुछ संपत्तियों, औरंगाबाद में अपनी जमीन और कंज्यूमर हेल्थकेयर सेगमेंट के अपने कुछ उत्पादों को भी बेचने की योजना बनाई है। साथ ही, कंपनी का बांद्रा कुर्ला में स्थित पॉश दफ्तर भी पैसे जुटाने के लिए गिरवी रखा जा चुका है। हाल ही में कंपनी ने शेयरधारकों से 500 करोड़ रुपये प्रीफ्रेंश डिबेंचर जारी करने की इजाजत हासिल की थी, ताकि वह एफसीसीबी का भुगतान कर सके और अपनी दूसरी जरूरतों को पूरा कर सके। इनवेस्टमेंट बैंकरों और विश्लेषकों का कहना है कि अगर कंपनी विदेशों में मौजूद संपत्तियों को बेचने के लिए तैयार भी होती है, तो भी उसके खरीदार मिलना काफी मुश्किल होगा। वजह है, वैश्विक मंदी। उद्योग विश्लेषकों का कहना है कि ऊंची कीमतों पर किए गए अधिग्रहणों और विस्तार की आक्रामक कोशिशों का नतीजा कंपनी को अब भुगतना पड़ रहा है। पिछले दो सालों में कंपनी ने आयरलैंड की पाइनवुड लैबोरेट्रीज का 15 करोड़ डॉलर में, फ्रांस की नेगमा लैबोरेट्रीज का 26.5 करोड़ डॉलर में और अमेरिका की मॉरटॉन ग्रूव फार्मा का 3.8 करोड़ डॉलर में अधिग्रहण किया था। कंपनी को अपने बॉयोटेक उत्पादों के पंजीकरण और दर्जन भर दवाओं का लाइसेंस हासिल करने में मोटी पूंजी लगानी पड़ी। अगले दो सालों में कंपनी के सामने एक बड़ा संकट मौजूद है। उसे 2,372 करोड़ रुपये का कर्ज चुकाना है। 2009 में 1,324 करोड़ रुपये का और 2010 में 1,048 करोड़ रुपये का। हालांकि, उसके लिए कुछ राहत की बात यह है कि 31 दिसंबर, 2008 तक उसके पास 300 करोड़ रुपये की नकदी मौजूद थी। क्रिसिल का कहना है कि कंपनी बाकी की रकम अपने मुनाफा देने वाले ब्रांड या कारोबारों को बेचकर जुटा सकती है।
