दूसरी पीढ़ी की बेरुखी से सांसत में छोटी और मझोली दवा कंपनियां | पीबी जयकुमार / मुंबई February 23, 2009 | | | | |
चेन्नई के टी एस जयशंकर और उनकी पत्नी राजम अपने हेल्थकेयर कारोबार के भविष्य को लेकर चिंतित हैं। उनकी चिंता इस बात को लेकर है कि क्या उनकी बेटी श्वेता और उनके दामाद महेश भूपति (देश के मशहूर टेनिस खिलाड़ी) परिवार के जमे-जमाए कारोबार को संभालेंगे?
भारतीय फार्मास्युटिकल्स उद्योग परिसंघ (सीसीपीआई) के अध्यक्ष और भूपति के ससुर टी. एस. जयशंकर कहते हैं, 'वे हमसे कहीं अधिक सफल हैं। महेश हमारे कारोबार को शायद तब तक न संभाले, जब तक उनके लिए यह मजेदार पेशा न बन जाए।'
जयशंकर फिलहाल क्वेस्ट लाइफसाइंसेज का कामकाज देख रहे हैं तो मशहूर स्त्रीरोग विशेषज्ञ राजम, केमेक का संचालन कर रही हैं। वाकई में 'उत्तराधिकार' का प्रश्न कई दवा कंपनियों खासकर मध्यम और छोटी कंपनियों के लिए चिंता का सबब बन चुका है।
जयशंकर के मुताबिक, 'मैं समझता हूं कि एसएमई खंड में करीब 90 फीसदी दवा कंपनियों के पास उत्तराधिकार की पुख्ता योजना नहीं है। कई दवा कंपनियां तो इसलिए बिक जा रही हैं या उनका किसी कंपनी के साथ इसलिए विलय हो जा रहा है कि अगली पीढ़ी की रुचि इस क्षेत्र में नहीं है।'
केमेक ने भी अपना कुछ हिस्सा एक यूरोपीय कंपनी को बेच अपना आकार घटा लिया है। बहरहाल, 65 हजार करोड़ रुपये के फार्मास्युटिकल उद्योग की छोटी और मझोली दवा कंपनियों का भविष्य अंधेरे में दिखाई लग रहा है।
रैनबैक्सी को ही लें। देश की इस सबसे बड़ी दवा कंपनी का जापान की दाइची सांक्यो के हाथों बिक जाने से दूसरी पीढ़ी को लेकर जताई जा रही आशंकाएं लग रहा है सही साबित हो गई। बाजार भी इस पर पैनी निगाहें लगाए हुए है।
तभी तो पीरामल हेल्थकेयर की दूसरी पीढ़ी की इस कारोबार में रुचि के संकेत मिलते ही कंपनी के शेयरों में मजबूती देखी गई। एल्डर फार्मास्युटिकल्स के निदेशक और संस्थापक जगदीश सक्सेना के पुत्र आलोक सक्सेना की राय हालांकि अलग है। उनके अनुसार, 'मैं इस बात से सहमत नहीं हूं।'
भारत 1970 तक दवाओं के आयात पर ही निर्भर करता था। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने तब पेटेंट अधिनियम में संशोधन कर प्रक्रियागत पेटेंट को मान्य बना दिया। इसके बाद विदेशों में तैयार दवाओं की पद्धति का अनुसरण कर यहां दवाओं का निर्माण होने लगा।
इसके बाद गुजरात, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में कई दवा कंपनियां अस्तित्व में आईं। इनके संस्थापकों में से ज्यादातर फार्मासिस्ट, दवा कारोबारी या सेल्समैन थे, जिन्होंने मोटी तनख्वाह का लोभ छोड़ अपनी कंपनी खोल ली।
इस तरह, महज दो दशक में चुनिंदा दवा कंपनियों वाला दवा उद्योग 8 हजार कंपनियो का उद्योग हो गया है। इनमें से कई तो काफी बड़े कॉरपोरेट हाउस में तब्दील हो गए। अब पाया जा रहा है कि इन दवा मालिकों में से ज्यादातर के लड़के-लड़कियों का रुझान फार्मास्यूटिकल्स साइंस की बजाय मैनेजमेंट की ओर है।
जानकारों के अनुसार, इस प्रवृत्ति की वजह फार्मास्युटिकल्स कारोबार का काफी जटिल पर कम मुनाफा वाला होना है। वहीं मैनेजमेंट की पढ़ाई के बाद ग्लमैरस कॅरियर और ज्यादा मुनाफा वाले कारोबार की संभावनाएं होती हैं। एक प्रेक्षक के मुताबिक, मलविंदर मोहन सिंह की पृष्ठभूमि यदि उनके पिता परविंदर सिंह की तरह ही फार्मास्युटिकल्स की होती तो रैनबैक्सी नहीं बिकती।
कई दवा कंपनियों में यह ऐसी प्रवृत्ति नहीं दिखाई पड़ती। विदेशों में पढ़ी-लिखी इनकी दूसरी पीढ़ी कंपनी की कमान संभालने को तैयार है। इंडको रेमिडीज के सुरेश कारे हालांकि यह सवाल सुनकर हंस पड़ते हैं। वे कहते हैं कि न केवल अगली पीढ़ी बल्कि उसकी अगली पीढ़ी भी इस कारोबार में हाथ बंटाएगी और इसे नई ऊंचाइयों तक ले जाएगी।
वह कहते हैं कि न केवल उनकी बेटी कंपनी के बोर्ड में है बल्कि उनका आठ साल का बेटा मौजूदा आर्थिक संकट के बारे में बहुत कुछ बता सकता है। डॉ. रेड्डीज के चेयरमैन अंजी रेड्डी को ही लें।
इन्होंने कंपनी की कमान बेटे सतीश और दामाद जी वी प्रसाद को सौंप दी है। ल्यूपिन, सन फार्मा और वॉकहॉर्ट में भी दूसरी पीढ़ी कमर कस चुकी है।
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