विरासत एवं सम्मान के बरअक्स प्रधानमंत्रियों का मूल्यांकन | |
सम सामयिक | टीसीए श्रीनिवास-राघवन / 06 03, 2018 | | | | |
चार साल पहले नरेंद्र मोदी ने जब प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी तो उन्होंने देश से 10 वर्षों का समय मांगा था। उन्होंने कहा था कि वह देश की सूरत बदल देंगे। उनके कार्यकाल के चार साल पूरे हो चुके हैं, लिहाजा दूसरे कार्यकाल की उनकी मांग को परखने के लिए यह वक्त माकूल है। यह भी देखना होगा कि एक प्रधानमंत्री के तौर पर मोदी की विरासत क्या होगी? वैसे हरेक व्यक्ति इस बात से सहमत होगा कि मोदी ने पिछले चार वर्षों में देश को बदला जरूर है, अच्छे और बुरे दोनों तरह से। इस बीच सरकार अपनी उपलब्धियों का बखान करेगी। वहीं आलोचक यह गिनाते रहेंगे कि सरकार किन मोर्चों पर नाकाम रही है। इस पूरी कवायद में उस मूल सवाल का जवाब नदारद रहेगा कि मोदी की विरासत का आकलन कैसे किया जाएगा? असल सवाल यह है कि किसी भी प्रधानमंत्री की विरासत को किस तरह आंकते हैं?
काफी सोच-विचार के बाद मैं एक आसान परीक्षण की सलाह देता हूं। यह परीक्षण सम्मान से ताल्लुक रखता है। इसका मतलब है कि कोई भी पूर्व प्रधानमंत्री देशवासियों से कितना सम्मान हासिल करता है? असल में, यह पैमाना शेक्सपियर की प्रसिद्धï उक्ति पर आधारित है: 'इंसान के मरने के बाद भी उसके जीवन की बुराइयां मौजूद रहती हैं, उसकी अच्छाइयां तो अक्सर उसकी अस्थियों के साथ ही दफन हो जाती हैं।' मेरा मानना है कि किसी भी पूर्व प्रधानमंत्री को मिलने वाला सम्मान इससे तय होता है कि उन्होंने फैसले लेने में कितनी गड़बडिय़ां की थीं। अगर किसी प्रधानमंत्री ने कम गलतियां की होती हैं तो उसे देशवासियों का अधिक सम्मान हासिल होता है।
इस परीक्षण में शून्य से पांच के पैमाने पर अंक देने हैं और आर्थिक एवं सामाजिक नीतियों के लिए 50:50 का भारांक रखा गया है। इस परीक्षण को अधिक असरदार बनाने के लिए मैं एक और पहलू जोडऩा चाहूंगा। किसी प्रधानमंत्री ने अपने वरिष्ठ सहयोगियों की सलाह को नजरअंदाज कर कोई गलत फैसला तो नहीं किया था या गलत सलाहों को तवज्जो तो नहीं दी थी। या प्रधानमंत्री ने सलाह लेने से ही तो मना नहीं कर दिया। जगह की कमी होने से हम शून्य अंक पाने वाले पूर्व प्रधानमंत्रियों चरण सिंह, वी पी सिंह, देवेगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल का इस लेख में जिक्र नहीं करेंगे। हालांकि महज छह महीने प्रधानमंत्री रहे चंद्रशेखर इसके अपवाद हैं। वह अल्पकाल में भी काफी शानदार रहे। राजीव गांधी ने उनकी सरकार गिरा दी थी।
परीक्षण के नतीजे में जवाहरलाल नेहरू को 3.5 अंक मिलते हैं। देश के पहले प्रधानमंत्री के बारे में आरएसएस या भाजपा जो कुछ भी कहें, लेकिन लोग उन्हें काफी सम्मान से याद करते हैं। इसके बावजूद उन्हें पूरे पांच अंक नहीं मिले क्योंकि वह निर्णायक मौकों पर फैसले लेने में चूक गए थे। सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता भारत के बजाय चीन को दे देना, दूसरे लोगों के न चाहते हुए भी संविधान में अनुच्छेद 370 का प्रावधान करना, केरल में बनी पहली निर्वाचित साम्यवादी सरकार को 1959 में गिरा देना और 1962 में चीन के हाथों मिली हार जैसे कारण रहे हैं।
इंदिरा गांधी को महज 1.5 अंक मिले हैं। दरअसल उनके अधिकांश फैसले तात्कालिक लाभ पर आधारित होते थे, लिहाजा दोष से भरपूर होते थे। इन वजहों से इंदिरा बहुत कम सम्मान की हकदार हैं। उन्होंने भ्रष्टाचार को पोषित किया, आपातकाल लगाया, कांग्रेस को एक परिवार के हाथों संचालित होने वाली पार्टी बना दिया और पाकिस्तान को दो हिस्सों में बांटकर हमारी सुरक्षा चिंताएं बढ़ा दीं। मोरारजी देसाई को एक अंक मिलता है। प्रधानमंत्रियों को कभी भी मूत्रसेवन की वकालत नहीं करनी चाहिए, चाहे वह अपना मूत्र हो या गाय का। यह मोरारजी का बहुत ही गलत फैसला था।
राजीव गांधी को 2.5 अंक हासिल होते हैं। उनके चार बड़े फैसले गलत साबित हुए। उन्होंने ओटावियो क्वात्रोची के साथ पारिवारिक दोस्ती कायम रखी, श्रीलंका में शांतिसेना भेजी, 1986 में अयोध्या में मंदिर के ताले खुलवाए और 1989 में वहां पर शिलान्यास भी किया। पी वी नरसिंह राव 2.5 अंक के हकदार हैं। उन्होंने 1992 में अयोध्या में विवादित ढांचा गिराए जाने से रोकने के लिए कुछ नहीं किया था। लेकिन आर्थिक उदारीकरण लाने के चलते उन्हें 2.5 अंक मिलते हैं। अटल बिहारी वाजपेयी को पूरे पांच अंक मिलते हैं। उन्होंने अपने कार्यकाल में अहम फैसला लेने में कोई बड़ी गलती नहीं की थी। यही वजह है कि उन्हें पूरे अंक मिले हैं।
मनमोहन सिंह ने चार अंक जुटाए हैं। अपने मंत्रिमंडल के सहयोगियों पर काबू नहीं पाना उनकी अकेली बड़ी खामी रही। वह अपने कुछ फैसलों को लेकर दृढ़ नहीं रहे जबकि वह ऐसा कर सकते थे। सवाल उठता है कि मौजूदा प्रधानमंत्री मोदी इस परीक्षण में कहां टिकते हैं? अभी तक उन्होंने दो बड़ी गलतियां की हैं। पहली गलती आर्थिक है और नोटबंदी से जुड़ी है। दूसरी गलती राजनीतिक है जो आरएसएस के सामाजिक एजेंडे में उनकी रजामंदी से जुड़ी है। हालांकि नोटबंदी का असर तात्कालिक था और अब वह खत्म हो रहा है। लेकिन आरएसएस का सामाजिक एजेंडा राजीव की मंदिर नीति और राव की मस्जिद नीति की ही तरह बड़ी समस्या होने जा रहा है। जहां राजीव को सम्मान केवल कांग्रेस के भीतर मिलता है, वहीं राव के मामले में हालात उलट हैं। नतीजा यह होता है कि जब भी कोई राजीव या राव के योगदानों का जिक्र करता है तो दूसरा व्यक्ति मुस्लिमों के प्रति उनकी नीति का मुद्दा उठा देता है।
मोदी की नियति भी कुछ ऐसी ही होने वाली है। उन्होंने गत चार वर्षों में कुछ बेहद मुश्किल काम किए हैं और उनके लिए पूरा श्रेय दिया जाना चाहिए। लेकिन लगता है कि राजीव गांधी या नरसिंह राव की तरह मोदी का रिकॉर्ड भी उनकी राजनीति एवं उससे उपजी सामाजिक नीतियों के नकारात्मक कारकों से ही आच्छादित रहेगा।
|