अमेरिका और चीन में सीमा शुल्क की जंग | |
पार्थसारथि शोम / 05 21, 2018 | | | | |
यह धारणा गलत है कि अमेरिका और चीन का सीमा शुल्क वैश्विक अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाएगा। इस संबंध में विस्तार से जानकारी दे रहे हैं पार्थसारथि शोम
चीन के साथ अमेरिका के व्यापार घाटे का आकार बहुत बड़ा है और अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप को लगता है कि यह कम होना चाहिए। अतीत में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने भी ऐसी ही वजहों से इस्पात शुल्क में इजाफा कर दिया था। हालांकि एक साल बाद उसे हटा दिया गया था। बहरहाल अप्रैल और मई में मौजूदा अमेरिकी प्रशासन ने बहुत सख्त कदम उठाए। आर्थिक मामलों के उसके सबसे बड़े अधिकारियों, वित्त मंत्री, वाणिज्य मंत्री, व्हाइट हाउस के व्यापार सलाहकार, आर्थिक सलाहकार और अमेरिकी कारोबारी प्रतिनिधि तथा उनके अधीनस्थों ने एकदम स्पष्टï अंदाज में ट्रंप के इरादे सामने किए।
साफ कहा गया कि इसका इरादा चीन को अपनी आर्थिक व्यवस्था न बदलने देने के लिए मनाना था। यह काफी हद तक सन 1900 के दशक की याद दिलाने वाला था। यह बॉक्सर विद्रोह के दौर की बात है जब पश्चिम की आठ ताकतें और जापान विद्रोह को कुचलकर चीन की व्यवस्था में खुलापन लाए। उसके भी पहले चीन के चाय निर्यात पर प्रतिबंध को याद करें जब ब्रिटिशों को ब्रह्मïपुत्र के किनारे जंगली इलाके में चाय की खेती की तलाश करनी पड़ी और उन्होंने भारत में चाय उद्योग कायम किया। यह तो हुई काफी पुरानी बात लेकिन यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि तमाम बदलते दौर में भी चीन ने हमेशा अपनी अर्थव्यवस्था को बंद ही रखा। उसने केवल तभी खुलापन अपनाया जब उसे इससे फायदा मिला या उसे ऐसा करने के लिए मजबूर किया गया। अब जबकि चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है तब इसका निराकरण करना शेष विश्व का दायित्व है।
कारोबारी अखबारों के पन्ने ट्रंप द्वारा की गई शुल्क वृद्घि के वैश्विक व्यापार पर पडऩे वाले नकारात्मक प्रभाव की खबरों से भरे हुए हैं। कहा जा रहा है कि इससे आपूर्ति शृंखला में रोजगार की हानि होगी। यह भी कहा जा रहा है कि अमेरिका चीन से बहुत कम इस्पात आयात करता है इसलिए वह बेअसर रहेगा और चीन के जीडीपी पर भी इसका बहुत अधिक असर नहीं होगा। इन बातों के बावजूद यह सच है कि चीन अपनी वस्तुओं को कृत्रिम तरीके से बनाई गई विनिमय दर पर डंप करता रहेगा। अमेरिका और चीन के बीच शुल्क दरों के इजाफे की जो जंग छिड़ी है उसे देखते हुए भारत को राहत महसूस करनी चाहिए। अमेरिका के इस कदम से चीन को उसके अस्वीकार्य अंतरराष्ट्रीय कारोबारी व्यवहार के लिए चेतावनी भी मिली है। दुर्भाग्य की बात यह है कि अमेरिका पूरी तरह सही दिशा में नहीं है। शुल्क वृद्घि के लिए जिन जिंसों का चयन किया गया है वह अमेरिकी ग्राहकों के हित की रक्षा की दृष्टिï से सही नहीं है। चीन ने बदले की कार्रवाई में जो बढ़ोतरी की है वह चीन के उपभोक्ताओं को सीधे तौर पर प्रभावित करेगी। इससे पता चलता है कि लोकतांत्रिक देशों में जहां मतदाताओं को प्रसन्न रखना होता है वहां किस तरह की दिक्कतें आती हैं। जबकि तानाशाही वाले देश इन दिक्कतों से मुक्त रहते हैं। चाहे जो भी हो अमेरिकी प्रशासन के लिए उन उपभोक्ता वस्तुओं पर शुल्क लगाना अपेक्षाकृत पारदर्शी होता जिनका चीन से बड़ी मात्रा में आयात किया जाता है। स्टील और एल्युमीनियम जैसे उत्पादों का बमुश्किल 10 फीसदी हिस्सा ही अमेरिका चीन से आयात करता है। सरकार को जनता को यह स्पष्टï करना चाहिए था कि देश के आर्थिक और व्यापारिक असंतुलन को ठीक करने के लिए यह उचित कदम होगा, उसके बाद ही ऐसा करना चाहिए था।
अमेरिका के इस कदम के पीछे एक दूसरा और अहम कारण भी है। इससे उसका यह दावा पुष्टï होता है कि चीन अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपने साथ संयुक्त उद्यम स्थापित करने के लिए प्रेरित करता है जिसके बाद चीन को स्वत: उन कंपनियों की बौद्घिक संपदा पर अधिकार मिल जाता है। चीन का कहना है कि अमेेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियां खुद उसकी शर्तों को स्वेच्छा से स्वीकार करती हैं। यह बात अपनी जगह पर ठीक है। चीन के साथ संयुक्त उद्यम स्थापित करने की कई वजह हैं। आधुनिक विशिष्टï आर्थिक क्षेत्र, भ्रष्टïाचार का कम होना, स्पष्टï कर नीतियों के मामले में भारत चीन से कोसों दूर है। चीन के पास एक अन्य लाभ यह है कि वहां का राष्ट्रपति एकतरफा निर्णय ले सकता है। जबकि लोकतांत्रिक देशों में यह सारा काम संसद के माध्यम से ही हो सकता है। जाहिर है चीन पर यह दबाव बनाए रखना आवश्यक है कि वह अंतरराष्ट्रीय व्यवहार का पालन करे। अमेरिका इस दूसरे लक्ष्य की दिशा में आगे बढ़ा है। उसने मांग की है कि चीन को उसके उच्च तकनीकी क्षेत्र को सरकाी सहायता बंद करनी चाहिए। उसने चीन की कुछ उच्च तकनीकी कंपनियों के साथ कारोबार पर रोक लगाई है और चीन की कंपनियों को अमेरिकी कंपनियों के अधिग्रहण में बोली लगाने से रोका है। भविष्य में ऐसे और भी कदम देखने को मिल सकते हैं। हो सकता है अमेरिकी ट्रेजरी चीन से आने वाले निवेश पर रोक लगाए या अमेरिका के बाहर जाने वाले निवेश पर अंकुश लगाए ताकि अमेरिकी बौद्घिक संपदा बाहर न जाए।
भारत की बात करें तो यह बात शायद सब न जानते हों कि सन 1980 के दशक में जब चीन सामाजिक आर्थिक संकेतकों पर भारत से पीछे था तब भारत नियमित रूप से शिक्षा और प्रशिक्षण के क्षेत्र में चीन से जानकारी साझा करता था। अब जबकि चीन इन संकेतकों पर भारत से तीन गुना आगे निकल चुका है तो लगता नहीं कि वह ऐसी कोई जानकारी भारत के साथ साझा करता होगा। जापान जरूर कई सहयोगी परियोजनाओं के साथ सामने आया है। उधर चीन ने तिब्बत की दक्षिणी सीमा पर पाकिस्तान तक पहुंच बनाने के लिए जोरशोर से राजमार्ग निर्माण किया है। निकट भविष्य में इसके कम होने की भी कोई संभावना नहीं है। यह ख्वाब ही देखा जा सकता है कि एक दिन भारत इस स्थिति में होगा कि उसकी तुलना चीन से की जा सकेगी। वह तेजी से निर्णय ले सकेगा, उच्च श्रम उत्पादकता हासिल कर सकेगा, सड़कें बना सकेगा, भ्रष्टïाचारमुक्त प्रशासनिक क्षमता विकसित कर सकेगा और विशेष आर्थिक क्षेत्रों का आधुनिकीकरण कर सकेगा तथा शिक्षा और स्वास्थ्य के मामले में एक तय मानक हासिल कर सकेगा। आज तो भारत चीन के साथ भारी व्यापार घाटे का शिकार है। वह उसे कच्चा माल और अनिर्मित वस्तुएं भेजता है जबकि वह चीन से तमाम निर्मित वस्तुओं का आयात करता है। मौजूदा परिस्थितियों की बात करें तो अमेरिका के ट्रंप प्रशासन ने अपनी घरेलू चुनौतियों के बावजूद जो कुछ किया है उसका लाभ उठाने में भारत को भी कतई पीछे नहीं रहना चाहिए।
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