आंकड़ों की समझ | साप्ताहिक मंथन | | टी. एन. नाइनन / May 04, 2018 | | | | |
कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (ईपीएफओ) से रोजगार के बारे में आश्चर्यजनक तौर पर आए बेहतर आंकड़ों ने रोजगार पर चर्चा को नया रूप दिया है और रोजगार-रहित वृद्धि पर बहस को लगभग खत्म ही कर दिया है। इन आंकड़ों से नए रोजगार के बारे में सटीक तस्वीर पेश करने का दावा अगर संदेह पैदा करता है तो इस बात की भी संभावना है कि इससे निकली खबर सकारात्मक है। अति-उत्साही प्रचारकों के शोर में यह संदेश गुम नहीं होना चाहिए। कंपनियों (20 से अधिक कर्मचारियों वाली) ने छह महीने की अवधि में 18-25 साल की उम्र के 20 लाख और कुल 33 लाख नए कर्मचारियों का ईपीएफओ में पंजीयन कराया है। इस तरह सालाना स्तर पर 40 लाख युवा कर्मचारियों के ईपीएफओ से जुडऩे की संभावना है और सभी उम्र समूहों के मामले में यह संख्या 66 लाख रह सकती है। कुल सक्रिय ईपीएफओ खातों की संख्या करीब छह करोड़ बताई जाती है जिसका मतलब है कि केवल युवा कर्मचारियों के संदर्भ में पंजीयन 6.7 फीसदी बढ़ा है और कुल ईपीएफओ सदस्यों की संख्या के मामले में यह वृद्धि 11 फीसदी से अधिक है। कुछ लोगों को लगेगा कि यह स्थिति सात फीसदी से थोड़ा ही अधिक दर से बढ़ रही अर्थव्यवस्था में एक-के-बदले-एक रोजगार में तब्दील हो सकती है। भारत की कामकाजी जनसंख्या केवल 1.25 फीसदी की दर से ही बढ़ रही है। अगर ऐसा है तो भारत में रोजगार वृद्धिï की हालत दुनिया में सबसे मुश्किल होगी।
ईपीएफओ के आंकड़ों को व्यापक रोजगार संदर्भ में रखकर देखने की जरूरत है। जनगणना आंकड़ों से पता चलता है कि भारत में हरेक उम्र समूह में 2.5 करोड़ लोग कामकाजी श्रेणी में आने के लिए तैयार हैं। आधी सदी पहले करीब 1.3 करोड़ लोग कामकाजी उम्र में दाखिल हो रहे थे लेकिन अब वे कामकाजी उम्र को पार कर चले होंगे। अगर दोनों आंकड़ों की तुलना की जाए तो तब और आज में कामकाजी श्रमिकों की संख्या में वार्षिक वृद्धि 1.2 करोड़ (2.5-1.3=1.2) ही रही है। देश के समक्ष मौजूद रोजगार चुनौती की चर्चा करते समय इसका जिक्र किया जाता है।
लेकिन कामकाजी उम्र सीमा में दाखिल होने वाले सभी लोग काम नहीं करते हैं। कुछ घरेलू कामों में लग जाते हैं तो कुछ उच्च शिक्षा ग्रहण करने लगते हैं। सच तो यह है कि पिछले 15 वर्षों में स्कूली शिक्षा के बाद कॉलेज में प्रवेश की दर तेजी से बढ़ी है। नतीजतन, भारत का आबादी के बरक्स रोजगार का अनुपात (15 साल से अधिक उम्र वाले) कम हो रहा है। फिलहाल यह 52 फीसदी बताया जा रहा है जबकि निम्न-मध्यम आय वाले देशों में यह औसत 55 फीसदी है। इस तरह बढ़ती श्रमशक्ति को खपाने के लिए हरेक साल 1.2 करोड़ का 52 फीसदी यानी 62.4 लाख नए रोजगार ही पैदा करने की जरूरत है।
अगर 25 साल से कम उम्र वाले कर्मचारियों के पंजीयन में 40 लाख की बढ़ोतरी को नई नियुक्ति माना जा रहा है तो ईपीएफओ से संबद्ध कंपनियां साल भर में पैदा हो रहे 62.4 लाख नए रोजगार का करीब दो-तिहाई अंशदान कर रही हैं। वैसे कुल रोजगार में ईपीएफओ की हिस्सेदारी महज 12.5 फीसदी (48 करोड़ में 6 करोड़) है। रोजगार बाजार के तेजी से 'औपचारिक' शक्ल अख्तियार करने का तर्क देने वाले लोगों के लिए भी इस बात को स्वीकार कर पाना मुश्किल होगा। अधिक औपचारिक अर्थव्यवस्था के चलते अनौपचारिक रोजगार में गिरावट भी आनी चाहिए। अहम मुद्दा यह है कि ईपीएफओ के खातों में बढ़ोतरी कितने नए रोजगार अवसरों में तब्दील हो पाती है। इन आंकड़ों की समीक्षा से जवाब मिलने चाहिए। एक और संबद्ध मुद्दा यह है कि पिछले 18 महीने का समय अर्थव्यवस्था और पिछले साल विशेष पंजीकरण अभियान चलाने वाले ईपीएफओ के लिए भी असामान्य रहा है। लिहाजा केवल छह महीनों के आंकड़े हालात की सही तस्वीर नहीं पेश करते हैं और ठोस नतीजे पर पहुंचने के लिए कुछ और महीनों के आंकड़े का इंतजार करना चाहिए। इसके अलावा ईपीएफओ के रोजगार आंकड़ों को जमीनी स्तर पर परखने की जरूरत है क्योंकि अलग-अलग आंकड़े बिल्कुल अलग तस्वीर पेश कर रहे हैं। अगर ये आंकड़े सही हैं तो वे परीक्षण में सही निकलेंगे। इसीलिए सर्वे-आधारित रोजगार आंकड़े जुटाना आगे भी जारी रखना चाहिए। मकसद यह है कि रोजगार के बारे में असलियत पता चले, न कि दुष्प्रचार का मुद्दा बने।
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