संविधान पीठ पर भारी बोझ कम करने की जरूरत | अदालती आईना | | एम जे एंटनी / March 28, 2018 | | | | |
आधार को कई सेवाओं के लिए अनिवार्य किए जाने के मामले में उच्चतम न्यायालय का पांच सदस्यीय संविधान पीठ संक्षिप्त सुनवाई कर रहा है। यह सुनवाई 17 जनवरी को शुरू हुई थी और इसके खत्म होने का फिलहाल कोई संकेत नहीं है। अमेरिका जैसे कुछ देशों की तरह मामलों की सुनवाई पूरी करने की भारत में कोई तय समयसीमा नहीं है। इस वजह से सुनवाई महीनों तक चलती रहती है। भारत का कोई भी मुख्य न्यायाधीश अभी तक इस परंपरा को तोड़ नहीं पाया है। स्वाभाविक तौर पर सुनवाई से जुड़े लोगों का दिमाग भटकने लगता है और वे नतीजों के बारे में अटकलें लगाने लगते हैं।
मुख्य न्यायाधीश एवं संविधान पीठ के मुखिया दीपक मिश्रा के पास कई अन्य महत्त्वपूर्ण मामले भी हैं। आधार मामले के बाद इस पीठ को अत्यधिक महत्त्व वाले नौ अन्य मामलों पर भी फैसले सुनाने हैं। इनमें समलैंगिकों के अधिकार, व्यभिचार को अपराध ठहराने, केरल के सबरीमाला मंदिर में महिलाओं को प्रवेश की इजाजत और चार्जशीट का सामना कर रहे विधायक को अयोग्य ठहराने जैसे मामले काफी अहम हैं। संविधान पीठ के सामने यह मामला भी पहुंचा हुआ है कि अगर कोई पीठ किसी समन्वय पीठ के फैसले को कानून नजरअंदाज करने के चलते निरस्त कर देता है तो क्या होगा? चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों की 'बगावत' के बाद मामलों की सुनवाई का जो रोस्टर जारी किया है, उसके मुताबिक अयोध्या विवाद समेत इन सभी अहम मामलों को मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाला पीठ ही देखेगा। इससे कई गंभीर सवाल खड़े होते हैं कि क्या मुख्य न्यायाधीश के अक्टूबर में सेवानिवृत्त होने से पहले इस पीठ की संभावित 60 बैठकों में ये सारे बड़े मामले निपटा लिए जाएंगे?
इस पीठ पर काम का भारी बोझ पडऩे पर कुछ दायित्व दूसरे वरिष्ठ न्यायाधीशों के सुपुर्द किए जा सकते थे। आखिर मामलों की सुनवाई का रोस्टर इंसान ने ही बनाया है। यह भी साफ नहीं है कि क्या खुद मुख्य न्यायाधीश ने ही 'मास्टर ऑफ रोल्स' होने के नाते यह रोस्टर बनाया है या फिर अन्य न्यायाधीशों से भी सलाह ली गई है? उच्चतम न्यायालय की वेबसाइट के मुताबिक मामलों की सुनवाई का क्रम मुकदमा दायर किए जाने की शुरुआती तारीख के आधार पर तय किया गया है। लेकिन इस पीठ के समक्ष सुनवाई के लिए रखे गए मामलों को देखकर यही लगता है कि संवैधानिक महत्त्व वाले 40 मामलों में से उनका चुनाव बेतरतीब तरीके से किया गया है। दशकों से लंबित ये मामले अभी भी धूल खा रहे हैं। उनमें से कुछ मामले औद्योगिक विवाद अधिनियम के तहत 'उद्योग' की व्याख्या और संपत्ति के अधिकार से संबंधित हैं। अगर क्रमिकता ही पैमाना होती तो इन मामलों पर वर्षों पहले सुनवाई हो जानी चाहिए थी। अगर पैमाना अहमियत है तो फिर सोशल मीडिया में निजता का मुद्दा और न्यायपालिका में सूचना का अधिकार जैसे मामलों को प्राथमिकता देनी चाहिए थी। लेकिन जिस तरह से मामलों का चयन किया गया है और उनका वितरण किया गया है उससे अपारदर्शिता के आरोपों को बल मिलता है। इस तरह वरिष्ठ न्यायाधीशों ने अहम मामलों के आवंटन को लेकर जो आरोप लगाए थे उनकी भी एक हद तक पुष्टि होती है।
एक बार फिर लंबे समय तक चलने वाली सुनवाई की ओर लौटते हैं। ऐसा हो ही नहीं सकता है कि उच्चतम न्यायालय को अपने इतिहास के अरुचिकर प्रकरणों की जानकारी न हो। केशवानंद भारती के बहुचर्चित मामले की सुनवाई 1972-73 में पांच महीनों तक चली थी और तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश के कार्यकाल के अंतिम दिन जल्दबाजी में फैसला सुना दिया गया। उस मामले की सुनवाई करने वाले 13 सदस्यीय पीठ के सबसे कनिष्ठ न्यायाधीश वाई वी चंद्रचूड़ ने अपने फैसले में कहा था, 'वकील लंबी सुनवाई में इतना वक्त लगा चुके थे कि उनके पास हमारे सामने अपना पक्ष रखने के लिए वक्त ही नहीं रह गया था। मुख्य न्यायाधीश के सेवानिवृत्त होने से न्यायालय की क्षमता घटेगी और इसी बात ने फैसले की तारीख मुकर्रर कर दी है। इस वजह से फैसले के मसौदे के आदान-प्रदान का भी पर्याप्त समय नहीं मिल पाया है।'
हालांकि यह अपनी तरह का अनूठा मामला नहीं है। वर्ष 2013 में भी न्यायमूर्ति अनिल दवे ने मेडिकल प्रवेश परीक्षा (नीट) मामले में कहा था कि उन्हें 'त्वरित और संक्षिप्त' होना पड़ा क्योंकि तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश सेवानिवृत्त होने वाले थे और उनके पास अपने सहयोगियों से विमर्श करने का अधिक समय नहीं था। न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर ने अपनी सेवानिवृत्ति के दो दिन पहले शहरी क्षेत्र में जमीन की सीलिंग पर जल्दबाजी में कुछ पंक्तियां लिखने की बात कही थी। पुराने लोग बताते हैं कि न्यायमूर्ति एम एम पंंछी और न्यायमूर्ति वी खालिद ने भी ऐसे हालात में कुछ ऐसी ही टिप्पणियां की थीं।
इस जल्दबाजी की वजह यह होती है कि अगर किसी मामले की सुनवाई कर रहे पीठ का एक भी सदस्य सेवानिवृत्त हो जाता है तो उस मामले में फैसला नहीं सुनाया जाता है। वैसी स्थिति में पूरे मामले की सुनवाई एक नए पीठ को करनी होगी। आम तौर पर इस तरह के हालात से बचने की कोशिश होती है। हाल ही में एक ऐसा वाकया सामने आया जब एक न्यायाधीश फैसले लिखे बगैर ही सेवानिवृत्त हो गए। एक अन्य मामले में एक न्यायाधीश ने चुनाव लडऩे की जल्दबाजी में अपने फैसलों का मसौदा फाइल में ही छोड़ दिया था। एक मुख्य न्यायाधीश पर अंतिम दिनों में बीमारी का बहाना करके अस्पताल में भर्ती होने का संदेह भी जताया गया था। वजह यह थी कि साथी न्यायाधीशों की राय उनके खिलाफ जा रही थी।
बहरहाल अब भी मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के पास समय है कि वह संविधान पीठ के भारी बोझ को कम करें और कुछ मामले वरिष्ठ न्यायाधीशों के सुपुर्द करें। यह सच है कि कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच जारी तनातनी के चलते शीर्ष अदालत में न्यायाधीशों की संख्या कम हो चुकी है। ऐसे मुश्किल भरे समय में एक स्वस्थ परंपरा शुरू करने का मुख्य न्यायाधीश के सामने यह एक सुनहरा अवसर है।
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