वैश्विक मंदी ने रियल्टी की ऐसी कमर तोड़ी कि दस साल में भी यह उद्योग उठ नहीं पाया है। जरूरत से ज्यादा मकानों ने डेवलपरों की हालत बिगाड़ दी है और उम्मीद कम ही दिख रही है
एक जमाना था, जब सोने और रियल एस्टेट में निवेश करने वाला व्यक्ति समझदार माना जाता था। महानगर या तेजी से विकसित होते किसी शहर में जमीन या फ्लैट की खरीदारी का मतलब था भारी प्रतिफल की गारंटी। कई बार तो इसमें निवेश से दोगुना तक प्रतिफल मिल जाता था। 1997 से 2008 के बीच ग्रेटर नोएडा, गुडग़ांव (अब गुरुग्राम), वैशाली, इंदिरापुरम (सभी दिल्ली - एनसीआर में) संपत्ति खरीदारी के लिहाज से पसंदीदा इलाके बन गए। सैकड़ों रियल एस्टेट कंपनियों ने लाखों फ्लैट तैयार किए और इन्हें ऊंची कीमतों पर बेचा। मकान मालिक बनने के फेर में लोगों ने भी जल्दबाजी दिखाई और उन्हें जो भी मिला, बिना जांच-पड़ताल, बिना सूझबूझ उन्होंने उसे खरीद लिया।
सच कहें तो सस्ती जमीन, लालच और कानून को ताक पर रखने की वजह से ही दिल्ली-एनसीआर में रियल एस्टेट पर संकट मंडराने लगा। उद्योग के जानकार बताते हैं कि रियल्टी का बाजार डूबना तय था क्योंकि नोएडा और ग्रेटर नोएडा जैसे शहरों में रियल्टी बाजार की नींव ही गलत तरीके से डाली गई थी। समस्या तो 2000 की शुरुआत से ही दिखने लगी थी, जब उत्तर प्रदेश सरकार ने नोएडा अैर ग्रेटर नोएडा में पड़ी जमीन को विकसित करने में जल्दबाजी दिखा दी। ज्यादा से ज्यादा रियल्टी कंपनियों को आकर्षित करने के फेर में नोएडा में भूमि प्रशासन ने एकदम नया तरीका अपनाया और महज 10 फीसदी कीमत लेकर 99 साल के लिए पट्टे पर जमीन देनी शुरू कर दी। डेवलपरों को पट्टे की रकम बाद में देने और उससे पहले ही निर्माण शुरू कर देने की इजाजत दे दी गई।
रियल्टी उद्योग की संस्था नरेडको के अध्यक्ष प्रवीण जैन ने कहा, 'पट्टे की कुल रकम का मामूली हिस्सा लेकर जमीन दी जा रही थी। इससे डेवलपरों में भी लालच आ गया और उन्होंने लंबी-चौड़ी जमीन लेनी शुरू कर दी। उन्हें यह ध्यान भी नहीं रहा कि इतनी जमीन को संभालना कितना मुश्किल होगा। उसके बाद उन्होंने जमीन पर जरूरत से ज्यादा मकान बना डाले, लेकिन उतने खरीदार उन्हें नहीं मिले। उधर जब अधिकारियों ने उनसे पट्टे की बाकी रकम मांगी तो वे दे ही नहीं पाए।'
विशेषज्ञ मानते हैं कि विकास प्राधिकरणों ने भी ऊंचे फ्लोर एरिया रेश्यो (एफएआर) के साथ मिश्रित उपयोग वाले भूखंड बेचने शुरू कर दिए, जिनके लिए रकम भी 6 से 10 साल में वसूलने की बात उन्होंने कही। बैंकों और वित्तीय संस्थानों को भी यह सोने के अंडे देने वाली मुर्गी सरीखा लगा। उन्हें लगा कि भारी-भरकम रकम के साथ परियोजना बनाने वाले उनसे कर्ज लेंगे और और बाद में मकान खरीदने वाले भी आवास ऋण मांगने आएंगे।
इससे कई खरीदारों को बाद में चोट झेलनी पड़ी। गौतम चटर्जी ने जेपी विश टाउन की कॉस्मास परियोजना में फ्लैट बुक कराया था। उन्होंने पूरे चार साल तक पूरी ईमानदारी से हर महीने 54,280 रुपये की किस्त भी चुकाई, लेकिन आखिरकार उनके सब्र का बांध टूट गया। फ्लैट पर कब्जे के लिए तीन साल इंतजार करने के बाद आखिरकार चटर्जी ने आईसीआईसीआई बैंक को ईएमआई नहीं चुकाने का फैसला किया। वह कहते हैं, 'मैं तंग आ चुका हूं। मैंने वक्त पर ईएमआई चुकाईं, लेकिन वित्तीय बोझ के अलावा मुझे क्या मिला। मैंने दो महीने पहले आईसीआईसीआई बैंक की प्रबंध निदेशक और मुख्य कार्य अधिकारी चंदा कोछड़ समेत सभी आला अफसरों को मेल लिखा। एक कॉपी मैंने डेवलपर को भी भेजी। मैंने बताया कि मैं ईएमआई नहीं चुका पाऊंगा। मैंने बैंक को भी इसके लिए जिम्मेदार ठहराया क्योंकि ऐसी परियोजनाओं की जांच-पड़ताल के बाद ही कर्ज मंजूर करना उसकी भी जिम्मेदारी है। फ्लैट पर कब्जा मिलते ही मैं ईएमआई दोबारा चुकाना शुरू कर दूंगा।' चटर्जी पिछले कई साल से 35,000 रुपये महीना किराया भी दे रहे हैं।
आईसीआईसीआई बैंक ने उन्हें समझाया कि ईएमआई बंद नहीं करनी चाहिए, लेकिन चटर्जी ने अपना फैसला नहीं बदला। चटर्जी अकेले नहीं हैं। जेपी इन्फ्राटेक और आम्रपाली गु्रप के मकान खरीदने वालों की सहायता करने वाले विभिन्न समूहों के अनुसार 1,500 से ज्यादा फ्लैट मालिकों ने अपनी ईएमआई चुकानी बंद कर दी है। ज्यादातर को लगता है कि निवेश फंस गया है और रकम लगाना बेकार है। कुछ के लिए ईएमआई का बोझ सहना ही मुश्किल हो गया है।
कई बैंक हिसाब लगाने लगे हैं कि इन दोनों डेवलपरों के कारण कितना कर्ज फंस सकता है। पिछले साल भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) ने जेपी इन्फ्राटेक और आम्रपाली की अटकी परियोजना में मकान खरीदने वालों को दिए कर्ज की समीक्षा शुरू की थी। बैंक के प्रबंध निदेशक (राष्ट्रीय बैंकिंग समूह) रजनीश कुमार ने भी पिछले साल कहा था कि वे अटकी परियोजनाओं के शिकार हुए खरीदारों की संख्या भांपने में जुटे हैं।
रिक्स स्कूल ऑफ बिल्ट एनवायरनमेंट के सहायक डीन एवं निदेशक अमोल शिम्पी ने कहा, 'वित्त वर्ष 2016 की अपनी सालाना रिपोर्ट में जेपी इन्फ्राटेक ने बताया कि उसे यमुना एक्सप्रेसवे से सटी 2.5 करोड़ वर्ग मीटर भूमि पर एकीकृत टाउनशिप तैयार करने का अधिकार था। लेकिन उसने मांग का जो हिसाब लगाया था, वह न तो रोजगार बाजार के मुताबिक था और ही छोटे बाजार में जरूरी बुनियादी ढांचे के अनुरूप था। इसीलिए परियोजनाओं को तो फंसना ही था।' उन्होंने कहा कि अब हरेक पक्ष संकट में फंसा है, जिससे रियल एस्टेट संपत्तियां बुरी हालत में हैं। भूमि विकास प्राधिकरण, निर्माण के लिए कर्ज देने वाली कंपनियां (जिन्हें ब्याज नहीं मिला और मूल भी अटका है), मकान के लिए कर्ज देने वाली कंपनियां और आपूर्तिकर्ता और ठेकेदार (जिन्हें रकम नहीं मिल रही है) समेत लगभग सभी पक्ष फंस गए हैं।
रियल एस्टेट उद्योग की संस्थाएं परियोजनाएं पूरी करने के लिए सरकार की मदद मांग रही हैं। जैन ने कहा, 'सरकार या स्थानीय प्राधिकरणों में से किसी न किसी को इसमें हस्तक्षेप करने की जरूरत है जिससे कर्ज लेने में मदद मिले और संकट का समाधान निकाला जा सके।'
विश्लेषकों को लगता है कि परियोजनाओं का पुनर्गठन जरूरी है। शिम्पी कहते हैं, 'सबसे पहले दिवालिया संहिता के तहत कर्ज समाधान की प्रक्रिया तेज होनी चाहिए। उन मजबूत रियल एस्टेट कंपनियों की पहचान की जानी चाहिए, जो परेशान डेवलपरों की जगह परियोजना हाथ में लेने की इच्छुक हों। साथ ही ग्राहकों को बताना चाहिए कि परियोजना पूरी होने में समय अधिक लग सकता है और खर्च भी बढ़ सकता है।'
प्रॉपटाइगर डॉटकॉम ने हाल में कैलेंडर वर्ष 2017 के लिए अपनी 'रियल्टी डिकोडेड रिपोर्ट' जारी की, जिसके मुताबिक गुडग़ांव एकमात्र ऐसा शहर है, जिसमें पिछले साल नई परियोजनाएं 55 फीसदी और बिक्री 26 फीसदी बढ़ी। रेरा के लगातार प्रभाव की वजह से भारत के शीर्ष नौ शहरों में पुणे, अहमदाबाद और कोलकाता में नई परियोजनाएं सबसे कम आईं। 2017 की चौथी तिमाही में इनमें 56 फीसदी तक की कमी आई। रिपोर्ट के अनुसार नई परियोजनाओं में कमी आने के कारण इन शहरों में कुल बिक्री भी उस साल 17 फीसदी तक घटी। हालांकि 2017 की चौथी तिमाही में बेंगलूरु, चेन्नई, गुरुग्राम, हैदराबाद और नोएडा में बिक्री बढ़ गई।
प्रॉपटाइगर डॉटकॉम के मुख्य निवेश अधिकारी अंकुर धवन ने कहा, 'जीएसटी और रेरा की शुरुआत के साथ 2017 भारतीय रियल्टी के लिए सुधार का साल रहा। साल की आखिरी तिमाही में कई शहरों में मकानों की बिक्री बढ़ी, जिससे समझा जा सकता है कि आगे हालात कैसे रहेंगे। हमें भरोसा है कि परियोजना सौंपने, जवाबदेही और पारदर्शिता के नए पैमाने 2018 में आवासीय रियल एस्टेट बाजार को मजबूती देंगे।'
बहरहाल, इस उद्योग की कुछ कंपनियां हालात सुधारने की कोशिश में जुटी होने का वायदा भी कर रही हैं। यूनिटेक लिमिटेड और उसके प्रबंध निदेशक संजय चंद्रा को पिछले साल कई मामलों में राहत मिली थी, जिनमें सबसे बड़ी राहत 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन मामले में दोषमुक्त करार दिया जाना थी। बिजनेस स्टैंडर्ड के सवालों के जवाब में कंपनी ने कहा कि संकट के बीच में इन घटनाओं से उसका हौसला बढ़ा है। चंद्रा ने यह भी कहा कि अटकी परियोजनाएं पूरी करना और खरीदारों का पैसा लौटाना ही उनकी प्राथमिकता है।
उन्होंने कहा, 'एनसीएलटी के आदेश और 2जी स्पेक्ट्रम मामले में आए फैसले से कंपनी पर बोझ काफी हद तक कम हो गया है। इससे यूनिटेक को परियोजनाएं पूरी करने और खरीदारों की रकम लौटाने में मदद मिलेगी। यही हमारा पहला मकसद है। कंपनी के साथ मुझे भी 2जी मामले में आरोपों का सामना करना पड़ा, जिससे कंपनी की माली हालत पर असर पड़ा है।' लेकिन चंद्रा भरोसा जताते हैं कि कर्ज देने वालों और परिसंपत्ति पुनर्निर्माण कंपनियों की मदद से वह परियोजनाओं का निर्माण तेज करने और कार्यशील पूंजी जुटाने में सक्षम होंगे।'
उद्योग के कई विश्लेषक उम्मीद कर रहे थे कि इस बार बजट में रियल एस्टेट को उद्योग का दर्जा मिल जाएगा। वित्त मंत्री ने जैसे ही बजट पढ़ना शुरू किया, रियल्टी दिग्गजों की नजरें उन पर टिक गईं, लेकिन आखिर में निराशा ही उनके हाथ लगी। एनारॉक प्रॉपर्टी कंसल्टेंट्स के चेयरमैन अनुज पुरी का कहना है, 'उम्मीद के मुताबिक बजट लोकलुभावन ही निकला, जबकि इस वक्त अर्थव्यवस्था को मजबूती दिए जाने की जरूरत थी क्योंकि ढांचागत बदलावों और नीतिगत सुधारों के कारण यह दबाव से जूझ रही है।'
पुरी ने कहा कि कर के स्लैब में बदलाव नहीं किया गया यानी करदाताओं को अधिक रियायत नहीं मिली। यात्रा और मेडिकल खर्च के संदर्भ में मानक कर छूट को बढ़ाकर 40,000 रुपये किया गया है, लेकिन यह रियायत केवल नौकरीपेशा लोगों के लिए है। लेकिन न तो आवास ऋण पर कर में मिलने वाली बचत बढ़ाई गई है और न ही 80 सी के तहत छूट की सीमा में कोई इजाफा किया गया है।
हालांकि रियल एस्टेट क्षेत्र के लिए कुछ सकारात्मक पहलों में 'किफायती आवास कोष' शामिल है, जिसकी घोषणा बजट में की गई। इसके अलावा बजट में रियल एस्टेट में लेनदेन पर कर के लिए धारा 43 सीए के तहत विसंगति को भी दूर किया गया। अभी तक रियल एस्टेट सौदों में जबरिया ऊंची की गई सर्कल दरों के हिसाब से कीमत निकालने के बाद कर वसूला जाता था। लेकिन अब वास्तविक कीमत के आधार पर कर वसूला जाएगा। पुरी ने कहा, 'नई घोषणा के अनुसार यदि सर्कल दर कुल लेनदेन मूल्य के 5 प्रतिशत से अधिक नहीं हो तो रियल एस्टेट लेनदेन पर पूंजीगत लाभ के संदर्भ में किसी समायोजन की जरूरत नहीं होगी। अगर बाजार की दर और रेडी-रेकनर दर एक जैसी हुईं तो पहले के मुकाबले ज्यादा बचत का मौका मिल जाएगा। उन शहरों को इस घोषणा से फायदा हो सकता है, जहां बड़े रियल एस्टेट निवेशक सक्रिय नहीं हैं और कीमतें भी वाजिब हैं।'
Business Standard Private Ltd. Copyright & Disclaimer feedback@business-standard.com
This site is best viewed with Internet Explorer 6.0 or higher; Firefox 2.0 or higher at a minimum screen resolution of 1024x768
* Stock quotes delayed by 10 minutes or more. All information provided is on
"as is" basis and for information purposes only. Kindly consult your
financial advisor or stock broker to verify the accuracy and recency of all
the information prior to taking any investment decision.
While due diligence is done and care taken prior to uploading the stock
price data, neither Business Standard Private Limited, www.business-standard.com nor any
independent service provider is/are liable for any information errors,
incompleteness, or delays, or for any actions taken in reliance on
information contained herein.