अब छात्र इंजीनियर बनने की इच्छा नहीं रखते और निजी शिक्षण संस्थानों में भी नहीं जाना चाहते। इन संस्थानों में फीस तो भारीभरकम वसूली जाती है, लेकिन इंटर्नशिप और रोजगार का कोई इंतजाम नहीं होता। अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (एआईसीटीई) के हिसाब से 60 फीसदी से अधिक इंजीनियरिंग छात्र बेरोजगार ही रह जाते हैं। बाकी को कम वेतन वाली नौकरी मिलती है क्योंकि उनकी शिक्षा का स्तर अच्छा नहीं होता।
इंडिया रेटिंग्स के प्रधान अर्थशास्त्री सुनील कुमार सिन्हा कहते हैं कि बीते दो दशक के दौरान देश में निजी शिक्षण संस्थानों की बाढ़ आने के बाद अब दिक्कत हो रही है। ये शिक्षण संस्थान बढिय़ा शिक्षा नहीं देते और बुनियादी ढांचे में भी निवेश नहीं करते। इसीलिए उन पर ताले लग रहे हैं। सिन्हा आरोप लगाते हैं कि यूजीसी और एआईसीटीई जैसे शिक्षा नियामक सुधार लाने में नाकाम रहे हैं। इसीलिए केंद्र सरकार को यूजीसी और एआईसीटीई की जगह नए निकाय लाने चाहिए। भारतीय चिकित्सा संघ (आईएमए) के मामले में ऐसा किया ही जा रहा है। सरकार राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग विधेयक पेश करना चाहती है ताकि आईएमए की जगह नया संस्थान लाया जा सके और वैकल्पिक चिकित्सा स्नातकों को एक पाठ्यक्रम पूरा करने के बाद बतौर चिकित्सक काम करने का मौका दिया जाए।
यूजीसी की शुरुआत दिसंबर, 1953 में हुई थी। उसका मकसद विश्वविद्यालय शिक्षण में शोध और शिक्षा के मानकों को बनाए रखना और तालमेल कायम करना था। एआईसीटीई की स्थापना नवंबर, 1945 में राष्ट्रीय स्तर के सर्वोच्च सलाहकार बोर्ड के रूप में की गई थी ताकि तकनीकी शिक्षण से जुड़ी सुविधाओं को लेकर सर्वेक्षण कराया जा सके। एआईसीटीई इंजीनियरिंग, प्रबंधन, वास्तु और फार्मेसी के पाठ्यक्रमों का भी नियमन करता है। हालांकि सरकार ने यूजीसी और एआईसीटीई दोनों के स्थान पर एक उच्च शिक्षा नियामक हीरा लाने की मंजूरी दे दी है, लेकिन अभी इस दिशा में कोई खास प्रगति नहीं हो सकी है।
स्नातकोत्तर प्रबंधन संस्थानों में भी प्रवेश कम हो रहे हैं। वर्ष 2014-15 में 4,33,351 छात्रों ने इनमें प्रवेश लिया था, लेकिन 2017-18 में आंकड़ा घटकर केवल 3,78,421 रह गया। प्रबंधन संस्थानों में तालाबंदी बढ़ रही है और पिछले तीन साल से प्लेसमेंट की दर 40 फीसदी पर ही अटकी हुई है।
आलोचक कहते हैं कि भारतीय प्रबंध संस्थानों समेत कई संस्थानों को अधिक स्वायत्तता प्रदान करने के राजग सरकार के उपाय आधे-अधूरे और प्रमुख कॉलेजों को फायदा देने वाले हैं। उदाहरण के लिए केंद्र ने उन कॉलेजों या विश्वविद्यालयों की मदद करने का निर्णय लिया है जिन्हें नैशनल इंस्टीट्यूशनल रैंकिंग फ्रेमवर्क में बढिय़ा रैंकिंग मिली है। इस रैंकिंग में आईआईएम और आईआईटी शीर्ष पर हैं। मगर पिछले एक दशक में सरकारें शिक्षा के लिए जरूरी रकम मुहैया कराने में नाकाम रही हैं। राजग सरकार ने वर्ष 2014-15 से 2015-16 और 2016-17 तक शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद का क्रमश: 2.8 फीसदी, 3.1 फीसदी और 3.2 फीसदी खर्च किया।
विशेषज्ञों को लगता है कि निजी क्षेत्र शिक्षा में निवेश जारी रखेगा क्योंकि रकम की कमी है और मांग तथा आपूर्ति में अंतर है। इंडिया रेटिंग्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में 2 लाख स्कूलों, 35,000 कॉलेजों और 700 विश्वविद्यालयों तथा व्यावसायिक प्रशिक्षण केंद्रों में 4 करोड़ सीटों की जरूरत है।
तकनीक का प्रयोग भी शिक्षा में अहम है। कई प्रमुख विश्वविद्यालयों ने कामकाजी पेशेवरों के लिए ऑनलाइन पाठ्यक्रम शुरू कर दिए हैं ताकि उनका कौशल और निखरे। छात्र भी खास तरह के कौशल के लिए प्रवेश ले रहे हैं और नियोक्ताओं को भी यह पसंद आ रहा है। पारंपरिक प्रकाशन कंपनियां मसलन एमबीडी और एस चांद अब कक्षा 1 से 12 तक के बाजार में तकनीक का सहारा ले रही हैं।
एमबीडी समूह की प्रबंध निदेशक मोनिका मल्होत्रा कंधारी कहती हैं, 'बीते दशक में शिक्षा में अहम बदलाव देखने को मिले। इस दौरान प्राथमिक विद्यालयों में प्रवेश बढ़े और बजट आवंटन तथा निवेश में भी इजाफा दिखा। इस दौरान बड़ा बदलाव रहा किताबी शिक्षा से तकनीक आधारित शिक्षा की तरफ बढ़ना। दूरवर्ती शिक्षा के उभार और शिक्षा के बढ़ते डिजिटलीकरण ने सबसे ज्यादा अंतर पैदा किया है।'
केंद्र सरकार और कुछ राज्य भी तकनीक की मदद से दूरदराज के छात्रों तक पहुंचने का प्रयास कर रहे हैं। केंद्र की योजना महत्त्वाकांक्षी एकीकृत डिजिटल व्यवस्था बनाने की है ताकि शिक्षकों और छात्रों पर नजर रखी जा सके और उनमें अनुपस्थिति की समस्या को देखा जाए। तमाम सरकारी स्कूलों के शिक्षकों की उपस्थिति और मध्याह्न भोजन योजना की प्रगति का आकलन किया जाएगा। यह काम टैबलेट या स्मार्ट फोन के जरिये किया जाएगा।