डीडीए और नगर निगमों की साझा नाकामी से बिगड़ी सूरत | |
सियासी हलचल | आदिति फडणीस / 03 23, 2018 | | | | |
दिल्ली में घट रही घटनाओं को समझने की कोशिश करना इशारों से भरे समंदर में चहलकदमी करने जैसा है। दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) के तीनों इलाके उच्चतम न्यायालय के आदेशों के मुताबिक दिल्ली का मास्टर प्लान सख्ती से लागू करने में लगे हुए हैं। उच्चतम न्यायालय ने दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) को अतिक्रमण रोक पाने में नाकाम बताते हुए कहा था कि इसने स्थानीय क्षेत्र योजना तैयार करने एवं फ्लोर एरिया अनुपात के संबंध में साफ नीति अपनाने में भी कोताही बरती। भाजपा, आम आदमी पार्टी और कांग्रेस सभी एक साथ इस कार्रवाई की आलोचना कर रहे हैं लेकिन उप राज्यपाल सुन ही नहीं रहे हैं।
ऐसे में हर बात पूरी तरह साफ होनी चाहिए। दरअसल इस समस्या को दो शब्द सही तरह से स्पष्ट कर देते हैं: लालच और डर। किसी भी शहर को पहले से यह पता नहीं होता है कि वह कितना बड़ा होने जा रहा है। लिहाजा शहर के योजनाकार मास्टर प्लान बनाते हैं और उसी के मुताबिक शहर के विकास का खाका तैयार करते हैं। लेकिन दिल्ली में कई लालची लोग भी मौजूद हैं। भले ही दिल्ली के विकास के लिए डीडीए मौजूद था लेकिन निर्वाचित संस्था होने के नाते तीनों नगर निगमों को ही प्राधिकरण के साथ मिलकर दिल्ली के रिहायशी एवं कारोबारी विकास का नियमन करना था। इन दोनों संस्थानों को मिलकर मास्टर प्लान को बिना किसी छेड़छाड़ के लागू करना था, ठीक चंडीगढ़ की तरह। लेकिन सख्ती बरतने के बजाय न केवल मास्टर प्लान को नजरअंदाज किया गया बल्कि उध्र्वाधर विकास को थामने के लिए कोई सक्रिय नीति भी नहीं अपनाई गई। उद्यमियों और रिहायशी ठिकानों की तलाश में लगे लोगों ने मांग और मौके को देखते हुए अनुकूल जगह पर फैलना शुरू कर दिया। हालत यह हो गई कि आवासीय इलाकों में दफ्तर, दुकानें और सुपरमार्केट खुल गए। इसकी वजह से बिजली, सड़क और पानी जैसी बुनियादी सेवाओं पर खासा दबाव पडऩे लगा।
इसके अलावा रेहड़ी-पटरी पर दुकान लगाने वालों के बारे में कोई सुस्पष्ट नीति नहीं होने से भी मामला बिगड़ता चला गया। नतीजा यह हुआ कि दिल्ली एक भीड़भाड़ वाला एवं गंदा शहर बनने लगा जो रहने के लायक ही नहीं रह गया। उच्चतम न्यायालय ने इसका संज्ञान लेते हुए अपनी निगरानी में एक अधिकार-प्राप्त समिति का गठन किया जिसने शहरी विकास एवं नियोजन से जुड़ी खामियों की शिनाख्त की। दिल्ली के तीनों नगर निगमों को अब ये गलतियां सुधारने के लिए कहा गया है। इसका नतीजा यह हुआ है कि पहले घरों के लिविंग रूम को कार शोरूम में तब्दील कर देने वालों के प्रति आंखें मूंद लेने वाले एमसीडी एवं डीडीए ने अब अवैध कारोबारी गतिविधियों वाले रिहायशी इलाकों में सीलिंग अभियान शुरू कर दिया है।
अब दिल्ली में चल रही राजनीति का रुख करते हैं। तीनों निगमों में भाजपा का बहुमत है। केंद्र सरकार भी भाजपा की ही है। ऐसे में भाजपा को सूझ ही नहीं रहा है कि वह क्या करे? क्या उसे कारोबारियों के गुस्से को न्योता देने का जोखिम लेना चाहिए या चुप रहकर पूरी नीति को ही दोषी ठहराने लगे? आखिर स्पष्ट नीति नहीं होने से ही रिहायशी इलाकों में कारोबार चलते रहे हैं। आख्यानात्मक साक्ष्य बताते हैं कि दिल्ली के कारोबारी कुल श्रम शक्ति के करीब 30 फीसदी लोगों को रोजगार देते हैं। इसके अलावा दिल्ली के सकल घरेलू उत्पाद में सबसे बड़ा अंशदान भी कारोबारी समूह का ही है।
दिल्ली के कामकाजी लोगों को अन्य इलाकों में बसाने के इरादे से काउंटर-मैग्नेट क्षेत्रों का विकास ही नहीं किया गया है। इस समस्या से निपटने के लिए राजनीति को परे रखते हुए एक ऐसी नीति बनानी होगी जिस पर हर कोई सहमत हो और फिर पुराने अनुभवों से सबक लेते हुए खामियों को दूर कर उसे लागू किया जाए। सीलिंग का मामला गरमाने के बाद मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने जब सर्वदलीय बैठक बुलाई थी तो भाजपा की दिल्ली इकाई के प्रमुख मनोज तिवारी स्टडी टूर पर मॉरीशस चले गए। (तिवारी फिल्मों के बड़े अभिनेता एवं गायक हैं और उनका सबसे मशहूर गाना 'जीअ हो बिहार के लाला' है।) वह इस मामले में क्या कर सकते थे? वह दिल्ली से निर्वाचित सात भाजपा सांसदों में शामिल हैं। इसके अलावा नगर निगमों में भाजपा का ही कब्जा है। ऐसे में भाजपा नेतृत्व दिल्ली के निवासियों को यह भरोसा दिला पाने में नाकाम रहा है कि वह लोगों की संपत्ति को सीलिंग से बचाने के लिए पुख्ता कदम उठा रहा है। आज से करीब 12 साल पहले दिल्ली में चलाए गए ऐसे ही सीलिंग अभियान के चलते कांग्रेस को 2007 के निगम चुनावों में हार का सामना करना पड़ा था। इस बार भाजपा की ऐसी स्थिति हो सकती है। दूसरी तरफ कांग्रेस ने अपनी हालत सुधारने के लिए बहुत कम कोशिश की है। जहां तक आप का सवाल है तो यह पार्टी इस समय माफीनामे के दौर से गुजर रही है और लाभ का पद मामले में 20 विधायकों की सदस्यता निरस्त होने का खतरा मंडरा रहा है। अगर ऐसा होता है तो केजरीवाल सरकार की स्थिरता सवालों के घेरे में आ जाएगी।
पिछले दो हफ्ते से संसद के दोनों सदनों में शायद ही कोई सार्थक काम हुआ है। कानून मंत्री फेसबुक के कर्ताधर्ता मार्क जकरबर्ग को धमकाने में ही लगे हुए हैं। गृह मंत्री और उप राज्यपाल फिलहाल इस पिंजरे को संभालने में लगे हैं लेकिन जब पिंजरा टूटेगा और लोगों का गुस्सा फूटेगा तो उसे संभालना काफी मुश्किल होगा। जरूरत के समय हमारे राजनेता कहां हैं?
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