कई लोगों को यह सवाल परेशान कर रहा है कि आखिर कोई क्यों इस बारे में नहीं सोच रहा है कि सरकार ने विशाल राजकोषीय राहत के रूप में पहले ही काफी कुछ दिया है। यह राहत एक दशक में सबसे ज्यादा है। क्षण भर के लिए लोग इस तथ्य को नजरअंदाज कर देते हैं कि सरकार का एजेंडा चार महीने के लिए लेखानुदान लेने के अलावा कुछ नहीं था। राजकोषीय घाटे के आंकड़े इतने अच्छे नहीं हैं। यह घाटा वर्ष 2007-08 में जीडीपी के 2.7 प्रतिशत की तुलना में दोगुना होकर इस साल 6 प्रतिशत होने जा रहा है। एक बात यह भी है कि जीडीपी का 1.8 प्रतिशत सरकार ने विशेष प्रतिभूतियों के रूप में दिया है। समस्या यह है कि व्यापार जगत को ज्यादातर पैसा नहीं मिला है। पेट्रोलियम उत्पादों और उर्वरक पर सब्सिडी का ज्यादातर हिस्सा विदेशों में सप्लायरों को चला गया है। कृषि कर्जों की माफी ने किसानों का बोझ खत्म किया है। लिहाजा, छोटे और सीमांत किसान अब ज्यादा कर्ज ले और खर्च कर सकते हैं, लेकिन इसका भी असर जितनी कर्ज माफी हुई है, उससे कम ही रहने की संभावना है। किसी ने भी यह दलील नहीं दी है कि इस साल ग्रामीण जगत की मांग कम होने की समस्या है। कृषि उत्पादन में लगातार चार साल से 3.7 प्रतिशत की सालाना वृध्दि और गेंहू और चावल के खरीद मूल्य में 60 प्रतिशत इजाफे के मद्देनजर किसानों ने अपने खर्च में कटौती नहीं की है। ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत खर्च को दोगुना करने से उद्योग के परेशान क्षेत्र का कुछ भला नहीं हुआ है। दूसरे शब्दों में कहें तो घाटे का जो अतिरिक्त बोझ इस साल आया है उसका ऑटोमोबाइल, निर्माण, यात्रा और अन्य परेशान क्षेत्रों को खास फायदा नहीं होगा। इस साल सरकारी उधारी में 150 प्रतिशत की वृध्दि ने मौद्रिक प्रणाली से काफी कुछ वह राशि सोख ली है जो रिजर्व बैंक के कदम उठाने से आई थी। कहना तो यह सही होगा कि अगर सरकार ने सारे पैसे खर्च नहीं किए होते और उसका ध्यान खर्च को कम करने में होता ताकि ब्याज दर कुछ और नीचे आ पाते तो ऐसे क्षेत्र ऑटोमोबाइल, अचल संपत्ति, टिकाऊ उपभोक्ता) जिन पर ऊंची ब्याज दरों की जोरदार मार पड़ी है, शायद बेहतर प्रदर्शन कर पाते। पर इस तर्क की अपनी सीमाएं भी हैं। अगर पेट्रोलियम उत्पादों पर सब्सिडी नहीं दी जाती तो चाहे कोई भी कदम उठाए जाते पेट्रोल और डीजल की ऊंची कीमतों की वजह से कारों और ट्रकों की बिक्री घटनी ही थी। बीते हफ्तों में जो नई सच्चाई सामने निकलकर आई है वह यह है कि कारोबारी बैंकों की ओर से ऋण वितरण घटा है। ऊर्जा के लिए मांग भी घटी है। ये कुछ ऐसे ट्रेंड हैं जिन्हें पहले नहीं देखा गया था। शायद अभी भी वास्तविक हालात को समझ नहीं पा रहे हैं क्योंकि फिलहाल स्थिति पर 7 फीसदी जीडीपी विकास का मुखौटा लगा हुआ है। सवाल यह है कि किसी भी परेशानी का हल राहत पैकेज ही हो सकता है क्योंकि अगर यही एकमात्र उपाय है तो तय है कि इससे राजकोषीय घाटा तो बढ़ेगा ही। फिर सरकार को और कर्ज लेना पड़ेगा, जिससे ब्याज दरों पर दबाव भी बढ़ेगा। या फिर सरकार को राहत पैकेजों से दूरी बनाई रखनी चाहिए ताकि ब्याज दरें नीचे रहें और कारोबार को प्रोत्साहन मिल सके। भले ही यहां चुनाव बहुत आसान नहीं होगा, पर कारोबारियों और अर्थशास्त्रियों को गुट बनाने से पहले कुछ तो विचार करना होगा।
