प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अगुआई वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार के पांच साल पूरे होने को हैं। इस दौरान कहीं साझा न्यूनतम कार्यक्रम का दबाव, सहयोगी दलों की खींचतान और कहीं लोकलुभावन नीतियों का लालच और आखिर में मंदी.. सरकार काफी हद तक उसी मुकाम पर दिख रही है, जहां से उसने शुरुआत की थी। महंगाईसरकार ने कमोबेश पूरे कार्यकाल में मुद्रास्फीति पर लगाम लगाए रखी, लेकिन आखिरी साल में उसने भी बगावत कर दी। मुद्रास्फीति दर को सरकार काबू में ले आई है, लेकिन थाली का महंगा होना बदस्तूर जारी है। कृषिसरकार ने कृषि ऋण को 3 साल में दोगुना करने की बात कही थी। पिछले साल बजट पेश करते समय 60,000 करोड़ रुपये की कर्ज माफी का ऐलान कर सरकार काफी हद तक इसमें कामयाब भी रही। रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्यसरकार ने राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून लागू किया। ग्रामीण रोजगार गारंटी को बेशक सरकार की बड़ी उपलब्धि माना जा सकता है। सरकार ने स्वास्थ्य के मद में खर्च बढ़ाकर जीडीपी का 2 से 3 फीसदी करने की बात कही थी, लेकिन इस मामले में उसने कोई कदम नहीं उठाया है और यह खर्च कमोबेश 2003-04 के स्तर पर यानी महज 1 फीसदी के आसपास ही है। वित्तीय सुधारवित्तीय मोर्चे पर संप्रग सरकार के लिए कई नाकामियां हाथ आईं। सबसे बड़ी नाकामी वित्तीय घाटे पर काबू नहीं कर पाना है, जिसके लिए सरकार साल दर साल दावे ही करती रही। चुनावी साल देखते हुए छठे वेतन आयोग को लागू करने का जो फैसला सरकार ने लिया है, उससे कुल घाटा 5 फीसदी तक पहुंचने की चेतावनी रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर सी रंगराजन भी दे चुके हैं। 1991 के आर्थिक संकट के बाद चालू खाता घाटा इतने ऊंचे स्तर तक पहली बार पहुंच रहा है। कर सुधारकर ढांचे में सुधार ऐसा मोर्चा है, जहां संप्रग सरकार ने पूरी गंभीरता दिखाई। राजस्व बढ़ाने के लिए उसने प्रतिभूतियों के सौदे पर सिक्योरिटीज ट्रांजैक्शन टैक्स, वेतन से इतर आय पर फ्रिंज बेनीफिट टैक्स (एफबीटी) और जिंस सौदों पर कमोडिटी ट्रांजैक्शन टैक्स लागू किए। सरकार ने लाभांश वितरण कर लागू किया और सेवा कर का दायरा भी बढ़ाया। सबसे महत्वपूर्ण कर वैट को लागू करना है। अप्रैल 2005 में लागू इस कर के जरिये राज्य स्तर पर बिक्री कर की जटिलता खत्म हुई। मनमोहन के 5 साल जीडीपी की चाल2004-05 7.5 2005-06 9.4 2006-07 9.6 2007-08 9.0 2008-09 7.1* *अनुमानित
