राह नहीं आसान | संपादकीय / February 04, 2018 | | | | |
वित्त मंत्री अरुण जेटली ने गत सप्ताह वर्ष 2018-19 का जो बजट प्रस्तुत किया उसकी सबसे अधिक ध्यान खींचने वाली योजना वह थी जिसमें करीब 50 करोड़ गरीबों या कहें 10 करोड़ गरीब परिवारों के लिए एक नई सरकार समर्थित चिकित्सा बीमा योजना लाने की बात कही गई। सरकार इन गरीबों को 5 लाख रुपये तक का बीमा मुहैया कराएगी और वे किसी बड़ी चिकित्सा समस्या के दौरान किसी भी अस्पताल में जाकर इलाज करा सकेंगे। वित्त मंत्री ने इसे सार्वभौमिक स्वास्थ्य बीमा की दिशा में पहला कदम बताया है जो सन 2014 में सत्ताधारी दल के चुनावी घोषणा पत्र का अहम हिस्सा था। इस योजना के पीछे जो नीयत है उसका स्वागत किया जाना चाहिए। देश की बीमा नियामक संस्था आईआरडीए के मुताबिक देश में करीब दो-तिहाई चिकित्सा व्यय मरीजों या उनके परिजन द्वारा सीधे चुकाया जाता है। यह आंकड़ा बहुत ज्यादा है और गरीबी रेखा से ऊपर आने वाले अधिकांश परिवारों के दोबारा गरीबी के भंवर में जाने के लिए चिकित्सा व्यय ही उत्तरदायी होता है। स्वास्थ्य पर निजी खर्च को कम किए जाने की आवश्यकता है, खासतौर पर जेब से लगने वाले पैसे को। इसके अलावा सार्वजनिक व्यय में इजाफा करना भी आवश्यक है।
परंतु यह निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता है कि सरकारी लागत से निजी चिकित्सा का प्रावधान इस लक्ष्य को हासिल करने का सबसे बेहतर तरीका है भी या नहीं। ऐसी व्यवस्था में खास प्रक्रियाओं की लागत का नियंत्रण करना और यह सुनिश्चित करना कि मरीजों को जरूरत से ज्यादा उपचार न दिया जाए या उसे अनावश्यक रूप से ऑपरेशन की सलाह न दी जाए, यह सुनिश्चित करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। अभी यह भी स्पष्ट नहीं है कि ऐसी किसी नियामकीय व्यवस्था की योजना बनाई जा रही है या नहीं जो ऐसी आशंकाओं से निपटने का काम कर सके। या फिर देश में नियामकीय क्षमताओं की कमजोरी को देखते हुए कहें तो यह संभव भी है या नहीं? मौजूदा चिकित्सा नियमन संस्थान मसलन भारतीय चिकित्सा परिषद आदि का रिकॉर्ड खुलेपन, क्षमता या ईमानदारी को लेकर कोई बहुत बेहतरीन नहीं रहा है।
यह बात भी ध्यान देने लायक है कि इस योजना की लागत कितनी होगी यह अभी तक साफ नहीं है। हाल में प्रस्तुत आम बजट में स्वास्थ्य क्षेत्र के आवंटन में भी कोई उल्लेखनीय इजाफा नहीं किया गया है जिसके बारे में कहा जा सके कि वह इस योजना के लिए किया गया है। स्वास्थ्य क्षेत्र के आवंटन में 150 करोड़ रुपये से भी कम की बढ़ोतरी की गई है। यह राशि पर्याप्त नजर नहीं आती। इस योजना की वास्तविक लागत का अनुमान अलग-अलग है। कुछ विश्लेषकों का कहना है कि इसकी लागत 50,000 करोड़ रुपये तक हो सकती है। सरकार का जोर इस बात पर है कि 100 अरब रुपये की राशि पर्याप्त है और इसका बोझ राज्य सरकारें वहन करेंगी। सरकार की इस योजना के ढांचे और इसके लिए फंड के बारे में और ब्योरे आवश्यक हैं।
ऐसे समय में जबकि वित्तीय स्थिति तंग है, तो यह बात समझी जा सकती है कि सरकार अपना वादा निभाना भी चाहती है और शुरुआती आवंटन कम से कम रखना चाहती है। परंतु एक बढिय़ा सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रम कभी सस्ता नहीं हो सकता। न ही निजी प्रावधान आधारित योजना मध्यम से लंबी अवधि में बेहतर साबित हो सकती है। आशा की जानी चाहिए कि देश की 40 फीसदी आबादी को स्वास्थ्य सुविधा मुहैया कराने संबंधी इस योजना को लेकर होने वाली खुली चर्चा का डिजाइन और क्रियान्वयन करते वक्त सरकार यह स्वीकार करेगी कि बढिय़ा सरकारी अस्पतालों, चिकित्सकों और चिकित्सा नियमन पर धन खर्च करने का कोई विकल्प ही नहीं है।
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