कैसे कामयाब मेक इन इंडिया? | अजय छिब्बर / January 11, 2018 | | | | |
प्रधानमंत्री दावोस में नया भारत बनाने में मदद का आह्वान करेंगे। 'मेक इन इंडिया' का नारा जबरदस्त है लेकिन अब तक ऐसा कुछ नहीं बना जो वैश्विक स्तर पर आकर्षण का केंद्र बने। बता रहे हैं अजय छिब्बर
सन 1991 में उदारीकरण की शुरुआत के बाद और वर्ष 2000 से 2013 के बीच सहज वैश्विक माहौल के बीच देश का गैर तेल निर्यात करीब 18 फीसदी वार्षिक की दर से बढ़ा। इस बीच देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 8 फीसदी की दर से वृद्घि हुई जो अब तक की सबसे तेज वृद्घि है। परंतु इस नीति का हम अब तक पूरा लाभ ले चुके हैं। देश का निर्यात वित्त वर्ष 2013-14 में 31,500 करोड़ डॉलर था जो वित्त वर्ष 2016-17 तक घटकर 27,700 करोड़ डॉलर रह गया। सुधार के कुछ संकेत मिले हैं लेकिन अगर देश वित्त वर्ष 2025-26 तक 5 लाख करोड़ डॉलर मूल्य की अर्थव्यवस्था बनना चाहता है तो उसे निर्यात को 1 लाख करोड़ डॉलर मूल्य से ऊपर ले जाना होगा। आयात में इजाफा हो रहा है जिसका नुकसान घरेलू उद्योग जगत को उठाना पड़ रहा है। वास्तविक विनिमय अधिमूल्यित बना हुआ है। वित्त वर्ष 2016-17 में आयात 38,300 करोड़ डॉलर रहा जिसे वर्ष 2025-26 तक 1.2 लाख करोड़ डॉलर तक सीमित रखना होगा। इससे देश कहीं अधिक प्रतिस्पर्धी बनेगा। एक सफल व्यापार नीति को एक प्रतिस्पर्धी औद्योगिक नीति की आवश्यकता है।
नेटवक्र्ड उत्पादों के क्षेत्र में भारत मोटे तौर पर नदारद नजर आता है। भारत इस क्षेत्र में वैश्विक व्यापार के 0.5 फीसदी के बराबर यानी 2,500 करोड़ डॉलर का निर्यात करता है। इसमें असेंबल किए हुए निर्यात की हिस्सेदारी 1,500 करोड़ डॉलर का और घटकों की हिस्सेदारी 1,000 करोड़ डॉलर की है। जबकि इस क्षेत्र में चीन की हिस्सेदारी 20 फीसदी है। कोरिया की हिस्सेदारी 5 फीसदी, सिंगापुर की 3.5 फीसदी, मलेशिया की 2 फीसदी, थाईलैंड की 2 फीसदी और वियतनाम की 1 फीसदी है। वैश्विक मूल्य शृंखला (जीवीसी) में देश की कमजोर स्थिति की वजह खराब लॉजिस्टिक्स, बिजली आपूर्ति की अनिश्चितता और अपेक्षाकृत ज्यादा श्रम विवाद हैं।
भारत चुनिंदा उत्पादों के मामले में सफल रहा है। उसने न केवल व्यापार व्यवस्था को उदार बनाया बल्कि कई सामरिक नीतियों को भी बदला। उदाहरण के लिए असेंबल किए हुए वाहन निर्यात में भारत की सफलता में 10 वर्षीय योजना की अहम भूमिका रही। नैशनल ऑटोमोटिव टेस्टिंग ऐंड रिसर्च ऐंड डेवलपमेंट पॉलिसी ने भी इसमें अहम भूमिका निभाई। नेट्रिप्स के तहत 2016 तक 15,000 करोड़ डॉलर के उत्पादन का लक्ष्य तय किया गया था। इससे देश चुनिंदा श्रेणियों में वरीयता हासिल करने में कामयाब रहा।
वाहन क्षेत्र की तरह देश इलेक्ट्रॉनिक्स, दूरसंचार, हार्डवेयर, इलेक्ट्रिकल मशीनरी, कंप्यूटर और ऑफिस मशीन आदि के क्षेत्र में भी बड़ा केंद्र बन सकता है, बशर्ते कि इसे ऐसी ही योजना मुहैया कराई जाए और क्षेत्र का निर्यात मौजूदा 1,500 करोड़ डॉलर से बढ़ाकर 2025 तक 15,000-20,000 करोड़ डॉलर किया जा सके। इसके लिए बेहतर लॉजिस्टिक्स, कुशल प्रबंधन, अच्छी बिजली आपूर्ति और शोध आदि की आवश्यकता होगी। फिलहाल ऐसा नजर नहीं आता। भारत एयरोनॉटिक्स और वाहन कलपुर्जा के बड़े केंद्र के रूप में उभर रहा है। इस क्रम में एफडीआई जुटाने का सचेतन प्रयास किया जा रहा है। इसमें 30 फीसदी की घरेलू आपूर्ति की शर्त रखी जा रही है। भारत कई उद्योगों में कलपुर्जा आपूर्ति का गढ़ बन सकता है। वह विकसित देशों में अपना निर्यात 1,000 करोड़ डॉलर से बढ़ाकर 10,000 करोड़ डॉलर कर सकता है। इस प्रकार वह सचेत ढंग से जीवीसी में शामिल हो सकता है।
देश का दवा उद्योग का भी विकास हुआ क्योंकि भारत ने सन 1970 के दशक में एक गैर ट्रिप्स (ट्रेड रिलेटेड अस्पेक्ट्स ऑफ इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स) अनुपालित पेटेंट नीति विकसित की। इसकी मदद से दवा उद्योग का मजबूती से विकास हुआ और सन 2005 में जब ट्रिप्स अनुपालित अधिनियम पेश किया गया तो उसकी आंतरिक शोध विकास क्षमता ने उसे विश्व बाजार में प्रतिस्पर्धी बनाए रखा। भारत डिजाइन, वास्तु, अंकेक्षण, लॉजिस्टिक्स आदि के मामले में सूचना प्रौद्योगिकी सेवाओं का एक बड़ा आपूर्तिकर्ता देश है। परंतु खुद अपने देश में इनका बहुत अधिक इस्तेमाल नहीं होता। कुछ लोग हैं जो कहते हैं कि भारत को सेवा या विनिर्माण पर ध्यान देना चाहिए। यह सही चयन नहीं है। इसके बजाय भारत इलेक्ट्रॉनिक्स और इलेक्ट्रिकल मशीनरी, रक्षा उपकरण और हरित तकनीक जैसे कई क्षेत्रों में विश्वस्तरीय सेवाएं दे सकता है।
कुछ लोग कहते हैं कि केवल छोटे और मझोले उद्यमों पर ध्यान देने की आवश्यकता है। भारत को हर प्रकार के उद्यमों में तेज वृद्धि की जरूरत है। उसे बड़ी मझोली और छोटी कंपनियों के बीच तालमेल के साथ समझौता करने की जरूरत है। हमें मझोले आकार की कंपनियां चाहिए जिनमें 100-500 कर्मचारी हों। दुखद बात यह है कि भारत अपने पारंपरिक श्रम आधारित निर्यात क्षेत्र यानी वस्त्र, चमड़ा और जूते-चप्पल में पिछड़ रहा है। यह निर्यात घटकर 3,000 करोड़ डॉलर रह गया है। हाल के वर्षों में भारत का निर्यात कुशल श्रम और पूंजी आधारित उद्योगों की ओर स्थानांतरित हुआ है। अब यह विकसित बाजारों से अफ्रीका और एशिया के विकासशील क्षेत्रों में स्थानांतरित हो गया है। यूरोपीय संघ के 2 लाख डॉलर के निर्यात में भारत की हिस्सेदारी केवल 4,000 करोड़ डॉलर की है। लैटिन अमेरिका और कैरेबिया के कुल 80,000 करोड़ डॉलर के आयात में भारत का योगदान महज 1,000 करोड़ डॉलर का है।
सामरिक व्यापार नीति का अर्थ बाजारों को खोलना भर नहीं है। भारत को दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों के मुक्त व्यापार समझौते की समीक्षा करनी चाहिए। ऐंटी डंपिंग के लिए अस्थायी शुल्क की जरूरत हो सकती है लेकिन शुल्क का दायरा विश्व व्यापार संगठन के ढांचे के मुताबिक हो। निर्यात को एक लाख करोड़ डॉलर के स्तर पर पहुंचाने के लिए वर्ष 2025-26 तक उसे सालाना 18 फीसदी की दर से बढ़ाना होगा। हम सन 2000 से 2013 के बीच ऐसी तेज वृद्धि हासिल कर चुके हैं। उदारीकरण के 25 साल बाद इस नए भारत को सामरिक व्यापार और उद्योग नीति की आवश्यकता है जिसमें पारंपरिक श्रम आधारित निर्यात को बढ़ावा देने, नेटवर्क वाले उत्पादों की गुंजाइश बनाने तथा अधिमूल्यित विनिमय दर से बचने और बेहतर व्यापार समझौते करने की काबिलियत हो। सरकार और निजी क्षेत्र मिलकर भारत को एक नए क्षितिज पर ले जा सकते हैं।
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