सोनिया गांधी आज कांग्रेस का नेतृत्व अपने बेटे राहुल को सौंप रही हैं। यह जानना दिलचस्प होगा कि आखिर इतिहास उनके लंबे कार्यकाल का आकलन कैसे करेगा? सोनिया को राजनीति में सफलता आसानी से नहीं मिली है। उनके कार्यकाल में अनेक मुश्किल क्षण आए। चुनावी नाकामियों के अलावा एक मौका ऐसा भी आया जब उन्होंने 272 सांसदों के समर्थन का दावा करते हुए सरकार बनाने की बात कही लेकिन यह आंकड़ा पूरा नहीं हुआ और उन्हें शर्मिंदगी उठानी पड़ी। वह भाजपा की अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव भी लेकर आई थीं। भले ही वाजपेयी सरकार गिर गई लेकिन ज्यादा मजबूत होकर वापस भी आई। वे उनके संसदीय प्रबंधन सीखने के दिन थे। उन्होंने विभिन्न सहयोगियों की क्षमताओं का आकलन किया। लोकसभा में शिवराज पाटिल उनके सहयोगी थे और संसदीय कार्यों में उनकी मदद करते थे। जब कांग्रेस की सरकार बनी तो पाटिल को गृहमंत्री बनाया गया। यह सोनिया के भरोसे के कारण ही हो सका। धीरे-धीरे सोनिया में मजबूती आई और उन्हें राज्यों में जीत मिलनी शुरू हो गई। केंद्र में भाजपा-नीत गठबंधन सरकार के दौर में भी कई राज्यों में कांग्रेस का शासन था। वर्ष 2004 के आम चुनाव में वामदलों के सहयोग के साथ मिली गठबंधन जीत उनके करियर के उत्थान का पल था। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के गठन ने दिखाया कि सोनिया एक राजनेता के तौर पर परिपक्व हुई हैं। वह 13वीं लोकसभा (1999-2004) के पहले हिस्से में अन्य दलों के नेताओं से दूर ही रहती थीं। एक दिन माक्र्सवादी सोमनाथ चटजी उनसे मिले और उन्हें सुझाया कि सबसे बड़े विपक्षी दल की नेता के रूप में उनको कांग्रेस तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए बल्कि एक व्यापक धर्मनिरपेक्ष ताकत तैयार करनी चाहिए। उन्होंने इस बात को समझा और चटर्जी के घर रात्रिभोज पर जाने का निर्णय लिया जहां लालू प्रसाद से लेकर रामविलास पासवान, शरद पवार जैसे कई समान विचार वाले दलों के नेता आमंत्रित थे। उस बैठक में वरिष्ठ माक्र्सवादी नेता ज्योति बसु के साथ सोनिया की हुई लंबी बातचीत खासी चर्चा का विषय बनी थी। सोनिया को यह अहसास हो गया था कि बसु और उनके वरिष्ठ साथी हरकिशन सिंह सुरजीत के साथ राजनीतिक साझेदारी अहम है। सोनिया ने राष्ट्रीय जनता दल के नेता लालू प्रसाद और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के मुखिया शरद पवार के साथ भी भरोसे का नाता कायम कर लिया। पवार ने तो सोनिया के विदेशी मूल के होने के आधार पर ही कांग्रेस से बगावत की थी। संप्रग को मिली चुनावी जीत के बाद हर कोई यही मानकर चल रहा था कि वह प्रधानमंत्री बनने जा रही हैं लेकिन उन्होंने अपनी पार्टी को अचंभित कर दिया और मनमोहन सिंह का नाम आगे बढ़ा दिया। इस तरह उन्होंने एक झटके में ही अपनी नागरिकता को लेकर सारी आलोचनाओं को ध्वस्त कर दिया। लेकिन सोनिया ने ताकत नहीं छोड़ी। उन्होंने सरकार के भीतर प्रमुख पदों पर नियुक्तियों और नीतिगत मुद्दों पर अपने असर का इस्तेमाल करते हुए ताकत बरकरार रखी। उनके लिए खास तौर पर राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के अध्यक्ष पद का भी गठन किया गया था। उनका मानना था कि भले ही आर्थिक सुधार बहुत अच्छे रहे हैं लेकिन उनसे गरीबों का भला नहीं होगा और उनके लिए सरकार को खास नीतियां एवं कार्यक्रम बनाने होंगे। समावेशी विकास का नारा देते हुए कांग्रेस ने सरकार को राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना लाने, आदिवासियों को उनके वन-क्षेत्र का अधिकार देने वाला कानून लाने, अन्य पिछड़ा वर्गों को शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी विभागों में आरक्षण देने, सूचना का अधिकार अधिनियम लाने और शिक्षा एवं स्वास्थ्य देखभाल के लिए बड़ी धनराशि आवंटित करने के लिए बाध्य किया।हालांकि कांग्रेस पार्टी की प्रकृति दरबारियों से भरे दरबार जैसी है लेकिन सोनिया की कार्यशैली सहमति बनाने पर जोर देने की रही है लेकिन अंतिम बात उनकी ही होती थी। किसी भी बैठक में सोनिया शुरुआती बात रखतीं और फिर उस मुद्दे पर पार्टी नेताओं से राय मांगतीं। अंतिम फैसला वह अपने भरोसेमंद सहयोगियों से चर्चा के बाद ही करती रही हैं। कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता सोनिया की नेतृत्व शैली के बारे में कुछ यूं बताते हैं, 'कई बार किसी महत्त्वपूर्ण बैठक से पहले वह हममें से कुछ लोगों को बुलाकर अपने भाषण के विषय और उसकी दिशा के बारे में चर्चा करती थीं। उनके लिए नोट दो तरह से लिखे जाते थे जिनमें से कुछ शब्द तो बहुत छोटे अक्षरों और शॉर्टहैंड में होते थे। हम उन्हें समझ नहीं पाते थे, यहां तक कि ठीक से पढ़ भी नहीं पाते थे। वह हिस्सा हमारे लिए नहीं होता था। वहीं नोट का दूसरा हिस्सा बड़े अक्षरों और साफ लिखावट में लिखा होता था। बैठक के पहले हमारे सामने यह दूसरा हिस्सा ही रखा जाता था।'हालांकि सोनिया ने अपनी सास इंदिरा गांधी की तरह मुख्यमंत्रियों, कैबिनेट मंत्रियों और पार्टी पदाधिकारियों को मनचाहे तरीके से हटाने और बदलने से काफी हद तक परहेज ही रखा। सोनिया इन मामलों में अक्सर धीमी गति से और विस्तृत चर्चा के बाद ही फैसले लेती रहीं। उन्होंने अपने लंबे कार्यकाल में विरले ही किसी मुख्यमंत्री को बीच में बदला। वर्ष 2002 में जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी सबसे बड़े दल के तौर पर उभरी थी लेकिन उसकी स्थानीय सहयोगी पार्टी पीडीपी ने अपने नेता को मुख्यमंत्री बनाने की मांग रख दी थी। इस पर सोनिया ने पार्टी नेताओं की बैठक बुलाई जिसमें प्रणव मुखर्जी ने इसे मान लेने की सलाह दी। सोनिया ने पीडीपी नेता मुफ्ती मोहम्मद सईद को 10 जनपथ पर आमंत्रित किया और उनके सामने मुख्यमंत्री पद संभालने का प्रस्ताव रखा। ऐसी कांग्रेस अध्यक्ष रही हैं सोनिया गांधी।
