ऐतिहासिक गलती दोहरा रहे राहुल? | राष्ट्र की बात | | शेखर गुप्ता / December 03, 2017 | | | | |
इन दिनों युवा कैसे सोचते हैं, इस बात का आप कोई अंदाजा नहीं लगा सकते। ऐसे में यह अंदाजा लगा पाना मुश्किल है कि क्या राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष बनने के ऐन पहले अपनी धार्मिकता को लेकर वाकई कोई बहस छेडऩा चाहते थे या फिर उनकी पार्टी इस मामले में चूक की शिकार हो गई है। चाहे जो भी हो लेकिन उनकी राजनीति के नए अध्याय की पटकथा लिखी जा चुकी है।
यह कहानी लंबी चलेगी। भले ही उनके यज्ञोपवीत संस्कार और नंगे बदन और स्नान-ध्यान करते वक्त जनेऊ को कानों पर डाले उनकी तस्वीरें प्रकाशित हो रही हों लेकिन इस प्रकरण का नाटकीय अंत नहीं होगा। इसका अंत भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) द्वारा अपनाए गए गंदे तौर तरीकों से भी नहीं होने वाला है जो सोमनाथ मंदिर के पर्यटक रजिस्टर में ताकझांक कर रही है।
इसकी वजह एकदम साधारण है। राहुल की आस्था या उनकी धार्मिकता कभी राष्ट्रीय राजनीति का मुद्दा थी ही नहीं। उनकी मां को लेकर एक हद तक यह मुद्दा उछाला जा सकता है लेकिन राहुल का नहीं। आज तक किसी ने परवाह भी नहीं की होगी कि वह किस ईश्वर की उपासना करते हैं। करते भी हैं या नहीं। धर्मनिरपेक्षता की कोई तयशुदा परिभाषा नहीं है। यह नेहरू के अज्ञेयवाद से अटल बिहारी वाजपेयी के नरम, निजीकृत, समावेशी कैथलिज्म (अधार्मिक संदर्भ में) से लेकर नरेंद्र मोदी द्वारा धर्मनिरपेक्षता के संवैधानिक दायित्वों की सहज स्वीकार्यता तक विस्तारित है। वह लगातार इस बात का कुशल प्रयास करते रहे हैं कि उसे कट्टर हिंदुत्व के साथ सामंजस्य वाला बना सकें। हमने धुर वाम को यहां इसलिए नहीं रखा है क्योंकि अगर आप पक्के नास्तिक हैं तो धर्मनिरपेक्षता आपके लिए नहीं है। हम यह बहस केवल आस्थावानों तक सीमित रख रहे हैं क्योंकि अनुमान के मुताबिक 98-99 फीसदी भारतीय आस्तिक हैं।
आइए देखते हैं कि अब तक हमारी राष्ट्रीय राजनीति से जुड़ी बहस में धर्म किस प्रकार आया है: आप अपनी राजनीति में धर्म का इस्तेमाल करते हैं या कर सकते हैं अथवा नहीं? क्या आप सभी धर्मावलंबियों को समान मानते हैं? क्या आप धर्म के आधार पर वोट मांगते हैं? क्या आप ईश्वर में भरोसा करते हैं? अगर हां तो किस ईश्वर पर? आप कितनी बार प्रार्थना करते हैं? आप धार्मिक कर्मकांड करते हैं? अगर हां तो प्रमाण दिखाइए।
इस देश के लोगों ने नेहरू जैसे अज्ञेयवादी, द्रविड़ राजनीतिक दलों जैसे मूर्तिभंजकों, वाम दलों के नास्तिकों और भगवाधारी साधुओं और महंतों के साथ-साथ सिख और मुस्लिम धार्मिक नेताओं को भी बार-बार चुना है। हां, कुछ खास परिस्थितियों और क्षेत्रों में अवश्य धर्म महत्त्वपूर्ण हो जाता है। उदाहरण के लिए पंजाब में अकाली दल, केरल में मुस्लिम लीग और केरल कांग्रेस आदि इसके उदाहरण हैं। परंतु राहुल के धर्म और धार्मिकता से किसी को क्या लेनादेना? ट्विटर पर अवश्य इसे लेकर चर्चा छिड़ी हैे लेकिन यह तभी प्रभावित करेगी जब राहुल इस पर ध्यान दें।
लड़ाई चाहे सैन्य हो, राजनीतिक हो या क्रिकेट के मैदान पर हो, उसका पहला नियम यही है कि कभी अपने शत्रु के ताकतवर क्षेत्र के साथ मत खेलिए। बल्कि उसे उकसाइए कि वह आपकी मजबूती से खेलने पर मजबूर हो जाए। कांग्रेस और भाजपा के बीच का समीकरण स्पष्ट है। एक उदार और आक्रामक रूप से धर्मनिरपेक्ष है लेकिन उसमें यह क्षमता है कि वह जब चाहे अपना राष्ट्रवादी चोला पहन ले और धार्मिक भी हो जाए। वहीं दूसरा दल कट्टर हिंदुत्व की बात करता है जो धर्मनिरपेक्षता की संवैधानिक अनिवार्यता से बंधा है। वह उग्र राष्ट्रवाद और अति धार्मिकता को लेकर चलने वाला दल है।
पता नहीं राहुल को क्या सूझी कि वह भाजपा की ताकत के साथ खेल बैठे। जापान के आत्मघाती हमलावर कामिकेज को याद करें। उनकी रोंगटे खड़ी कर देने वाली कहानी याद की जाती है लेकिन जंग और उनकी जिंदगी दोनों के खत्म हो जाने के बाद अरसे बाद। राहुल की यात्राओं को वर्ष 2014 के बाद के भारत की हकीकत की स्वीकार्यता के रूप में देखा जाना चाहिए। इस नए भारत में धर्म को नए राष्ट्रवाद के साथ सफलतापूर्वक मिला दिया गया है। अल्पसंख्यकों को इस प्रतिष्ठान के ढांचे से दूर रखा गया है। इसके पीछे दलील यही है कि अगर आप हमें वोट नहीं देते हो तो सत्ता में हिस्सेदारी के लिए आगे क्यों आते हो? अधिकांश हिंदू मतदाताओं ने इस बात को स्वीकार कर लिया है। ऐसे में मैं भी हिंदू का नारा बुलंद करने के सिवा विकल्प ही क्या बचा है।
अब यह मामला मंदिरों की यात्राओं या राहुल द्वारा सोमनाथ मंदिर के रजिस्टर पर हस्ताक्षर से कहीं परे निकल गया है। यह राजनीतिक यात्रा थी और इसमें कोई दिककत की बात नहीं है लेकिन अगर नेहरू गांधी परिवार का एक सदस्य गुजरात चुनाव प्रचार अभियान के दौरान सोमनाथ मंदिर की यात्रा करता है तो उनके इवेंट मैनेजरों को ध्यान देना चाहिए कि आगंतुक पुस्तिका पर हस्ताक्षर जैसे मुद्दे सर उठा सकते हैं। खासतौर पर यह देखते हुए कि इन दिनों देश में मोदी का शासन है। इस बहस की दिशा बदल सकती थी अगर राहुल कुछ ऐसा कह देते: एक आस्तिक के रूप में मैं सभी उपासना स्थलों पर जाता हूं, मेरा मानना है कि आस्था एक निजी चीज है, तमाम अन्य लोगों की तरह मैं भी हिंदुत्व को दिखावे की चीज नहीं समझता। वह कह सकते थे कि एक ऐसे राज्य में जहां 22 सालों से आपका शासन है, वहां बजाय रोजगार, वृद्धि और भ्रष्टाचार के मेरी धार्मिकता को मुद्दा बनाना आपकी हार है। परंतु हुआ यह कि रणदीप सिंह सुरजेवाला राहुल की आस्था पर सवाल उठते ही भड़क गए और राहुल को न सिर्फ हिंदू बल्कि जनेऊधारी हिंदू साबित करने की कवायद शुरू हो गई। क्या एक पवित्र धागा धारण करने से कोई दूसरों से बेहतर हिंदू हो सकता है? क्या ईश्वर उन पर विशेष कृपा करता है जो ब्राह्रणवादी या वैदिक विधि विधान का पालन करते हैं और धार्मिक प्रतीक धारण करते हैं? अगर यही हिंदू होने का मानक है तो देश के करोड़ों लोग इस दायरे से बाहर हैं। सिखों या इस्लाम आदि की तरह हिंदुत्व किसी प्रतीक पर जोर नहीं देता।
सन 1977 की पराजय के पहले तक गांधी परिवार की धार्मिकता सार्वजनिक रूप से नजर नहीं आती थी। शायद हार की पराजय ने इंदिरा गांधी को बदल दिया या फिर शायद इसका ज्यादा संबंध संजय गांधी के अचानक निधन से है। अचानक रुद्राक्ष ज्यादा नजर आने लगा, बाबा और तांत्रिक दृश्य में आ गए। कुछ तांत्रिकों ने इंदिरा गांधी की असुरक्षाओं को निशाना बनाया। एक समय तो उन्हें यह चिंता भी होने लगी थी कि उनके शत्रु कबूतरों और अन्य चिडिय़ों की मदद से उन तक नकारात्मक शक्तियां भेज सकते हैं। उनके सुरक्षाकर्मियों को आदेश दिया गया था कि वे सारी खिड़कियां बंद कर दें ताकि उनके कमरे तक कोई परिंदा किसी हाल में न पहुंचे। परंतु उन्होंने कभी अपनी इस धार्मिकता का प्रदर्शन नहीं किया, न ही उनसे सवाल पूछे गए। राजीव गांधी के कार्यकाल में बदलाव आना शुरू हुआ।
इसकी शुरुआत तब हुई जब शाहबानो मामले में वह सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के खिलाफ मौलवियों के आगे झुक गए। इससे मध्यमार्गी हिंदुओं को झटका लगा और भाजपा (जो उस समय लोकसभा में महज दो सीटों पर थी) को नई जान मिली। उसने धर्मनिरपेक्षता, वोट बैंक की राजनीति के नाम पर मुस्लिम तुष्टीकरण का मुद्दा उठाया। प्रतिक्रिया स्वरूप राजीव गांधी ने एक के बाद एक गलतियां कीं। उन्होंने बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि स्थल का ताला खुलवाया। काफी हद तक मंदिर के शिलान्यास का समर्थन किया और सन 1989 में राम राज्य लाने के वादे के साथ चुनाव मैदान में उतरे। चुनाव नतीजे आए और कांग्रेस अपनी 414 सीटों में से आधी से ज्यादा गंवा बैठी। वह मुस्लिम मत भी गंवा बैठी और भाजपा को वह जगह मिली जो वह चाहती थी यानी जातिभेद को हिंदुत्व से पाटना।
कांग्रेस इससे कभी उबर नहीं पाई। राजीव उस समय कई संकटों से घिरे हुए थे। शाहबानो मामले ने उनकी उदार-धर्मनिरपेक्ष छवि को नुकसान पहुंचाया। जल्दबाजी में संतुलन कायम करने की कोशिश में वह मुस्लिमों को भी गंवा बैठे और हिंदुओं को भाजपा के पाले में डाल दिया। उन्होंने भाजपा की शर्तों पर उसकी ताकत से जूझने की गलती की। अगर राहुल उस इतिहास को दोहराना चाहते हैं तो वह ऐसा कर सकते हैं। वह एक वयस्क हैं और अपनी पार्टी के मुखिया बनने जा रहे हैं।
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