नीति आयोग ने सार्वजनिक एवं निजी भागीदारी से द्वितीयक एवं तृतीयक स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं की मजबूती का प्रस्ताव रखा मगर प्राथमिक वर्ग को नजरअंदाज करना भारी पड़ सकता है। बता रहे हैं गोपी गोपालकृष्णन नीति आयोग और केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने देश में द्वितीयक एवं तृतीयक स्तरीय स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं को मजबूत करने के लिए निजी क्षेत्र के साथ मिलकर काम करने का प्रस्ताव रखा है। हालांकि इस प्रस्ताव में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं को जिस तरह बाहर रखा गया है उससे इस समाधान के भी कारगर हो पाने को लेकर आशंका पैदा हो रही है। सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा में एक अपरिवर्तनीय एवं मूलभूत खामी है। चिकित्सा का एक सुदृढ़ एवं आर्थिक रूप से व्यवहार्य स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली में बीमारियों के जन्म पर रोक लगाने और उस सामान्य बीमारी को अधिक गंभीर रूप अख्तियार नहीं कर पाने को तरजीह दी जाती है। प्राथमिक एवं उपचारात्मक स्वास्थ्य सेवाओं की वजह से ही ऐसा हो पाता है। लेकिन नीति आयोग के प्रस्ताव में इस पहलू को नजरअंदाज किया गया है। निर्बाध संपर्क और सेवा मुहैया कराने में नवाचार के इस दौर में यह उपेक्षा लगभग अविवेकपूर्ण है। मोबाइल फोन की व्यापक उपलब्धता और डिजिटल इंडिया की हालिया मुहिमों से स्वास्थ्य सेवाओं तक सभी की पहुंच सुनिश्चित करने का अभूतपूर्व अवसर पैदा होता दिख रहा है। स्वास्थ्य देखभाल क्षेत्र में किसी भी नई पहल के कारगर होने के लिए जरूरी है कि वह देश भर में फैले 153,700 स्वास्थ्य उपकेंद्रों और 25,300 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (पीएचसी) को लगातार अपने केंद्र में रखे। इन स्वास्थ्य प्रदाता केंद्रों को इस तरह डिजाइन किया गया है कि वे स्वास्थ्य देखभाल की दिशा में पहले स्तंभ के तौर पर काम करें। देश भर में पैदा होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं का तीन-चौथाई दरअसल प्राथमिक एवं उपचारात्मक स्वास्थ्य मुद्दों से ही जुड़ा होता है लिहाजा अधिकारियों के लिए इन स्तरों पर संसाधनों को सशक्त बनाना जरूरी है। ऐसा होने से स्वास्थ्य देखभाल में लगे डॉक्टर यह तय कर पाएंगे कि वे खुद उस व्यक्ति का इलाज कर सकते हैं या फिर उसे बड़े डॉक्टर के पास भेजने की जरूरत है। यह फिल्टरिंग प्रक्रिया स्वास्थ्य देखभाल की दिशा में मौजूद समस्या की असली जड़ है। वैसे जमीनी स्तर से समाधान करने को लेकर नीति आयोग की हिचक को कुछ हद तक समझा जा सकता है। ग्रामीण इलाकों में कोई भी निजी डॉक्टर काम नहीं करना चाहता है। अनुभवी सामान्य एवं विशेषज्ञ डॉक्टर कहीं पर भी आला दर्जे की द्वितीयक एवं तृतीयक स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराने के लिए जरूरी हैं लेकिन सरकारी क्षेत्र में उनकी संख्या पहले से ही काफी कम है। पहले से ही विशेषज्ञ डॉक्टरों की 70 फीसदी किल्लत है और यह संख्या और भी कम हो रही है। इस स्थिति में निजी क्षेत्र इस कमी की भरपाई करने को लेकर काफी खुश है। लेकिन सशक्त प्राथमिक स्वास्थ्य के बगैर निजी डॉक्टरों को सीधे द्वितीयक एवं तृतीयक स्तर पर तैनात करने का उलटा नतीजा भी हो सकता है। सरकार की तरफ से जारी कई बड़े अध्ययनों में यह सामने आया है कि द्वितीयक एवं तृतीयक स्तर पर होने वाले इलाज का 70 फीसदी से भी अधिक हिस्सा असल में प्राथमिक स्वास्थ्य का ही है। अब आप समझ सकते हैं कि सदर अस्पतालों में एक ही बिस्तर पर तीन मरीज क्यों होते हैं? अगर हम यह मान लें कि ग्रामीण इलाकों में निजी डॉक्टर लगभग नदारद हैं तो हमारी रणनीति पीएचसी में तैनात डॉक्टरों पर केंद्रित होनी चाहिए। करीब 90 करोड़ ग्रामीण आबादी के लिए 27,400 सरकारी डॉक्टर ही तैनात हैं (यानी प्रति 33,000 लोगों पर एक डॉक्टर है जबकि यह अनुपात 1:1000 होना चाहिए)। हमें ग्रामीण इलाकों में तैनात डॉक्टरों के साथ निजी डॉक्टरों को भी जोडऩा होगा। इसका एक तरीका तो यह है कि पीएचसी पर निजी डॉक्टरों को तैनात किया जाए लेकिन ऐसा कर पाना आसान नहीं होगा। दूसरा तरीका यह है कि शहरों में मौजूद निजी डॉक्टर वीडियो के जरिये मरीजों को परामर्श दें। हरेक साल करीब 45,000 डॉक्टर बनते हैं लेकिन दूरदराज के इलाकों में उन्हें तैनात कर पाना लगभग नामुमकिन नजर आता है। ऐसे में इसका व्यावहारिक विकल्प यही दिखता है कि तेजी से विकसित हो रहे संचार नेटवर्क का इस्तेमाल किया जाए। अस्पतालों में काफी भीड़ होती है लेकिन वहां पर भी पर्याप्त डॉक्टर नहीं हैं और ग्रामीण क्षेत्रों में स्थिति और भी गंभीर है। प्राथमिक एवं निवारक स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करना असल में सरल काम है। इसके लिए कुछ बुनियादी दक्षता और कम-खर्च वाली ऐसी सुविधाओं की जरूरत होती है जिससे वे दूर बैठे डॉक्टर से भी संपर्क साध सकेंगे। दरअसल डाटा संपीडित करने में भारत को हासिल महारत ने दूर रहते हुए भी चिकित्सकीय निदान को संभव कर दिखाया है। अब रक्तचाप, शर्करा, गर्भस्थ शिशु की हलचल और दिल की धड़कनों जैसे अहम मानदंडों को 2जी नेटवर्क से भी भेजा जा सकता है। गत 19 जुलाई को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने ग्रामीण क्षेत्रों में ब्रॉडबैंड सेवा के विस्तार के लिए 42,000 करोड़ रुपये खर्च करने का फैसला किया है ताकि मार्च 2019 तक 2.5 ग्राम पंचायतों को इंटरनेट से जोड़ा जा सके। इससे हालात सुधरेंगे और तकनीक-आधारित समाधानों के जरिये तमाम स्वास्थ्य सेवाएं दी जा सकेंगी। दूरसंचार विभाग ने 26 अक्टूबर को जारी अपने अनुमान में कहा है कि इस साल के अंत तक एक लाख ग्राम पंचायतों को फाइबर ऑप्टिक नेटवर्क से जोड़ लिया जाएगा। यह उल्लेखनीय प्रगति है और भविष्य के लिए अच्छा संकेत देती है। टेली कंसल्टेशन (वीडियो या फोन के जरिये परामर्श) से वर्तमान सार्वजनिक-निजी भागीदारी की एक बड़ी खामी- स्वास्थ्य सेवाओं की डिलिवरी पर निगरानी रखने में नाकामी को भी दूर किया जा सकेगा। अक्सर आरोप लगते हैं कि समुचित निगरानी नहीं होने से धोखाधड़ी होती है। डिजिटल प्रणाली में सभी परामर्शों और नुस्खों का विवरण एक सर्वर पर उपलब्ध होगा जिससे उन परामर्शों के सभी पहलुओं की केंद्रीकृत निगरानी की जा सकती है। नीति आयोग को भी स्वास्थ्य देखभाल देने में उपभोक्ता की मनोवृत्तियों को समझने की जरूरत है। निर्धनतम ग्रामीण परिवार भी अपने किसी सदस्य के गंभीर रूप से बीमार पडऩे पर किसी तरह पैसे का इंतजाम कर उसे द्वितीयक या तृतीयक स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराने की पूरी कोशिश करेगा। लेकिन प्राथमिक एवं उपचारात्मक स्वास्थ्य मामलों में वही परिवार अपने आसपास ही उसकी मौजूदगी चाहेगा। अगर उसे अपने घर के पास यह स्वास्थ्य सेवा नहीं मिलेगी तो जरूरत होने पर भी वह दूर नहीं जाना चाहेगा। इस हकीकत को स्वीकार करने का समय आ गया है और हमें उसी के हिसाब से उपाय तलाशने होंगे। नीति आयोग जिला अस्पतालों में उपलब्ध स्वास्थ्य सेवाओं का दायरा बढ़ाने के लिए निजी क्षेत्र को आमंत्रित कर सकता है लेकिन प्राथमिक स्वास्थ्य में निजी भागीदारी होने पर आवंटित मद का भी बेहतर इस्तेमाल किया जा सकेगा। सीएजी के मुताबिक राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत बाल एवं मातृ स्वास्थ्य के लिए आवंटित 9,500 करोड़ रुपये के फंड का इस्तेमाल नहीं हो सका था। तकनीक का भी अधिक रचनात्मक इस्तेमाल करने की जरूरत है ताकि मौजूदा संसाधनों का कारगर उपयोग हो सके। कई राज्यों ने तकनीक का इस्तेमाल सरकारी सेवाओं के बेहतर क्रियान्वयन के लिए करना शुरू किया है लेकिन उनके केंद्र में प्रशासकीय मसले ही अधिक हैं। आंकड़े दर्ज करने की अनिवार्यता से निचले स्तर के कर्मचारियों पर काम का बोझ भी बढ़ा है। ऐसे में आश्चर्य नहीं है कि यह शायद ही काम कर पाया है। शुरुआत में हमें प्राथमिक स्वास्थ्य कर्मचारियों एवं डॉक्टरों को ऐसे प्रबंधकीय उपकरण देने चाहिए जिनसे उनका काम अधिक आसान हो सके। इससे स्वास्थ्य सेवा मुहैया भी आसान हो सकेगा। (लेखक गैर-लाभकारी संगठन वल्र्ड हेल्थ पार्टनर्स के अध्यक्ष हैं। यह संगठन बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और पश्चिम बंगाल के ग्रामीण इलाकों में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराता है।)
