अगर खाद्य तेल पर आयात शुल्क में बढ़ोतरी करने और दालों पर निर्यात प्रतिबंध समाप्त करने का इरादा इन जिंसों की कमजोर कीमतों को बढ़ाकर किसानों को लाभ पहुंचाने का है तो इससे कोई फायदा होता नहीं दिखता। इन फसलों का ज्यादातर हिस्सा खरीफ के मौसम में उत्पादित होता है और उसकी कटाई पहले ही हो चुकी है। किसान औनेपौने दाम पर उनका सौदा भी कर चुके हैं। किसानों को इसका लाभ तब मिलता जबकि ये निर्णय बुआई के पहले लिए गए होते। इससे वे इन फसलों का रकबा बढ़ा सकते थे या कम से कम फसल कटाई के समय ही उनको इनकी बेहतर कीमत मिल पाती। फिलहाल कीमतों में किसी भी तरह की बढ़ोतरी व्यापार और प्रसंस्करण उद्योग को लाभान्वित करेगी और किसानों की हालत जस की तस रहेगी। हकीकत में तिलहन और दलहन इकलौती ऐसी फसल नहीं हैं जिनकी कीमतों में गिरावट आई है। अधिकांश कृषि जिंसों की कीमतें पिछले साल हुए बंपर उत्पादन के बाद से ही न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से नीचे रही हैं। कुछ मामलों में कीमतें उत्पादन मूल्य से भी कम हो गईं। कीमतों में आई यह गिरावट इस वर्ष भी जारी रही, हालांकि उड़द और कपास को छोड़कर अधिकांश खरीफ फसलों का उत्पादन या तो पुराने स्तर पर बरकरार रहा या गिरा। इसका दोष सरकार की गलत कृषि मूल्य निर्धारण नीतियों को भी जाता है जो मोटे तौर पर मुद्रास्फीति प्रबंधन से संबंधित हैं। इसे गत वर्ष 2.3 करोड़ टन की जरूरत के मुताबिक उत्पादन के बावजूद 50 लाख टन दालों के आयात से भी समझा जा सकता है। जरूरत से ज्यादा आपूर्ति ने कीमतों को प्रभावित किया। तकरीबन 180 किसान संगठनों के गठबंधन ने सोमवार को दिल्ली में किसान मुक्ति संसद का आयोजन किया और उपज की अच्छी कीमत और ऋण में रियायत की मांग की। कमजोर कीमतों के चलते किसानों को करीब 36,000 करोड़ रुपये का नुकसान होने का अनुमान है। बताया जाता है कि यह आकलन करते वक्त एमएसपी और मौजूदा थोक कीमतों को ही ध्यान में रखा गया है। बहरहाल, वास्तविक नुकसान ज्यादा हो सकता है क्योंकि अनेक किसानों को अपनी उपज को आधिकारिक थोक कीमतों से कम में बेचना पड़ा क्योंकि उनको अपनी नकदी संबंधी जरूरतों को पूरा करना था। ऐसे में यह उम्मीद करना बेमानी है कि अपेक्षाकृत देरी से उठाए गए नीतिगत कदम किसानों की समस्या हल कर पाएंगे। सही मायनों में जरूरत यह है कि कृषि मूल्य और व्यापार को लेकर स्थिर नीतियां बनाई जाएं। इसमें आयात और निर्यात भी शामिल हैं। इसमें बाजार की मांग और कीमतों के अनुरूप उत्पादन करने की इजाजत भी शामिल है। फिलहाल नीतिगत अनिश्चितताओं के कारण ऐसा नहीं हो पा रहा। कृषि लागत एवं मूल्य आयोग ने अपनी कई रिपोर्ट और चर्चा पत्रों में इस बात पर जोर दिया है। इस दिशा में कुछ उम्मीद सरकार के हालिया निर्णय से भी उपजती है जहां उसने एक फॉर्मूला विकसित करने की बात कही है ताकि कृषि आयात और निर्यात पर शुल्क बढ़ाने और घटाने का काम थोक मूल्य सूचकांक के आधार पर किया जाए। यह विचार काफी हद तक तिलहन प्रौद्योगिकी मिशन द्वारा 1980 के दशक के मध्य में अपनाए तरीके के अनुरूप ही है। इसकी वजह से देश उस दशक के अंत तक खाद्य तेल के क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो सका। उस योजना को छोडऩे और बाजार की उपलब्धता और मूल्यों की असामान्यता को लेकर तगड़ी प्रतिक्रिया के साथ सरकार ने पारदर्शी नीति व्यवस्था का लाभ गंवा दिया। आश्चर्य नहीं कि घरेलू तेल की जरूरतों के मामले में हमारी आयात निर्भरता एक बार फिर 70 फीसदी पर पहुंच गई। ऐसे में केवल आयात निर्यात शुल्क से छेड़छाड़ से काम नहीं चलेगा।
