आजकल यह काफी आम हो गया है जब कंपनियां न सिर्फ अपने मुनाफे की घोषणा करती हैं, बल्कि वे अलग-अलग लेकिन आपस में जुड़े हुए तीन पहलुओं पर ध्यान देती हैं। इनमें सामाजिक और आर्थिक के अलावा पर्यावरण को बचाए रखते हुए विकास (सस्टेनेबिलिटी) के पहलू शामिल हैं। अस्सी के दशक में एक लहर के साथ नवउदारवाद की सोच ने जोर पकड़ा, जिसके साथ कारोबारों ने स्वेच्छा से इस सोच का स्वागत किया और तब जन्म हुआ कॉर्पोरेट सामाजिक दायित्व (सीएसआर) का। नब्बे के दशक में कॉर्पोरेट स्वनियमों से सीमित परिणामों के साथ निष्फलता से पैदा हुई 'कॉर्पोरेट जवाबदेही'। बाद में इस बात की भी जरूरत महसूस की जाने लगी कि स्वीकृत मानकों का पालन करने में नाकामयाबी पर कंपनियों पर कुछ जुर्माना होना चाहिए। कॉर्पोरेट जवाबदेही से 'कॉर्पोरेट सस्टेनेबिलिटी' (सीएस) भी सुनिश्चित होगी। इससे व्यावसायिक परिचालन कार्यों में पर्यावरण संबंधी और सामाजिक पहलुओं को भी शामिल किया जा सकेगा। हालांकि यहां दुविधा है। दुनिया के लिए बेहतर क्या है- निरंतर विकास, जिसमें संसाधन कभी न खत्म होने वाले तरीके में इस्तेमाल किए जाते हैं और व्यर्थ पदार्थ और प्रदूषण नियंत्रण में हों- या फिर विकास की जरूरत को ध्यान में रखते हुए परेशान होना। ऐसा विकास जो हमारे उत्पादन तंत्र की मांग है और गरीबी को कम करने में जिसकी आवश्यकता है। पैसा इकट्ठा करने के लिए कंपनियों को मुनाफा कमाने की जरूरत है। मुख्य निबंध में इस दुविधा को खत्म करने के लिए नए संस्थानों या नियमों की जरूरत का जिक्र करते हुए एरिल्ड वैटन का कहना है, 'अगर विकास रुक जाए तो, सब कुछ वापसी की राह ले लेगा, जिससे समाज बर्बाद हो सकता है।' इसलिए 'विकास वरदान और श्राप दोनों ही है।' कॉर्पोरेशन पूंजी पर अधिक से अधिक मुनाफा कमाने की जुगत में है। पूंजीवाद आर्थिक विकास का पोषण भी करता है और उस पर निर्भर भी करता है। मुनाफे का अनुसरण करते हुए एक रास्ता कंपनियों को कम लागत वाले देशों की ओर ले जाता है, जहां नियम काफी नरम हों या संसाधनों का हद से ज्यादा इस्तेमाल कर भविष्य को गर्त में झोंक देना। इन दुविधाओं का समाधान निकालने के लिए हमें बतौर कंपनी या राष्ट्रीय स्तर पर पूरे वैश्विक तंत्र के रूप में नए संस्थानों या नियमों की जरूरत है। फिलहाल तक कंपनियां अधिक से अधिक मुनाफा कमाने की रणनीतियों का अनुसरण कर रही हैं। एक और अहम निबंध में स्टेफानो पोगुज ने एक और परस्पर विरोध की ओर इशारा किया है। सीएस और सीएसआर पर ध्यान देने वाली कंपनियां अच्छी नागरिक हो सकती हैं 'जब उन्हें अलग करके देखा जाए, (लेकिन) जब सभी को एक साथ देखा जाए तो यह जरूरी नहीं कि वे चिरस्थायी हों।' इसलिए संस्थाओं के लिए आर्थिक प्रतिष्ठा को बनाने के लिए बाह्य और सामाजिक दबाव को समझना जरूरी है। पारिस्थितिकीय अर्थव्यवस्था और प्रबंधकीय विज्ञान के बीच एक पुल बनाना चाहिए। लंबे विकास के कारण होने वाली दीर्घकालिक चुनौतियों के बारे में कहना है 'आर्थिक विकास, सामाजिक कल्याण और प्रकृति संरक्षण के बीच दीर्घकालिक समझौतों को स्वीकार करने की जरूरत है।' इसके लिए अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय और स्थानीय स्तरों पर नियमों को बलपूर्वक लागू करने की जरूरत है। विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को आर्थिक मुआवजा मिलना चाहिए। पर्यावरण संबंधी और सामाजिक दायित्वों को मौजूदा गरीबों और पहले के अमीर, लेकिन काफी ज्यादा प्रदूषण फैलाने वालों के बीच दोबारा बांटना चाहिए। इस किताब में दो पक्षपातपूर्ण रवैयों का जिक्र किया गया है। पहला जिसमें बड़ी कंपनियां नियामकों के ढांचे को प्रभावित कर सकती हैं और बहुराष्ट्रीय कंपनियां (एमएनसी) जो दुनियाभर में नियामकों का जायजा ले सकती हैं। वे ऐसा कर सकती हैं और करती हैं और नियामकों को आंखें दिखाने वाली ऐसी कंपनियों को गंभीरता से लेना चाहिए। लेकिन अब भी यह पूरी तस्वीर नहीं है। भारत सरीखे विकासशील देशों में छोटी और मझोली कंपनियां अक्सर अधिक प्रदूषण करती हैं और वे ऐसा करते रहने के काबिल भी हैं। जैसे ही उन पर नियामकों की ओर से दबाव बनता है तो वे अपनी इकाइयां बंद कर देने और बेरोजगारी बढ़ने जैसी धमकियां देती हैं। उनका कहना है कि बेहतर मानक उनके लिए काफी महंगे होते हैं। दोनों आम जनता की ज्यादातर राय और नेता प्रदूषणकारी प्रक्रियाओं का स्वागत करते हैं, जो विकसित देशों से हमारे देश का रुख कर रही हैं। वह इसलिए क्योंकि वे नौकरियां देते हैं। दूसरा पक्षपातपूर्ण रवैया सभी निबंधों में नहीं कहीं-कहीं देखने को मिला- 'आखिरकार यह नियम ही है जो काम करता है' कहकर निष्कर्ष निकालने की प्रवृति। भारत में प्रदूषण के तरीकों पर पंत और शास्त्री के निबंध में बताया गया है कि चूंकि कम औद्योगिक देशों में बाजार का ढांचा भी कमजोर है, 'आमतौर पर पर्यावरण संबंधी नियमों के साथ सम्मति सुनिश्चित करने के लिए आदेश और नियंत्रण के तरीकों पर निर्भर रहने की जरूरत है।' लेकिन प्रशासन भी इस तरह के देशों में कमजोर है। कुछ पंक्तियों के बाद इस निबंध में विश्व बैंक के अध्ययन का भी जिक्र किया गया। इसके साथ भारत में औद्योगिक प्रदूषण के नियमों का किस तरह से मजाक उड़ाया जाता है, दिखाने की कोशिश की है। इसमें बताया गया है कि प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में प्रशिक्षित कर्मियों की कमी, भ्रष्टाचार, नियमों का उल्लंघन और दूसरे विभागों का इस तरह के नियमों को लांघने जैसी समस्याएं भारत के विकास में रोड़ा अटकाए हुए हैं। ऐसे में आगे कौन-सा रास्ता चुनना चाहिए? कई निबंध बेहतर संतुलन वाले निष्कर्षों को सामने रखते हैं। इनमें स्वैच्छिक कॉर्पोरेट कार्रवाई, कड़े राष्ट्रीय और अंतरदेशीय नियम, जन सक्रियतावाद और अधिक लोगों का मिलकर समस्याओं का समाधान निकालने (इससे जरूरी सार्वजनिक राय बनेगी) सरीखे निष्कर्ष बताए गए हैं। जॉर्ज डब्ल्यू. बुश की शर्मनाक वापसी के साथ नवउदारवाद को लेकर चर्चा एक बार फिर तेज हो गई है और आंकड़ों को घुमा-फिरा कर रखने वाले विकासशील देश अब वापसी की राह खोज रहे हैं। लेकिन क्या अधिक नियम ऐसे देशों की मदद कर सकेंगे जहां भष्ट्राचार काफी आम बात है और प्रशासन डरावने रूप में है? जर्मनी और स्कैनडिनेवियन देशों में जहां नियमों का अधिक सार्वजनिक ईमानदारी के साथ अच्छे से पालन होता है, वहां लगता है सब सही राह पर है। ग्रह पर जीवन दीर्घकालिक हो सकता है अगर ज्यादातर दुनिया वैश्विक प्रशासन के सही तरीके से उनका अनुसरण करे। नहीं तो, हम खत्म जाएंगे, फिर चाहे हम किसी भी दिशा की ओर बढें। पुस्तक समीक्षा कॉर्पोरेट अकाउंटैबिलिटी ऐंड सस्टेनेबल डेवलपमेंट संपादन: पीटर यूटिंग और जेनिफर क्लैप प्रकाशक: ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, कीमत: 650 रुपये पृष्ठ: 259
