सावधानी जरूरी | संपादकीय / September 19, 2017 | | | | |
सरकार ने शेल या मुखौटा कंपनियों पर हमले तेज कर दिए हैं। एक ओर जहां 210,000 कंपनियों का पंजीयन समाप्त किया गया है और आगे की जांच के दौरान उनके बैंक खाते जब्त किए गए हैं, वहीं ऐसे संस्थानों से जुड़े करीब एक लाख लोगों को नाकाबिल करार दिया जा चुका है। कई कंपनी सेक्रेटरी और चार्टर्ड अकाउंटेंटों पर कर वंचना में मदद करने का आरोप लगा है, उन पर नजर रखी जा रही है। सरकार ने यह भी कहा है कि शेल कंपनियों के खातों से पैसे इधर-उधर करने में मदद करने का प्रयास करने वाले किसी भी व्यक्ति पर कार्रवाई की जा सकती है। अभी कुछ ही समय पहले पूंजी बाजार नियामक भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड ने कई सूचीबद्ध कंपनियों के परिचालन पर रोक लगाते हुए कहा था कि वे धनशोधन और कर वंचना का जरिया बनी हुई हैं। शेल कंपनी ऐसी कंपनी है जो कारोबार नहीं करती बल्कि वित्तीय गड़बडिय़ों को अंजाम देने के काम आती है। कई बार उसे भविष्य के किसी इस्तेमाल के लिए यूंही पड़ा रहने दिया जाता है।
इन ठोस कदमों की निश्चित तौर पर सराहना की जानी चाहिए। शेल कंपनियों के विरुद्ध कार्रवाई को कतई गलत नहीं ठहराया जा सकता है। यह बात तो व्यापक तौर पर जानी हुई है कि कर प्रशासन की शिथिलता ने कई प्रवर्तकों को ऐसी कंपनियां बनाने का बल दिया जिनका कोई कामकाज नहीं है। इन कंपनियों का इस्तेमाल धन शोधन के लिए होता रहा है। कॉर्पोरेट व्यवस्था में ऐसी खामियों को दूर करना अत्यंत आवश्यक है। ऐसा करने से एक बेहतर वित्तीय माहौल तैयार होगा, जहां कर को लेकर धोखाधड़ी और अवैध गतिविधियों के मामले कम सामने आएंगे।
बहरहाल, सरकार को कॉर्पोरेट और व्यक्तिगत स्तर पर लोगों के खिलाफ केवल शंका के आधार पर एकतरफा फैसले लेने से भी बचना चाहिए। इससे निर्दोष भी प्रभावित हो सकते हैं। कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 164 को समाप्त करना तो विशेष तौर पर आवश्यक है जिसमें निदेशकों को अयोग्य करार देने की बात शामिल है। इसका इस्तेमाल सत्ता प्रतिष्ठान द्वारा अपने राजनीतिक विरोधियों को प्रताडि़त करने के लिए किया जा सकता है। दूसरी बात जो अधिक गंभीर है वह यह कि ऐसे एकतरफा प्रतिबंध निर्दोष लोगों पर असर डाल सकते हैं। उदाहरण के लिए सेबी ने बिना आरोप के प्रत्युत्तर का अवसर दिए कई कंपनियों के शेयर कारोबार करने पर प्रतिबंध लगा दिया। यह घटना शर्मनाक थी। सेबी के इस कदम की वजह से बाजार को झटका लगा। कई शेयरों के दाम धड़ाम हुए और कई वित्तीय संस्थानों और निवेशकों को निजी तौर पर नुकसान उठाना पड़ा। इसके बाद कई कंपनियों को लेकर सेबी ने अपना निणर््ाय बदला और माना कि उनके खिलाफ लगे आरोप आधारहीन थे। लेकिन इससे उल्लेखनीय नुकसान हो चुका था।
इसी प्रकार जिन निदेशकों पर रोक लगाई गई है उनमें से कई ऐसे होंगे जिनका फर्म की गतिविधियों से कोई लेनादेना नहीं होगा। हां, यह भी सच है कि कई कंपनियां आगे चलकर दोषमुक्त होंगी। परंतु उनकी प्रतिष्ठा को तो अच्छा खासा नुकसान हो चुका होगा। सरकार को यकीनन उन कंपनियों के खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए जहां गड़बड़ी के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। परंतु ऐसी कंपनियां और लोग पहले ही निगरानी में हैं। अधिकारियों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि जब भी प्रतिबंध लगाया जाए तो नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत का पालन हो। स्वस्थ कारोबारी माहौल के लिए वह नितांत आवश्यक है। दूसरी दिक्कत यह है कि कंपनी अधिनियम में शेल कंपनी को स्पष्ट परिभाषित नहीं किया गया है। यानी किन गतिविधियों की बदौलत कोई कंपनी शेल कंपनी की श्रेणी में आती है। इसकी वजह से इसे अलग-अलग ढंग से परिभाषित किया जा रहा है। इसमें भी जरूरी सुधार की आवश्यकता है।
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