कार्मिक ईमानदारी और पूंजी बाजार | जैमिनी भगवती / April 27, 2017 | | | | |
बाजार नियामक सेबी के निचले स्तर के कर्मचारियों की भर्ती प्रतिस्पर्धी परीक्षा के जरिये की जानी चाहिए और उन्हें शीर्ष पर पहुंचने का प्रयास करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। बता रहे हैं जैमिनी भगवती
मार्च 2017 के आखिरी सप्ताह में भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) ने रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड (आरआईएल) को 1,000 करोड़ रुपये की राशि जमा करने का आदेश दिया। आरआईएल और 12 अन्य कंपनियों को वायदा एवं विकल्प कारोबार में एक वर्ष के लिए प्रतिबंधित कर दिया गया। सेबी के आदेश के मुताबिक आरआईएल जोखिम का उचित प्रबंधन नहीं कर रही थी और उसके कदम सुनियोजित धोखाधड़ी वाले और चीजों को अपने हिसाब से घुमाने वाले थे। भेदिया कारोबार की इस घटना का स्तब्धकारी पहलू यह है कि सेबी को इस निष्कर्ष पर पहुंचने में 10 वर्ष का समय लग गया। इसकी जांच नवंबर 2007 में शुरू हुई थी। आरआईएल ने घोषणा की है कि वह सेबी के आदेश के खिलाफ प्रतिभूति अपील पंचाट (एसएटी) में अपील करेगी।
आरआईएल यह जानने के लिए सबसे बेहतर स्थिति में थी कि अगर एक बार बाजार को यह अंदाजा हो गया कि रिलायंस पेट्रोलियम (आरपीएल) के शेयर नहीं बिकेंगे तो उनके दाम में गिरावट आना तय था। वायदा बाजार में उल्लिखित शेयरों की कीमत में गिरावट के बाद शॉर्ट सेलिंग से फायदा उठाया जा सकता है। यह काफी हद तक शेयरों की अग्रिम बिक्री की तरह होता है जिन्हें बाद में कम कीमत पर दोबारा खरीदा जा सकता है। आरआईएल ने यही किया और 29 नवंबर 2007 तक कंपनी के पास आरपीएल के कुल वायदा शेयरों का 94 फीसदी हिस्सा था। यह स्टॉक उसी दिन खत्म हो रहे अनुबंध के लिए था। ऐसे में सेबी का यह कहना सही था कि आरआईएल ने वायदा अनुबंध से अनुचित लाभ कमाया। उसके कारोबार का आकार सेबी द्वारा ऐसे कारोबार के लिए नियत से 10 गुना अधिक आकार का था। सेबी को अपने नियमों में संशोधन करने की आवश्यकता है ताकि वह कंपनियों को डेरिवेटिव्स बाजार में संबंधित फर्म के शेयरों के मामले में ऐसे कदम उठाने से रोक सके। जहां तक सेबी द्वारा लगाए गए जुर्माने की बात है तो वह बेहद मामूली रकम है। आरआईएल को लगभग वही राशि चुकाने को कहा गया है जितनी उसने कमाई की थी। इसके साथ 10 वर्ष का ब्याज जोड़ा जा सकता है। यह ठीक नहीं है क्योंकि सेबी को अधिकार है कि वह कथित लाभ का तीन गुना तक जुर्माना लगा सकता है।
फरवरी 2016 में वित्त मंत्रालय ने घोषणा की थी कि भारत और मॉरीशस के बीच दोहरा कराधान परिहार समझौते (डीटीएए)की समीक्षा की जाएगी। नए डीटीएए के अधीन सन 2019 तक मॉरीशस के रास्ते होने वाले निवेश पर अल्पावधि और दीर्घ अवधि के पूंजीगत लाभ को भारत में किए गए ऐसे ही निवेश के समान माना जाएगा। इसी तरह 13 मई 2016 को डेरिवेटिव्स और डिबेंचर को मॉरीशस के साथ किए गए डीटीएए के संशोधन से बाहर कर दिया गया। बड़ी कंपनियों के शेयरों की बात करें तो पुट ऐंड कॉल विकल्प और विदेशी डेरिवेटिव्स बाजार में इतनी नकदी रहती है कि वह उल्लिखित शेयरों की खरीद बिक्री का भुगतान कर सके। अगर वित्त मंत्रालय ने डेरिवेटिव्स के लेनदेन को संशोधित डीटीएए से बाहर रखने को लेकर सेबी से विमर्श किया होता तो सेबी ने शायद इसका विरोध किया होता। अगर सेबी से इस बारे में कोई विचार नहीं किया गया तो इससे यही पता चलता है कि तकनीकी दक्षता के मामले में सेबी कमजोर है।
अब तक की बात करें तो सेबी के पास शायद ऐसे लोग ही नहीं हैं जो डेरिवेटिव्स बाजार को ठीक से समझ सकें। यही वजह है कि वहां के कनिष्ठï कर्मियों में वित्तीय क्षेत्र की अकादमिक जानकारी और डेरिवेटिव्स के लेनदेन की पूरी जानकारी होना जरूरी है। यह दलील भी दी जा सकती है कि सेबी के लोगों को बाजार प्रतिभागियों की तरह जानकार होने की जरूरत नहीं है। कुलमिलाकर सेबी को डेरिवेटिव्स के मामले में अपनी आंतरिक विशेषज्ञता सुधारने की आवश्यकता है।
जहां तक बात है आरआईएल के खिलाफ सुनाए गए फैसले की तो सेबी को शायद इस निर्णय पर पहुंचने में इतना वक्त इसलिए लग गया क्योंकि वर्ष 2007 से 2017 के आरंभ तक सेबी के प्रमुख पद पर नियुक्त लोगों की नियुक्ति और उनके द्वारा लिए गए निर्णयों पर कई विवाद हुए। उदाहरण के लिए देश के प्रिंट मीडिया ने वर्ष 2011 के मध्य में खबर दी थी कि सेबी के बोर्ड सदस्य के एम अब्राहम ने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को मई और जून 2011 में दोबार पत्र लिखकर आरोप लगाया कि सेबी के तत्कालीन प्रमुख, तत्कालीन वित्त मंत्री, उनके सलाहकार और वित्त मंत्रालय के दो वरिष्ठï अधिकारी कारोबारी घरानों की मदद कर रहे हैं। यह भी कहा गया कि सेबी के बोर्ड सदस्यों को आयकर विभाग के अधिकारी परेशान कर रहे हैं। यह सब वित्त मंत्रालय के कहने पर किया जा रहा था। नवंबर 2011 में पूर्व वायुसेनाध्यक्ष एयर चीफ मार्शल एस कृष्णस्वामी और पंजाब पुलिस के पूर्व निदेशक जूलियो रिबेरो ने एक जनहित याचिका दायर की। उनका आरोप था कि वित्त मंत्रालय ने सेबी के कामकाज में दखलंदाजी की और अधिकारियों तथा प्रमुखों के चयन को प्रभावित किया। सर्वोच्च न्यायालय ने इसे खारिज कर दिया।
ऐसा कम ही हुआ होगा कि संयुक्त सचिव स्तर के अधिकारी ने भारत सरकार के प्रमुख को दो बार खत लिखकर कहा कि प्रधानमंत्री कार्यालय के वरिष्ठïतम सदस्यों में से एक कुछ निजी संस्थानों की बिना पर काम कर रहा है। यह खेद की बात है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इन आरोपों पर क्या कदम उठाए, इस बारे में कोई सार्वजनिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। क्या केंद्रीय सतर्कता आयोग ने मामले की जांच की या नहीं यह भी नहीं पता।
पेशेवर दक्षता को लेकर सेबी और आरबीआई के बीच जबरदस्त विरोधाभास है। आरबीआई के अधिकारियों की ईमानदारी ख्यात है। परंतु सरकारी बैंकों की बैलेंस शीट में फंसे हुए कर्ज का स्तर बढ़ते जाने के बावजूद आरबीआई की तरफ से कोई सुझाव नहीं आया। इस पर नजर रखने वाले टीकाकार आरबीआई की ओर से समय पर कदम न उठाए जाने का जिक्र करते हैं लेकिन इसकी सबसे अधिक जिम्मेदारी तो सरकार की है जो इन बैंकों में बहुलांश हिस्सेदारी रखती है।
लब्बोलुआब यह है कि सेबी अगर अपने कर्मियों, अपने कार्य व्यवहार और अपनी छवि में सुधार करना चाहता है तो उसे अपने कनिष्ठï अधिकारियों की भर्ती में प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं की मदद लेनी चाहिए। ऐसी परीक्षाएं केंद्रीय लोक सेवा आयोग की मदद से आयोजित की जानी चाहिए और चयनित लोगों को ही भविष्य में सेबी के बोर्ड और चेयरमैन के पद तक पहुंचना चाहिए।
(लेखक इक्रियर में आरबीआई चेयर प्रोफेसर और वित्त मंत्रालय के पूर्व संयुक्त सचिव (पूंजी बाजार) हैं। लेख में प्रस्तुत विचार निजी हैं।)
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