न्यायपालिका में हो न्याय और दूरदर्शिता का मेल | शेखर गुप्ता / April 02, 2017 | | | | |
चूंकि मैं अक्सर राजनीति जैसे नीरस विषय पर बात करते समय क्रिकेट का जिक्र कर बैठता हूं तो मैं यह इजाजत चाहता हूं कि न्यायपालिका पर टिप्पणी करते समय फिल्म संगीत को बीच में ला सकूं। खासतौर पर तब जबकि मैं यह आलेख फिल्म गीतकार आनंद बख्शी की पुण्यतिथि के अवसर पर लिख रहा हूं।
जब मैं न्यायपालिका और आनंद बख्शी के दौर के बारे में एकसाथ सोचता हूं तो मुझे सन 1969 में अशोक कुमार- जितेंद्र-माला सिन्हा अभिनीत फिल्म 'दो भाईÓ में लिखा उनका गीत याद आता है। इस फिल्म में अशोक कुमार और जितेंद्र भाई बने थे। दोनों भाइयों में एक न्यायाधीश तो दूसरा पुलिसकर्मी है। आगे की कहानी का अंदाजा लगाया जा सकता है। न्यायाधीश इस दुविधा का शिकार रहता है कि अपने भाई को दंडित करे या नहीं। इस फिल्म में आनंद बख्शी के लिखे एक गीत को मोहम्मद रफी ने आवाज दी थी। गीत के बोल थे: इस दुनिया में ओ दुनिया वालों, बड़ा मुश्किल है इंसाफ करना, बड़ा आसान है देना सजायें, बड़ा मुश्किल है पर माफ करना।
संपादक के जीवन में भी ठीक वही दलील लागू होती है जो न्यायाधीश के जीवन में। किसी खबर को प्रकाशित करना और उसकी आलोचना सहना आसान है, बजाय कि न छापकर चीजों को स्पष्ट करते रहने के। कोई असावधान संपादक ही होगा जो एक रोचक खबर को सिर्फ इसलिए नहीं छापेगा क्योंकि वह उस पर पूरी तरह तरह भरोसा नहीं कर पा रहा होगा। मैं यहां जिस खबर की बात करने जा रहा हूं उसका संबंध देश के मुख्य न्यायाधीश से है। यह सन 1998 की सर्दियों की बात है। अगर मैं 20 साल बाद भरोसा तोड़ रहा हूं और कुछ समझदार और माननीय व्यक्तियों के नाम ले रहा हूं तो वे मुझे माफ कर देंगे क्योंकि वे इसके पीछे की वजहों को भी समझेंगे।
हमारे विधिक संपादक उस वक्त देश के मुख्य न्यायाधीश बने ए एस आनंद के अतीत को लेकर एक अत्यंत सावधानीभरी खोजी रपट कर रहे थे। इस रपट से एक ऐसे न्यायाधीश की तस्वीर उभर रही थी जो काम में पूरी सावधानी नहीं बरतता था, हितों के टकराव की अनदेखी करता था, जो तोहफों को लेकर पारदर्शी नहीं था और जो अपने खेत में बुआई करने वाले साझे की खेती करने वालों के साथ लेनदेन में अपारदर्शी था। हमने इस खबर की शृंखला प्रकाशित करने के पहले छोटी से छोटी सावधानी बरती और संपादन के दौरान अनेक बदलाव किए।
यह खबर इतनी बड़ी थी कि इसे लेकर मैंने देश के शीर्षस्थ 10 वकीलों से मशविरा किया। इसके प्रकाशन को लेकर उनके विचार अलग-अलग थे। दो का मानना था कि इसे प्रकाशित होना चाहिए जबकि आठ इसके खिलाफ थे। हालांकि प्रकाशन रोकने की वजहें प्राय: तथ्यात्मक और विधिक नहीं थी। बस कहा जा रहा था कि हमें देश के सबसे महान संस्थान को यूं नुकसान नहीं पहुंचाना चाहिए। जिन दो लोगों ने कहा कि रपट प्रकाशित होनी चाहिए उनमें से एक का कहना था कि तथ्य तो तथ्य हैं और कोई दूसरी दलील यहां नहीं लगनी चाहिए। जबकि दूसरे सज्जन अत्यधिक उत्साहित थे। मैंने उनसे पूछा कि न्यायाधीश महोदय क्या करेंगे? हम पर अवमानना का मुकदमा चलाएंगे? उस अधिवक्ता ने जवाब दिया कि नहीं वह ऐसा कुछ नहीं करेंगे बल्कि वह आत्महत्या कर लेंगे। उनके जवाब ने हमें हिलाकर रख दिया। अनजाने में ही सही इस बात ने हमारा ध्यान दोबारा देश की न्याय व्यवस्था के अहम पहलू की ओर खींचा। हमने एक बार फिर एक-एक पंक्ति को दोबारा पढ़ा। एक बात की कमी थी: इसमें खुद न्यायमूर्ति आनंद की प्रतिक्रिया शामिल नहीं थी। हमने जब
भी कुछ पूछने का प्रयास किया उनके कार्यालय ने कहा कि चूंकि वह देश के मुख्य न्यायाधीश हैं इसलिए वह मीडिया से बात नहीं कर सकते। हमारे पास उनकी ओर से यही जवाब था।
तब दो ऐसे लोगों से मेरी बात हुई जिनका मैं अत्यधिक सम्मान करता हूं। ये लोग थे सुषमा स्वराज और अरुण शौरी। दोनों वाजपेयी सरकार में मंत्री थे। दोनों न्यायमूर्ति आनंद और उनके परिवार को लंबे समय से जानते थे और उनका कहना था कि उन्हें भरोसा नहीं कि आनंद ने किसी तरह की बेईमानी की होगी। मैंने उन्हें बताया कि हमारी खबर में दम है और हम पहले ही लंबा इंतजार कर चुके हैं, अब इस खबर को रोक कर रखना संभव नहीं होगा। अगर हमारी बातें गलत हैं तो न्यायमूर्ति आनंद को यह बात हमें समझानी होगी। सुषमा स्वराज ने कहा कि मैं न्यायमूर्ति आनंद को फोन करूं। मैंने ऐसा ही किया और वह मुझसे मिलने को तैयार हो गए। यह एक अनौपचारिक मुलाकात थी।
आगे का किस्साकोताह यह कि वह मुझसे थोड़ी शंका-थोड़ी गर्मजोशी से मिले। हमने कई घंटे साथ बिताए और हर आरोप पर बात की। उनके पास चमड़े का एक बैग था जिसमें तमाम दस्तावेज, कर रिटर्न, कुछ अस्पष्ट लिखावट वाले लेख, धान की बिक्री की रसीदें, बच्चों की शादी के आमंत्रण, इन शादियों में मिले शगुन के पैसे के बारे में अदालत और कर विभाग को दी गई जानकारियां थीं। मैं उनके बताए तथ्यों के साथ वापस आ गया। इसके बाद तमाम बार आना-जाना हुआ।
ऐसा लगा कि उनके पास मुझे आश्वस्त करने के लिए काफी कुछ है। केवल एक बात ऐसी थी जिसका कोई लेखाजोखा नहीं था। यह मामला कई साल पहले की छह बोरी धान का था जिसका दाम शायद एक साझे की खेती करने वालों को शायद नहीं दिया गया हो। उस वक्त भी इसका दाम शायद 3,000 या 4,000 रुपये से अधिक नहीं रहा हो। यह भी संभव है कि वह हिसाब-किताब की चूक रही हो। मैं निराश होकर लौटा। हमें लग रहा था कि हमारे पास बड़ी खबर है जबकि पूरे तथ्य जानने के बाद कुछ नहीं बचा था। भला छह बोरी धान के घपले के नाम पर देश के मुख्य न्यायाधीश की क्या आलोचना की जाती?
मैं उम्मीद करता हूं कि इस घटना के जिक्र के लिए न्यायमूर्ति आनंद मुझे क्षमा कर देंगे। उन्होंने मुझसे कहा कि अब सभी तथ्य आपके सामने हैं। मैं भारत का मुख्य न्यायाधीश हूं और आप द्वारा उठाए गए हर प्रश्न का जवाब दे चुका हूं। क्या अब भी आप न केवल मुझे बल्कि इस महान संस्थान को आहत करने वाला कदम उठाएंगे? मैं एक बार फिर यह भरोसा तोडऩे के लिए उनसे क्षमा मांगता हूं लेकिन मैंने देखा उनकी आंखे नम हो गई थीं। वह खबर नहीं छपी। मैंने अपने करियर में जो सर्वाधिक कठिन फैसले लिए यह उनमें से एक था।
अगर यही घटना किसी राजनेता या नौकरशाह से जुड़ी हो तो भी क्या हम इतनी ही उदारता का परिचय देंगे? हमने इतना इंतजार केवल इसलिए किया क्योंकि यह मामला एक ऐसे संस्थान के मुखिया से जुड़ा था जिसका हम सब बहुत सम्मान करते हैं। न्यायालय हमारे देश का सबसे भरोसेमंद संस्थान है। सालाना ईडलमैन-डब्ल्यूईएफ सर्वेक्षण से पता चलता है कि सरकारों पर भरोसा इस समय ऐतिहासिक रूप से निचले स्तर पर है। जॉली एलएलबी-2 में न्यायाधीश बने सौरभ शुक्ला कहते हैं कि देखिए यह अदालत कितनी गंदी है। मेरा हर सुबह यहां आकर काम करने तक का मन नहीं करता। सोचता हूं शाम के 6 बजें और घर जाऊं। लेकिन यह याद रखिए कि जब भी दो लोग आपस में उलझते हैं तो वे एक दूसरे से यही कहते हैं कि आपको अदालत में देखूंगा। ऐसा इसलिए क्योंकि लोगों को लगता है कि जब कभी अन्याय होगा तो अदालत न्याय करेगी। इन वजहों के चलते भी हमारी शीर्ष न्यायपालिका को गहरे आत्मावलोकन की आवश्यकता होगी ताकि उसके इस उच्च कद को बरकरार रखा जा सके। क्या कार्यपालिका के काम में समय-समय पर हस्तक्षेप करने से ऐसा हो पाएगा? क्या नाराजगी दिखाने, और गुस्से और खीझ का प्रदर्शन करने से यह पूंजी बचेगी? सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की अधिकार प्राप्त समिति बनाकर क्रिकेट, अवैध निर्माण या वायु प्रदूषण के मुद्दे हल कराना कैसा काम है? स्वयंसेवी संगठन विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी के मुताबिक सर्वोच्च न्यायालय से सेवानिवृत्त होने वाले 70 फीसदी न्यायाधीश सरकारी पंचाट में जगह पा जाते हैं या वे किसी न्यायिक समिति का हिस्सा बन जाते हैं। क्या इस पर बहस नहीं होनी चाहिए? मैं इस बात का समर्थक हूं कि न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की उम्र 70 वर्ष की जाए। उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के लिए 62 और उच्चतम न्यायालय के लिए 65 वर्ष की सेवानिवृत्ति की आयु वाकई कम है। लेकिन क्या किसी सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश को राज्यपाल बनाया जाना सही है? कोई भी मुद्दा इतना संवेदनशील नहीं कि उस पर बहस न हो सके।
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