सत्यम के शेयरधारकों को एक महीने से भी कम समय में 13,600 करोड़ रुपये की चपत लगी है। 9 जनवरी, 2009 को बाजार पूंजीकरण गिर कर 1,607.04 करोड़ रुपये रह गया जो 16 दिसंबर, 2008 को 15,262 करोड़ रुपये पर था।
16 दिसंबर को ही देश की चौथी सबसे बड़ी आईटी कंपनी सत्यम ने पूर्व चेयरमैन रामलिंग राजू के रिश्तेदारों द्वारा प्रवर्तित दो कंपनियों का 8000 करोड़ रुपये में अधिग्रहण करने की घोषणा की थी। 7 जनवरी को रामलिंग राजू ने 7800 करोड़ रुपये के फर्जीवाड़े की स्वीकारोक्ति कर पद से इस्तीफा दे दिया।
यह प्रकरण अंतरराष्ट्रीय सुर्खियों में छा गया। सत्यम पूरी दुनिया में कई बड़े बैंकों, निर्माताओं, स्वास्थ्य एवं मीडिया क्षेत्र की कंपनियों के लिए बैक ऑफिस के तौर पर काम करती है। सत्यम इन ग्राहकों के लिए कंप्यूटर प्रणालियां मुहैया कराने से लेकर ग्राहक सेवा मुहैया कराती है।
इसके ग्राहकों की सूची में जनरल इलेक्ट्रिक, जनरल मोटर्स, नेस्ले और अमेरिकी सरकार आदि प्रमुख रूप से शामिल हैं। कुछ मामलों में सत्यम ग्राहकों की फाइनैंस एवं अकाउंटिंग जिम्मेदारियां भी संभालती है।
सत्यम में फर्जीवाड़े के खुलासे के बाद अमेरिका में निवेशकों ने इसके अमेरिकन डिपॉजिटरी रिसीट (एडीआर) को लेकर कंपनी के खिलाफ दो क्लास ऐक्शन मामले दर्ज कराए हैं।
कंपनी के भविष्य को लेकर अनिश्चितता बरकरार है। ग्राहक कंपनी के साथ किए गए अनुबंधों का पुन: आकलन कर रहे हैं और इसके 53,000 कर्मचारी सदमे में डूब गए हैं।सत्यम प्रकरण एक त्रासद घटना है।
इस प्रकरण की वजह से वर्ष 2009 भारत में कॉरपोरेट शासन के इतिहास में एक दुखद वर्ष में तब्दील हो जाएगा। पूरी दुनिया यह जानती है कि भारत कानून के कार्यान्वयन में हमेशा कमजोर रहा है। सरकार और नियामकों के लिए मौजूदा स्थिति यह साबित कर सकती है कि वे कानून लागू करने के लिए इच्छुक हैं।
अब तक सरकार और नियामकों ने त्वरित प्रक्रिया के तहत कदम उठाए हैं। 9 जनवरी, 2009 को सरकार ने कंपनी के बोर्ड को अपने हाथ में लेने और 10 नए निदेशकों की नियुक्ति का फैसला किया। नियामकों ने इस मामले की जांच शुरू कर दी है और वादा किया है कि दोषी व्यक्तियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी।
वे लोग जो शेयर बाजार में परोक्ष रूप से नहीं जुड़े हुए हैं या फिर वे कॉरपोरेट प्रशासन पर सैद्धांतिक बहस में प्रत्यक्ष रूप से दिलचस्पी नहीं रखते हैं, कॉरपोरेट धोखाधड़ी की गुंजाइश को लेकर दंग रह गए हैं।
कुछ लोग बोर्ड सदस्यो, खासकर स्वतंत्र निदेशकों, को लेकर गुस्से में हैं वहीं अन्य कुछ लोग इन स्वतंत्र निदेशकों के प्रति सहानुभूति जता रहे हैं।
इसी तरह जहां कुछ लोग ऑडिटर को दोषी मान चुके हैं वहीं अन्य इस बात को लेकर ज्यादा आश्वस्त नहीं हैं कि ऑडिटर प्रबंधन धोखाधड़ी का पता लगा सकते हैं। सत्यम प्रकरण ने कॉरपोरेट प्रशासन के मौजूदा ढांचे की विफलता को उजागर कर दिया है।
मौजूदा कॉरपोरेट शासन ढांचा स्वतंत्र निदेशकों पर टिका है जिन्हें बोर्ड के निरीक्षण कार्य कंपनी की प्रभावोत्पादकता में सुधार लाने के लिए जिम्मेदार समझा जाता है। लेकिन क्या इनसे उम्मीद रखना गलत है ? शायद, हां।
एक व्यक्तिगत स्वतंत्र निदेशक कुछ अलग करने या किसी कंपनी की अंदरूनी गतिविधि में बड़ा बदलाव लाने में अहम भूमिका नहीं निभा सकता। हालांकि यदि कोई स्वतंत्र निदेशक इसके प्रति ज्यादा प्रतिबद्ध भी होता है तो वह किसी गलती को सिर्फ 'देख' सकता है और इस पर चर्चा शुरू कर सकता है,
लेकिन वह अकेला इस गलत फैसले को रोक या बदल नहीं सकता, चाहे यह फैसला शेयरधारकों के हित के लिए हानिकारक ही क्यों न हो। यह स्वतंत्र निदेशक बोर्ड रूम से बाहर भी इस गलत फैसले की जानकारी किसी को नहीं दे सकता है, क्योंकि बोर्ड की कार्यवाहियों को गोपनीय समझा जाता है।
गलत फैसले का विरोध करने के लिए स्वतंत्र निदेशकों के पास एकमात्र रास्ता यह है कि वे सामूहिक रूप से इससे निपटें। हालांकि फिर भी उनसे 'प्रबंधन धोखाधड़ी' रोकने की थोड़ी उम्मीद ही की जा का सकती है,
क्योंकि स्वतंत्र निदेशकों को बोर्ड रूम में पुलिसकर्मियों के तौर पर तब्दील किए जाने से निदेशकों की स्वतंत्रता, प्रबंधकों की उद्यम स्वतंत्रता और प्रशासन की लागत पर अत्यधिक नुकसानदायक असर पड़ेगा।
बोर्ड को इंटरनल ऑडिट, एक्सटर्नल ऑडिट और लीगल काउंसिल जैसे कॉरपोरेट प्रशासन की अन्य संस्थाओं पर निर्भरता बढ़ानी चाहिए। स्वतंत्र निदेशकों का प्रभाव खासकर इन्हीं संस्थाओं पर निर्भर करता है। स्वतंत्र निदेशक उच्च स्तर पर प्रबंधन धोखाधड़ी को रोकने की स्थिति में नहीं हो सकते।
लेकिन वे प्रतिबद्धता और कर्मठता के उच्च स्तर के बूते कंपनी में अंदरूनी संकेतों का पता लगाने में सक्षम हो सकते हैं कि सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा है या नहीं। यद्यपि ऐसी स्थिति में सत्यम में स्वतंत्र निदेशकों के कामकाज के बारे में कुछ भी कहना कठिन है।
ऐसा लगता है कि इसकी ऑडिट समिति में शामिल सदस्य अपनी कर्मठता का प्रदर्शन करने में विफल रहे हैं। यह अनुमान उस तथ्य पर आधारित है कि अकाउंटिंग धोखाधड़ी पांच से सात साल की लंबी अवधि के दौरान हुई ।
डीएसपी मेरिल लिंच, जिसे कंपनी के लिए कुछ पार्टनरों की पहचान के लिए रखा गया था, एक सप्ताह के अंदर अकाउंटिंग धोखाधड़ी का पता ला सकती थी।
इसके अलावा कई अखबारों में प्रकाशित खबरों में कहा गया कि कुछ ग्राहक, जिनमें विश्व बैंक भी शामिल है, कंपनी द्वारा धोखाधड़ी और अनैतिक कार्य प्रणालियों की शिकायत कर रहे हैं। इससे इस अटकल को बल मिलता है कि स्वतंत्र निदेशकों में सामूहिक रूप से प्रतिबद्धता का अभाव है।
अब यह मौलिक सवाल हमारे दिमाग में घूम रहा है कि स्वतंत्र निदेशकों को बोर्ड की जिम्मेदारियां सुनिश्चित करने के लिए उन्हें कितना इंसेंटिव मुहैया कराया जाना चाहिए। सैद्धांतिक स्तर पर इंसेंटिव के दो प्रकार हैं।
एक है मौद्रिक प्रोत्साहन, जो स्वतंत्र निदेशकों को पर्याप्त मात्रा में दिया जाता है। दूसरा है सामाजिक कद और व्यावसायिक प्रतिष्ठा खोने की आशंका। ऐसा लगता है कि सत्यम के मामले में इंसेंटिव के ये दोनों ही प्रकार विफल रहे हैं।
सत्यम बोर्ड के स्वतंत्र निदेशकों में शामिल हैं विनोद के धाम (इंटेल के पूर्व कर्मचारी और 'फादर ऑफ पेंटियम' के नाम से चर्चित), एम राममोहन राव (इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस के डीन), यू एस राजू (आईआईटी-दिल्ली के पूर्व निदेशक), टीआर प्रसाद (पूर्व कैबिनेट सचिव), एम श्रीनिवासन (कई अमेरिकी विश्वविद्यालयों से सेवानिवृत प्रोफेसर) और कृष्णा पलेपु (हार्वर्ड बिजनेस स्कूल के प्रोफेसर)।
वर्ष 2007 के लिए अपनी कॉरपोरेट गवनर्स रिपोर्ट में पलेपु का नाम कंपनी के स्वतंत्र निदेशकों के रूप में शामिल नहीं है, शायद इसलिए क्योंकि उन्हें कंपनी की ओर से परामर्श शुल्क के तौर पर 87 लाख रुपये मिले थे। प्रत्येक निदेशक ने वर्ष 2007 में कथित रूप से 100 घंटे के लिए लगभग 13 लाख रुपये शुल्क के रूप में प्राप्त किए।
अमेरिका में एक सर्वे में यह खुलासा हुआ है कि बड़ी कंपनियों में स्वतंत्र निदेशक हर साल बोर्ड की जिम्मेदारियों को अंजाम देने में 50-100 घंटे का समय समर्पित करते हैं। भारत में स्वतंत्र निदेशकों को दिए जाने वाले पारिश्रमिक का स्तर काफी अच्छा समझा जाना चाहिए।
स्वतंत्र निदेशकों में प्रतिबद्धता का अभाव सिर्फ सत्यम में ही नहीं देखा गया है। एनरॉन के मामले में, वर्ल्डकॉम और अन्य कंपनियों में स्वतंत्र निदेशक प्रभावी तरीके से कामकाज को अंजाम देने में विफल रहे थे।
स्वतंत्र निदेशक भी इंसान हैं और इसलिए हमें उनसे अलग व्यवहार की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। यदि नियामक बोर्ड के कामकाज को नियमित रूप से आंकने में विफल रहते हैं और कानून प्रवर्तन एजेंसियां दोषी स्वतंत्र निदेशकों को दंडित करने में विफल रहती हैं तो मौजूदा कॉरपोरेट प्रशासन ढांचा गैर-प्रभावी बना रहेगा।
हालांकि इसका समाधान आसान नहीं है। यदि स्वतंत्र निदेशकों को कॉरपोरेट धोखाधड़ी में दोषी पाया जाता है और उन्हें कठोर दंड दिए जाते हैं तो बोर्ड में स्वतंत्र निदेशकों के रूप में सही व्यक्तियों को पदासीन करना काफी कठिन होगा।