शौचालय सुविधा के लिए निजी क्षेत्र पर बोझ डालने की कोशिश
जिंदगीनामा
कनिका दत्ता / कनिका दत्ता March 23, 2017
दक्षिण दिल्ली नगर निगम ने अनजाने में ही शौचालय सुविधाएं प्रदान करने के मामले में अपनी नाकामी साबित कर दी है। अप्रैल से सभी लोगों को शौचालय की सुविधा देने के लिए निगम ने हाल ही में फैसला लिया है कि उसके अधिकार क्षेत्र में मौजूद सभी होटलों, रेस्टोरेंटों और खानपान की दुकानों को अपने शौचालयों का इस्तेमाल आम लोगों को करने की छूट देनी पड़ेगी। हालांकि इसके एवज में ये संस्थान लोगों से पांच रुपये शुल्क ले सकते हैं।
मीडिया ने अधिक लोगों तक शौचालय सुविधाएं पहुंचाने के मकसद से उठाए गए कदम की तारीफ करते हुए राजनीतिक रूप से खुद को सही दिखाने की कोशिश की है। जहां तक होटल और रेस्टोरेंट का सवाल है तो उन्होंने खुलकर तो इस फैसले का विरोध नहीं किया है लेकिन अपनी नाराजगी जरूर जताई है।
होटल उद्योग की सबसे बड़ी चिंता यह है कि शौचालय के इस्तेमाल के तौर-तरीकों से नावाकिफ लोगों के आने से उनके यहां भीड़भाड़ बढ़ेगी। होटल और रेस्टोरेंट के मालिक यह सोचकर परेशान हैं कि केवल शौचालय के इस्तेमाल के लिए आने वाले लोगों की संख्या बढऩे से उसके असली ग्राहक छिटक सकते हैं। आखिर ग्राहक तो होटल की खान-पान, रिहाइश और अन्य सुविधाओं का इस्तेमाल करने के लिए अच्छी खासी रकम खर्च करते हैं।
इसी के साथ होटल और रेस्टोरेंट को हासिल 'प्रवेश देने के अधिकार' की व्याख्या से संबंधित वैधानिक सवाल भी खड़े होंगे। संविधान का अनुच्छेद 15(2) कहता है कि किसी भी सार्वजनिक होटल, रेस्टोरेंट या मनोरंजन स्थल में धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर प्रवेश देने से इनकार नहीं किया जा सकता है। लेकिन व्यावहारिक स्तर पर हरेक को पता है कि होटल प्रबंधन अपने अनुकूल नहीं लगने वाले किसी भी शख्स को प्रवेश देने से मना कर सकता है। मसलन, इन दिनों कुछ रेस्टोरेंट में लोगों के पहनावे के आधार पर रोक लगाने के नियम को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है।
असली सवाल यह है कि क्या कोई होटल या रेस्टोरेंट ऐसे लोगों को प्रवेश देने से मना कर सकता है जो केवल शौचालय सुविधा का सशुल्क इस्तेमाल करने के लिए वहां जाना चाहते हैं? यह इस मामले का एक धुंधला पक्ष है। नगर निगम ने इस आदेश को लागू करने के लिए होटलों और रेस्टोरेंट के स्वास्थ्य कारोबार लाइसेंस में प्रावधान बना दिया है। इस श्रेणी में डाले जाने के बाद होटलों और रेस्टोरेंट के लिए शौचालय की सुविधा देना बाध्यकारी हो जाएगा।
इसके बावजूद होटल उद्योग से जुड़े लोग कुछ व्यावहारिक समस्याओं का जिक्र कर रहे हैं। उनका कहना है कि वे पहले ही ग्राहक न होते हुए भी महिलाओं को शौचालय का इस्तेमाल करने की छूट देते रहे हैं और कोई शुल्क भी नहीं लेते हैं। उनकी आशंका है कि अब पांच रुपये का शुल्क का शुल्क देकर कोई भी इन होटलों में जा सकता है जिससे उनके साफ सुथरे शौचालय की हालत कहीं सार्वजनिक शौचालय जैसी न हो जाए। कुछ लोगों का कहना है कि शौचालय जाने के लिए कतारें लगने से कहीं होटल में आने वाले मेहमान न बिदकने लगें। इसके अलावा शौचालयों के रखरखाव के लिए अधिक कर्मचारी रखने पड़ेंगे जिससे लागत भी बढ़ जाएगी।
कानूनी और व्यावहारिक पहलुओं के अलावा दिल्ली के नगर निगम का यह फैसला इसकी भी पुष्टि कर देता है कि वह अपने दम पर निवासियों को शौचालय की समुचित सुविधा देने में अक्षम है। जिन स्थानों पर निगम के शौचालय बनाए भी गए हैं, उनकी हालत ऐसी है कि बेहद जरूरी होने पर या अपनी सभी इंद्रियों को सुसुप्त कर देने पर ही व्यक्ति उसका इस्तेमाल कर सकता है।
यह ऐसी विडंबना है जिसे टाला नहीं जा सकता है। देश की राजधानी के करीब 1,400 वर्ग किलोमीटर इलाके में शौचालय की भारी कमी है। देश भर में सफाई के लिए स्वच्छता अभियान चला रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सरकारी आवास से थोड़ा दूर निकलते ही शौचालय की असलियत का अहसास होने लगता है। वैसे तो लोक कल्याण मार्ग पर स्थित प्रधानमंत्री निवास नई दिल्ली नगरपालिका परिषद के दायरे में आता है और वहां पर व्यवस्था चाक-चौबंद है। प्रधानमंत्री निवास के बाहर जुटने वाले मीडियाकर्मियों के लिए एक सचल शौचालय भी मौजूद है।
व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो शौचालय उपयोग संबंधी सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र की चतुर भागीदारी इस बात का खुला संकेत है कि सरकार अपनी नीतियों के क्रियान्वयन का बोझ किस तरह से निजी क्षेत्र पर डालने लगी है। इसके लिए काफी हद तक संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की निकम्मी सरकार को दोष देना होगा जिसने कॉर्पोरेट इतिहास की सबसे बेवकूफी भरी नजीर पेश की थी। बड़े संयंत्रों की स्थापना के चलते विस्थापित होने वाले लोगों के मुआवजे एवं पुनर्वास की सुविधाएं दे पाने में नाकाम रहने पर संप्रग सरकार ने उसका जिम्मा कॉपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी (सीएसआर) के नाम पर निजी क्षेत्र पर डाल दिया। अप्रैल 2014 में बने नए कंपनी कानून में 1,000 करोड़ रुपये से अधिक कारोबार वाली कंपनियों के लिए अपने लाभ का दो फीसदी हिस्सा सीएसआर मद में खर्च करना अनिवार्य कर दिया गया है। इन कंपनियों को अपनी सालाना रिपोर्ट में सीएसआर लक्ष्य हासिल नहीं कर पाने की कोई वजह बताकर बच निकलने की छूट भी दी गई है। बहरहाल इस कानून का इतना असर जरूर हुआ है कि सामाजिक क्षेत्रों पर कंपनियों का खर्च बढ़ा है। लेकिन ये कंपनियां अब सीएसआर के मद में खर्च की गई राशि का जोरशोर से प्रचार-प्रसार भी करने लगी हैं।
संक्षेप में कहें तो सरकार ने कंपनियों को अपनी छवि चमकाने को भरपूर मौके दे दिए हैं लेकिन उससे देश के समक्ष मौजूद मानव विकास चुनौतियों का कोई भरोसेमंद समाधान नहीं निकल पा रहा है। निजी स्वामित्व वाले होटलों और रेस्टोरेंट को आम लोगों के लिए सशुल्क शौचालय मुहैया कराने का निर्देश देना भी उसी सोच का एक हिस्सा माना जाएगा।
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