गत सप्ताह टाटा संस ने दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष एक आवेदन में कहा कि उसे दूरसंचार क्षेत्र के संयुक्त उद्यम साझेदार एनटीटी डोकोमो के पक्ष में अंतरराष्टï्रीय मध्यस्थता पंचाट द्वारा 1.18 अरब डॉलर के भुगतान के निर्णय पर कोई आपत्ति नहीं है। टाटा संस पहले ही यह राशि दिल्ली उच्च न्यायालय में जमा करा चुकी है और अगर अदालत आवेदन को मंजूरी देती है तो यह राशि डोकोमो के खाते में चली जाएगी। उस स्थिति में जापान की यह दिग्गज दूरसंचार कंपनी टाटा टेलीसर्विसिज में अपनी 26.5 फीसदी हिस्सेदारी टाटा संस या उसकी किसी निवेश कंपनी को स्थानांतरित कर देगी। बदले में डोकोमो ने कहा है कि दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णय से पूर्ण संतुष्टï होने की स्थिति में वह इस राशि का एक हिस्सा भारत में दोबारा निवेश कर सकती है। यह निवेश टाटा संस के साथ नए सहयोगी रिश्ते के अधीन हो सकता है।
दोनों समूहों के बीच समझौते से पहले डोकोमो ने टाटा संस के खिलाफ लंदन की अंतरराष्टï्रीय मध्यस्थता अदालत में मामला शुरू किया था। उसका कहना था कि टाटा संस 2009 के एक समझौते का पालन करने में चूक गई। जून 2016 में वह जीत गई। उसके बाद जापानी कंपनी ने इसके प्रवर्तन के लिए लंदन वाणिज्यिक अदालत, न्यूयॉर्क के सदर्न डिस्ट्रिक्ट कोर्ट और दिल्ली उच्च न्यायालय का रुख किया। यह मसला टाटा संस के दो पूर्व चेयरमैन साइरस मिस्त्री और रतन टाटा के विवाद में भी खूब उछला।
अदालत ने कहा है कि वह इस मसले पर बुधवार को सुनवाई करेगी और अभी इस पर अंतिम निष्कर्ष निकलने शेष हैं। परंतु यह स्पष्टï नहीं है कि कैसे एक नए समझौते को अंजाम दिया जाएगा जो मौजूदा नीति के विरोधाभासी हो। जून 2009 में जापान की इस कंपनी ने करीब 2.6 अरब डॉलर की राशि से टाटा टेलीसर्विसिज में हिस्सेदारी खरीदी। उस वक्त ऐसे निवेश को लेकर कोई कानून नहीं था। जब निवेश हुआ तो समझौते में एक वैकल्पिक प्रावधान रखा गया जिसका अर्थ था जब डोकोमो अपना हिस्सा बेचना चाहे तो उसे उचित मूल्य पर या अगर पांच साल में समुचित ग्राहक, टावर वित्तीय लक्ष्य हासिल नहीं हुए और मुनाफा नहीं कमाया जा सका तो क्रय मूल्य की आधी दर पर इसे बेचना होगा। वर्ष 2014 तक यानी निवेश के पांच साल बाद डोकोमो ने कारोबार से बाहर निकलना चाहा। इसके लिए उसने पहला विकल्प आजमाना चाहा।
दिक्कत यह थी कि इस बीच रिजर्व बैंक ने स्पष्टï नियम जारी कर दिए थे जिनके तहत किसी विदेशी निवेशक का तयशुदा मूल्य पर कारोबार से बाहर निकलना रोक दिया गया।
यह सच है कि केंद्रीय बैंक बाद में भुगतान की मंजूरी देने की इच्छा रखता था क्योंकि यह भारतीय कंपनी द्वारा समझौते का पालन करने या न करने का मामला था। इसके लिए उसने दिसंबर 2014 में वित्त मंत्रालय की सलाह भी मांगी। हालांकि उसने यह कहते हुए इस सुझाव को ठुकरा दिया कि एक कंपनी के लिए नीतियां नहीं बदली जा सकतीं। तब मामला मध्यस्थता आदेश के बाद फिर उछला। आरबीआई ने पुन: इनकार कर दिया।
तथ्य यह है कि टाटा-डोकोमो समझौता उन मौजूदा नियमों का उल्लंघन है जो पहले से पुनर्खरीद मूल्य निर्धारण को रोकते हैं। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश संबंधी नीतियां प्राय: पुरानी तिथि से लागू की जाने वाली नहीं होतीं। क्योंकि इसका निवेशकों पर व्यापक असर होगा। ऐसे में भुगतान को रोकने की कोई भी दलील सरकार के विदेशी निवेशकों से निपटने के खराब रिकॉर्ड को और खराब करेगी। डोकोमो ने जब टाटा के साथ समझौता किया था तब इसकी इजाजत थी। कोई भी कंपनी ऐसे समझौते क्यों करेगी जो मौजूदा कानून से ही मेल नहीं खाते हों।
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