यूबीआई को लेकर आम सहमति बन चुकी है। इस सहमति का उल्लेख करते हुए उसकी भविष्य की राह की विवेचना कर रहे हैं रथिन रॉय
अर्थशास्त्रियों के बीच यह मुद्दा बहस का विषय रहा है कि देश में सार्वभौमिक मूलभूत आय (यूबीआई) पेश करने की आवश्यकता है अथवा नहीं। यूबीआई से जुड़ी बहस गरीबी उन्मूलन के तरीके के रूप में उसकी उपयोगिता से संबंधित है। यह उपयोगिता मनरेगा, सब्सिडी और सार्वजनिक वितरण प्रणाली जैसे मौजूदा उपायों के बरअक्स है। साथ ही इस बात पर भी चर्चा चली कि इसी योजना को व्यवहार्य बनाने के लिए राजकोषीय गुंजाइश है या नहीं। आर्थिक समीक्षा में इस विषय पर चर्चा की गई। समीक्षा में यह उचित ही कहा गया कि इस विचार को विचारधारा से परे हटकर सबका समर्थन मिला है। लेकिन देश की राजनीतिक अर्थव्यवस्था को लेकर कोई बहुत सकारात्मक अनुमान नहीं हैं और यूबीआई के समर्थकों और इसके विरोधियों ने इसकी अनदेखी की है या कहें इससे बचकर निकल गए हैं।
सबसे पहले उन भ्रमों को दूर करते हैं जो बहस से अब तक सामने आए हैं। यूबीआई को लेकर कहा गया कि इसे वित्तीय मदद मुहैया कराने के लिए तमाम अन्य सब्सिडी और स्थानांतरण खत्म किए जा सकते हैं। यह सहज और सरल है। देश में कीमत आधारित सब्सिडी नाकाम हो चली है क्योंकि वह वांछित लक्ष्य को पूरा ही नहीं कर पाती। लेकिन गरीबी उन्मूलन उनका लक्ष्य भी नहीं है। भले ही राजनीतिक तौर पर यह दलील देना सहज हो कि वे गरीबों के लिए हैं। खाद्य और उर्वरक सब्सिडी से किसानों को राहत देने का प्रयास किया जाता है और उन लोगों को सस्ता खाद्यान्न मुहैया कराया जाता है जिनको इसकी जरूरत होती है। इन दोनों बातों से गरीबों को मदद मिलती है। अधिकांश अन्य सब्सिडी मसलन कर रियायत आदि वृद्घि दर बढ़ाने के लिए होती हैं या फिर निर्यात सुधारने अथवा ढांचागत बदलाव के लिए। यहां तक कि मनरेगा के लक्ष्य भी स्पष्टï नहीं हैं। इसका उद्देश्य सार्वजनिक कामों की मदद से रोजगार मुहैया कराना है। इसका लक्ष्य तभी पूरा होता है जब इसकी बदौलत पूंजीगत परिसंपत्ति तैयार हों। अगर इसका लक्ष्य केवल रोजगार की कमी को दूर करना होता तब तो सीधे लोगों के खाते में भी 100 दिन के न्यूनतम रोजगार का पैसा जमा कराया जा सकता था। बाद वाले कदम से गरीबी कम हो सकती है जबकि पहले वाले कदम को गरीबी उन्मूलन का तरीका नहीं माना जा सकता।
यूबीआई को अगर सार्वभौमिक नहीं बनाया गया तो यह बेमानी होगा। इसलिए जो लोग गरीबी उन्मूलन के लिए लक्षित मूलभूत आय की बात करते हैं लेकिन यूबीआई की बात नहीं करते। वे गरीबों के लिए आय सब्सिडी चाहते हैं। विकासशील अर्थव्यवस्था वाले देशों ने अब यह स्वीकार कर लिया है कि गरीबों को यूंही लाभान्वित करते रहना गरीबी की समस्या का हल नहीं है। यह काम आर्थिक वृद्घि की मदद से ही हो सकता है। गरीबी हटाने के लिए वृद्घि में भागीदारी जरूरी है।
सबसे साधारण ढंग से देखें तो यूबीआई एक नकारात्मक आय कर है। जरा कल्पना कीजिए कि हर वयस्क भारतीय के पास एक पैन नंबर है। हर महीने कुछ भारतीय कर चुकाते हैं और कुछ के पैन कार्ड से जुड़े बैंक खातों में सरकार की ओर से पैसा आता है। यूबीआई के लब्बोलुआब को इससे समझा जा सकता है। यानी कराधान की मदद से आय के वितरण में बदलाव। यानी अधिक आय वाले लोगों की आय का कुछ हिस्सा कम पाने वालों को आर्थिक गतिविधियों के बदले देना। राज्य का यह हस्तक्षेप आय की असमानता कम करेगा।
इसके पीछे मूल विचार लोक कल्याणकारी अर्थव्यवस्था के दूसरे सिद्घांत में वर्णित है। यानी जब कोई अर्थव्यवस्था सुस्थिर स्थिति में पहुंच जाती है। वह वृद्घि दर जिस पर श्रम और पूंजी का पूर्ण इस्तेमाल हो पाता है। उस वक्त सरकार राजकोषीय नीति की मदद से आय के वितरण को बदल सकती है। इसके लिए वह अमीरों पर कर लगा सकती है ताकि गरीबों को बिना वृद्घि दर से समझौता किए कुछ दिया जा सके। संसाधनों के पूर्ण इस्तेमाल के बावजूद बाजार आय के सही वितरण में नाकाम हो सकते हैं, तब राज्य का हस्तक्षेप आवश्यक है।
बाधा यहीं पर है। कल्याणकारी अर्थव्यवस्था का दूसरा सिद्घांत तब लागू होता है जब संसाधनों का पूरा इस्तेमाल हो रहा हो। भारत जैसी उभरती और विकासशील अर्थव्यवस्था वाले मुल्कों पर यह बात लागू नहीं होती। इसलिए पूरा ध्यान स्थिर और उच्च विकास पर केंद्रित है। आर्थिक गतिवधियां, उत्पादकता और मेहनताना बढऩे के साथ-साथ आय भी बढ़ती है और मुनाफा भी। वृद्घि के लाभ हर किसी की आय में इजाफा सुनिश्चित करते हैं और उनके जीवन मानक भी सुधरते हैं। ऐतिहासिक रूप से सफल हर सामाजिक बदलाव में यह देखने को मिला। ऐसे में अगर भारत वास्तव में एक साल में 8 फीसदी की दर से वृद्घि हासिल करती है और सबकी आय सालाना 6 फीसदी की दर से बढ़ती है तो सभी भारतीयों की वास्तविक आय 2035 तक तीन गुनी हो जाएगी।
जैसे-जैसे यह प्रक्रिया चलती है आय के वितरण में सरकार का हस्तक्षेप केवल सामाजिक सुरक्षा मुहैया कराने तक रह जाता है। वह भी ऐसे वर्ग के लिए जो वृद्घि में भागीदारी कर पाने में नाकाम है। करों का इस्तेमाल स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे सामाजिक कामों के लिए किया जाएगा। इसके अलावा उसका इस्तेमाल राष्टï्रीय हित के कामों मसलन रक्षा और न्याय आदि के क्षेत्र में किया जाएगा।
ऐसे में यूबीआई को लेकर राजनीतिक सहमति एक परेशान करने वाली स्वीकारोक्ति की ओर ले जाती है: 15 साल में भारत का जीडीपी तीन गुना हो जाएगा लेकिन ऐसी कोई उम्मीद नहीं कि इससे सार्वभौमिक बेहतरी आएगी। मानव संसाधन और वित्तीय पूंजी पर काबिज चंद लोगों को वृद्घि का सबसे अधिक फायदा मिलता है और उनको सबसे अधिक आय भी अर्जित होती है। शेष लोग जो देश की आबादी के आधे से अधिक हैं, उनको इस तबके से स्थायी हस्तांतरण हासिल होगा। इसकी वैकल्पिक व्याख्या यह है कि इस बात पर वैचारिक सहमति है कि भारत 8 फीसदी की विकास दर हासिल नहीं कर पाएगा। यह इस बात की स्वीकारोक्ति है कि हमारी वृद्घि की राह असमान बनी रहेगी। ऐसे में प्रधानमंत्री का यह वादा भी हकीकत से दूर रहेगा कि हर परिवार को एक सम्मानजनक रोजगार मिलेगा। अगर ऐसा हो सकता तो देश के अधिकांश लोगों को यूबीआई की आवश्यकता ही नहीं होगी। आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि हमें आय और रोजगार के एक साथ एक दिशा में लंबे समय तक आगे बढऩे की उम्मीद नहीं है। लेकिन हमें हकीकत का सामना अधिक बेहतर ढंग से करना होगा। यूबीआई को जो सर्वदलीय स्वीकृति मिली है वह इस बात की स्वीकारोक्ति है कि देश के भविष्य में समावेशी विकास की संभावना नहीं नजर आ रही। ऐसे में सरकार को निरंतर हस्तक्षेप करते रहना होगा। इतना ही नहीं उसे आय के वितरण को भी सुधारना होगा जब तक कि अर्थव्यवस्था अपनी पूरी क्षमता से प्रदर्शन नहीं करती।
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